30 मई 2009

मंजिल की तलाश में चल रहा संघर्ष का कारवाँ


आनन्द राय, गोरखपुर

कुदरत ने उनके साथ छल किया है। उनमें किसी की आंखों का नूर, किसी के पैरों की ताकत और किसी के सुनने की शक्ति छीन ली है। बहुतों के पास जुबान तो है पर बोल नहीं पाते। इस बार वे सब प्राइमरी की परीक्षा में सामान्य बच्चों के साथ बैठे और अपने हुनर की छाप छोड़ी। अपने हौसलों के बल पर उनमें मुख्य धारा से जुड़ने की आस बंध गयी है। मंजिल की तलाश में अब इनके संघर्ष का कारवां आगे बढ़ रहा है। गोरखपुर जिले में 2008-09 में कुल 869335 बच्चों का नामांकन हैं इनमें 5380 बच्चे अक्षम हैं। शारीरिक अक्षमता और मां-बाप की आर्थिक तंगी उनकी बदकिस्मती है। ऊपर से कभी खत्म न होने वाला तानों और उलाहनों का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है। दिन काटना मुश्किल है। इन सबके बावजूद ये सभी बच्चे लिख पढ़ रहे हैं और इनमें मुख्य धारा में शामिल होने की छटपटाहट है। भटहट क्षेत्र के प्राथमिक विद्यालय चकिया में कक्षा एक के आठ साल का नीरज श्रवण दोष से बाधित है। उसकी दुनिया स्कूल जाते ही बदल गयी। दो माह के अंदर ही उसने इतना कुछ सीख लिया कि अन्य दूसरे बच्चों के बराबर उसका शैक्षिक ज्ञान हो गया। उसके पिता अशोक कुमार महज पांचवीं तक पास हैं। सुनने में अक्षम सात साल की सुधा इसी विद्यालय में कक्षा एक की छात्रा है और उसका मानसिक स्तर बहुत अच्छा है। वह श्रवण यंत्र का प्रयोग करती है। पिता सदानन्द को अब उस पर भरोसा है। यद्यपि उसे बोलने में अभी भी परेशानी है लेकिन अपने हौसले के बल पर अपनी पढ़ाई की गति तेज की है। पिपरौली विकास खण्ड के प्राथमिक विद्यालय शेरगढ़ में कक्षा पंाच में पढ़ने वाले 11 साल के सुजीत की आंखों ने जन्म से ही उसे दगा दे दिया। पर वह न केवल अपने दैनिक जीवन की क्रियाओं को अंजाम देता है बल्कि पैसों का अंतर भी समझता है। गांव में खरीददारी भी करने जाता है। वह ब्रेल पढ़ लेता है और विभिन्न चिन्हों को समझ लेता है। ये बच्चे कुछ बनना चाहते हैं। इनकी चाहतों में कोई बड़ा सपना भले न हो लेकिन ये किसी के लिए बोझ नहीं बनना चाहते । प्राथमिक विद्यालय रेतवहिया में कक्षा दो में पढ़ने वाले दिवाकर को श्रवण दोष है। वह कुछ तीव्र ध्वनियों को सुन लेता है। यद्यपि उसका भाषा विकास श्रवण बाधित होने के नाते प्रभावित है। फिर भी वह अपनी कक्षा में विशेष प्रस्तुति से एक मुकाम बनाये है। प्राथमिक विद्यालय सरैया में कक्षा पांच में पढ़ने वाली प्रतिभा को अति गंभीर श्रेणी का श्रवण दोष है लेकिन मन में एक तमन्ना है कि पढ़ लिखकर कुछ बनना है इसलिए वह निरंतर संघर्ष कर रही है। 11 साल की प्रतिभा के हुनर के सभी कायल हैं। प्राथमिक विद्यालय नवीपुर में कक्षा एक की छात्रा रेहाना बराबर स्कूल जाती है। वह सुनने के लिए श्रवण यंत्र का प्रयोग करती है और अब पढ़ाई में उसका मन रम गया है। भौवापार टोटहां निवासी महेन्द्र का 16 वर्षीय बेटा संतोष कक्षा पांच में पढ़ता है। वह ब्रेल के माध्यम से पढ़ने लगा है । बड़गहन में कक्षा छह में पढ़ने वाली गुडडन दृष्टिबाधित है। पिता नौकरी करते हैं इसलिए उसके प्रति थोड़े जागरूक हैं। वह सभी तकनीकों का ज्ञान रखती है तथा चलने फिरने में उसका सही इस्तेमाल करती है। वह ब्रेल के माध्यम से लिखती पढ़ती है। इसी गांव में कक्षा चार की रिंकू पूर्ण रूप से दृष्टि बाधित है। पिता मजदूरी करते हैं। पढ़ाई में वह तेज है। चनऊ बाघागाढ़ा की पुष्पा कक्षा आठ में पढ़ती है और पूरी तरह से दृष्टिबाधित है। पर पढ़ाई में उसकी गति तेज हो गयी है। आठ वर्ष की कुमारी चन्दि्रका प्राथमिक विद्यालय हजारीपुर नवीन में कक्षा दो में पढ़ती है। उसकी भी पढ़ाई बेहतर है। प्राथमिक विद्यालय हजारीपुर नवीन में कक्षा दो में पढ़ने वाला दस साल का आकाश माडरेड कटेगरी का छात्र है। हुमायूंपुर उत्तरी में रहने वाले उसके पिता जयगोविन्द और मां राजकुमारी मजदूरी करते हैं। इसके छह अन्य भाई बहन हैं जिसमें एक खूशबु भी उसी की तरह है। वह कक्षा तीन में पढ़ती है। आकाश ने ने लिखने पढ़ने की दिशा में ध्यान दिया और अब वह और उसकी बहन अन्य बच्चों की तरह मुख्य धारा से जुड़ गये हैं।ये सभी बच्चे उनके लिए प्रेरणास्रोत हैं जो जीवन की जंग छोटी मोटी दिक्कतों से हार गये हैं। जिनके हौसले पस्त हैं उनके लिए भी इनकी हिम्मत दाद देने वाली है। ये सभी कुछ बनना चाहते हैं।

उनसे बेहतर तो राहुल ही


आनंद राय , गोरखपुर

दैनिक जागरण में एक रपट छपी - मंत्रीमंडल ऐसा दीजिये जामे कुटुंब समाय । यह उन लोगों के लिए था जिनके बाप दादे सरकार में रहे हैं। राहुल गांधी उन सभी लोगों से मुझे बेहतर लगे जो मंत्री पद पाने के लिए परेशान थे। किसी ने कहा कि राहुल तो सीधे प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं। एक भाई ने तो उन्हें यू पी के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत कर दिया। जो हो और राहुल जो चाहे बने लेकिन ऐसा नही है कि उनके परिवार में लोग सिर्फ़ प्रधानमंत्री पद ही सुशोभीत करते हैं। इंदिरा गांधी भी मंत्री रही हैं। राहुल की नजर संगठन पर है। यू पी में कमजोर हो चुकी कांग्रेस को मजबूत करना उनका इरादा है। उन्होंने मरी हुई कांग्रेस में जान डाली है। कांग्रेस उठ गयी है। राजीव गांधी की हत्या २१ मई १९९१ को हुई और उसके सात साल बाद सोनिया गांधी राजनीति में आयी। मैं तो ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जिनके पति की लाश सामने रखी हो और वह राजनीति की पारी खेलने के लिए व्याकुल हो गयी हों। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही कांग्रेस के कई ऐसे मंत्री रहे जिनके पति के मौत का मातम मनाया जा रहा था और वे लोग राजनीति में अपनी जगह तलाश रही थी। बहरहाल जिन्हें सत्ता से प्रेम उन्हें सत्ता मुबारक हो लेकिन सच यही है कि यह भारत की जनता है और इसने किसी को भी असमय नही धोया है। जिनके बेटी बेटे और पोते पोती राजनीति में अबकी मुकाम पाये उनमे से भी कई ऐसे रहे जिन्हें जनता ने सिंहासन से उतार फेंका।

मंत्रिमंडल ऐसा दीजिए, जामे कुटुंब दिल्ली, जागरण ब्यूरो : मंत्रियों की सूची है या वंशबेलि का ब्यौरा? बेटे, बेटी,स छोडि़ए यहां तो नेता परिवारों की तीसरी पीढ़ी तक टीम मनमोहन को धन्य कर रही है। इस टीम में ससुर और दामाद भी एक साथ शामिल हैं। कहने को कोशिश युवा चेहरे लाने की है लेकिन दरअसल इस मंत्रिमंडल से भारतीय राजनीति का वंशवादी चेहरा बड़ा होकर सामने आ गया है। गांधी परिवार के युवराज राहुल का मंत्रिमंडल में न आना तो उनकी पारिवारिक सियासत का तकाजा है लेकिन उनके अलावा उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक सभी प्रमुख राजनीतिक परिवारों के नए नुमाइंदे मंत्रिमंडल में शामिल हैं। उत्तर से शुरू करें तो गुरुवार को फारूक अब्दुल्ला कैबिनेट मंत्री पद की शपथ लेकर परिवारवाद का बड़ा ही रोचक नजारा पेश कर रहे होंगे। क्योंकि उनके दामाद सचिन पायलट ( स्व. राजेश पायलट के बेटे) भी उनके साथ ही राज्यमंत्री पद के लिए शपथ लेंगे। कभी कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देकर खूब नाम कमा चुके स्व. जितेंद्र प्रसाद के उत्तराधिकारी जितिन प्रसाद भी पिछली बार की तरह राज्यमंत्री का पद संभालेंगे। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पत्नी परनीत कौर भी टीम मनमोहन में राज्यमंत्री होंगी। मध्य भारत से स्व. माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया और मध्यप्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के बेटे अरुण यादव राज्यमंत्री की शपथ लेकर परिवारवाद का परचम लहराएंगे तो पश्चिम से पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. माधव सिंह सोलंकी के बेटे भरत सिंह सोलंकी व गुजरात के मुख्यमंत्री रहे अमर सिंह चौधरी के पुत्र तुषार भाई चौधरी भी राजनीति में परिवारवाद की अलख जगाते नजर आएंगे। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल के पौत्र प्रतीक पाटिल भी नेताओं की तीसरी पीढ़ी के प्रतीक बन कर आए हैं। एन.टी. रामाराव की पुत्री डी. पुरंदेश्वरी फिर मंत्रिमंडल में होंगी तो द्रमुक प्रमुख एम. करुणानिधि के ज्येष्ठ पुत्र एम.के. अझागिरी और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. मुरासोली मारन के पुत्र व करुणानिधि के भतीजे दयानिधि मारन भी कैबिनेट का हिस्सा होंगे। जी.के. मूपनार के पुत्र जी.के. वासन भी कैबिनेट दर्जे के मंत्री बन गए हैं। पी.ए. संगमा की युवा पुत्री अगाथा भी टीम मनमोहन का हिस्सा बनी हैं।

27 मई 2009

जनता ने लगा दी लगाम


आनंद राय , गोरखपुर

पंद्रहवी लोकसभा के चुनाव ने कई प्रतिमान बनाए। बड़ी बड़ी हांकने वालों पर ऐसी लगाम लगाई कि अब शायद कुछ भी कहते और सोचते हुए उनके दिल काँप उठते होंगे। उत्तर प्रदेश के चुनाव पर मेरी नजर थी. लोग सवाल करते थे कि इस बार क्या होगा. कुछ भी दावे जैसी बात नहीं थी लेकिन मन के कोने में यह जरूर था कि इस बार कांग्रेस उठेगी. अपने कई साथियों की दलील सुनता तो लगता कि हो सकता है जो ये कह रहे हैं वही सही हो. फिर कुछ हेर फेर के साथ अपने ही मन की बात ज्यादा प्रभावी लगती थी. जबसे राहुल गांधी ने पूर्वांचल का दौरा शुरू किया है तबसे मैं उन्हें कवर कर रहा हूँ और एक बात हमने देखी कि आम जन मानस के मन में एक सहानुभूति, एक प्यार और अपनापन भरा पडा है. दूसरे पिछले चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों को देखता तो लगता यह पार्टी जरूर लौटेगी. कुशीनगर में आर पी एन सिंह, डुमरियागंज में जगदम्बिका पाल और महराजगंज में कांग्रेस का प्रदर्शन इस बात का प्रमाण था कि लोगों के मन में इस पार्टी के पार्टी कुछ जरूर है. वरना उत्तर प्रदेश में जिस तरह कमजोर संगठन है उसके आधार पर कुछ भी ठीक नहीं हो सकता. मैं बात उन लोगों की करना चाहता हूँ जिन लोगों ने अपने दंभ को पूरे चुनाव भर जनता के बीच उछालने का प्रयास किया. शुरूआत मुलायम सिंह यादव से करना चाहेंगे. कांग्रेस के तालमेल के दिनों में जब कमोवेश सभी नेता इस बात पर सहमत थे कि १५ सीटों पर भी वे समझौते को तैयार हैं तब कांग्रेस सपा के नेताओं के गले नहीं उतर रही थी. अमर सिंह के बयानों ने तो भूचाल जैसी स्थिति ला दी. उन्होंने कांग्रेस प्रभारी को औकात में रहने की नसीहत दे डाली. कांग्रेस के साथ रहकर पूरे पांच साल तक सत्ता का सुख भोगने वाले लालू और पासवान ने तो बिहार में तीन सीटें देने की बात करके और भी ज्यादा उपहास उडाने का काम किया. चुनाव प्रचार में तो सबकी बातें आसमान छूने वाली थी. लालू और पासवान मिलकर कांग्रेस की औकात बता रहे थे तो मुलायम हर सभा में यह जरूर कहते कि केंद्र सरकार चाहे जो बनाए लेकिन उसकी चाभी उन्ही के पास रहेगी. अब लालू, मुलायम कांग्रेस के पीछे दौड़ रहे हैं. जनता ने मुलायम को मुलायम कर दिया है और लालू का लाल पीला रंग उतार दिया है. लालू को तो ऐसी पटखनी दे दी कि अब उनका रंग सफेद पड़ गया है. 1977 से लगातार चुनाव जितने वाले पासवान का भी जनता ने दंभ तोड़ दिया है. और भी बहुत से लोग इस कतर में हैं जिनका भ्रम टूटा है. जनता को जनता की जीत मुबारक हो.चित्र में आडवानी जी को देखकर तो राम जी की पार्टी का हश्र ठीक से समझ में आ जाएगा। भाजपा की भी बोलती बंद हो गयी और उनके भी बड़े बड़े शूरमा धराशायी हो गए।

25 मई 2009

कांग्रेस : प्रदेश में बल्ले-बल्ले तो जिले में मायूसी

राजेश शुक्ल, गोरखपुर
लोक सभा चुनाव के बाद देश व प्रदेश में जहां कांग्रेस पार्टी की बल्ले-बल्ले हो रही है वहीं गोरखपुर जनपद में पार्टी के अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन के बाद मायूसी छाई हुई है। पार्टी की मायूसी का सबसे बड़ा कारण बांसगांव संसदीय सीट पर बतौर केन्द्रीय मंत्री महाबीर प्रसाद की जमानत जब्त हो जाना है तथा गोरखपुर सीट पर पार्टी के तीस हजार वोट तक ही सिमट जाना है। संगठन के लोग इन दोनों सीटों पर करारी हार का ठीकरा दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं। कांग्रेसी इसका कारण सांगठनिक कमजोरी मान रहे हैं। 2004 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर मण्डल में कांगे्रस के हिस्से केवल एक सीट आयी थी। तब बांसगांव संसदीय सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में महाबीर प्रसाद जीते थे। पार्टी ने इस जीत का इनाम देते हुए उन्हें केन्द्रीय कैबिनेट में स्थान देकर पूर्वाचल में नया संदेश देने की कोशिश की, लेकिन पांच साल बाद तस्वीर ऐसी बदल गयी कि 2009 के चुनाव में यहां पार्टी हासिये पर चली गयी। चुनावी समीकरण ऐसा बिगड़ा कि इस सीट पर महाबीर प्रसाद की जमानत तक नहीं बची। 2009 के चुनाव में कांगे्रस ने महराजगंज व कुशीनगर लोस सीटों पर विजय हासिल की है, जबकि गोरखपुर में उसका अब तक सबसे खराब प्रदर्शन रहा है। चुनाव के ऐन मौके पर कांग्रेस में आए बालेश्वर यादव ने देवरिया सीट पर यद्यपि सपा का समीकरण बिगाड़ दिया लेकिन कांग्रेस के लिए कुछ खास नहीं कर पाए, जबकि सलेमपुर सीट पर कांग्रेसी भोला पाण्डेय पिछली बार की तरह ही जीतती बाजी हार गये। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2004 के लोकसभा चुनाव में विपरीत लहर के बावजूद बांसगांव क्षेत्र से महाबीर प्रसाद ने 1.80 लाख वोट हासिल कर कांग्रेस का झण्डा फहराया था। पार्टी हाईकमान से उन्हें इस कामयाबी का ईनाम भी मिला और वे कैबिनेट मंत्री बने लेकिन इस बार उन्हें मात्र 76 हजार मतदाताओं ने वोट दिया और वह पहले से चौथे नंबर पर पहुंचे गये। स्थिति यह रही कि चौरी-चौरा विधानसभा क्षेत्र जहां से कांगे्रस पार्टी ने विधान सभा चुनाव में जीत दर्ज की है वहां भी महावीर प्रसाद केवल 13.76 हजार वोट ही पा सके। इस विधानसभा क्षेत्र में भी वह चौथे स्थान पर ही रहे। सदर संसदीय क्षेत्र में तो कांग्रेस की हालत किसी से छिपी नहीं है। पिछले पच्चीस वर्षो से इस क्षेत्र से कांग्रेस का कोई सांसद नहीं बना। वर्ष 1984 में मदन पाण्डेय आखिरी बार यहां से सांसद चुने गए। उसके बाद से गोरखपुर के भगवा लहर में कांग्रेस की नैया डूबती ही चली गयी। न केवल पार्टी हारती रही बल्कि लगातार मतों के प्रतिशत में भारी गिरावट आई। इस बार पुराने खाटी कांग्रेसी लालचंद निषाद को पार्टी ने मैदान में उतारा था। उम्मीद थी कि पार्टी के पारंपरिक वोटों के साथ-साथ लालचंद निषाद को स्वजातीय वोटों का लाभ मिलेगा लेकिन उन्हें महज 30 हजार वोट ही मिल सके। जनपद के दोनों लोकसभा क्षेत्रों में कांगे्रस के इस खराब प्रदर्शन को लेकर कांग्रेसियों में घोर मायूसी है। कांग्रेस नेता इसे संगठन की कमजोरी मान रहे हैं और अन्दर ही अन्दर नये सिरे से पूरे संगठन को परिवर्तित करने के लिए अपने अपने संरक्षणदाताओं को समझाने में लग गये हैं। इस सम्बन्ध में जब जिलाध्यक्ष संजीव सिंह से बातचीत की गयी तो उन्होंने कहा कि बांसगांव व गोरखपुर की जनता अभी जाति धर्म की राजनीति से नहीं उबर पायी है जिसके चलते यहां हार हुयी। पाटी संगठन की निष्कि्रयता के सवाल पर उन्होंने कहा कि इस प्रकार का आरोप निराधार है चुनाव में हमारे सभी तहसील व ब्लाक पदाधिकारी पूरी तरह सक्रिय रहे हैं। महानगर अध्यक्ष चौधरी इरशाद हुसेन ने कहा कि सदर क्षेत्र से प्रत्याशी चयन की घोषणा ऐन नामांकन के पहले हुई जिसके कारण हमें ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा, अगर प्रत्याशी की घोषणा पहले हो गयी होती तो स्थिति अलग होती। प्रदेश कांग्रेस महामंत्री सैयद जमाल अहमद ने कहा कि हमें इस पर आत्ममंथन करना होगा। हार के कई करण हैं जिसमें संगठन भी एक कारण हो सकता है।

पेंशन के लिए ससुर को बनाया शौहर

विवेक राय , गोरखपुर : रेलवे की पेंशन न रुकने पाये इसके लिए सास की मौत के बाद एक बहू ने पति की सहमति से अपने ससुर से विवाह रचा लिया। शादी का रजिस्ट्रेशन रजिस्ट्री कार्यालय में कराने के बाद बतौर नामिनी रेलवे पेंशन पास, पीटीओ व अन्य कागजात में नाम भी दर्ज करा लिया, लेकिन जेठ की शिकायत पर तीनों के खिलाफ मुकदमा लिख गया। मामला बेलीपार थाना क्षेत्र के ग्राम भस्मा का है। यहां के सुरेन्द्र नाथ पाण्डेय रेलवे में नौकरी करते थे। उनकी पत्नी का 25 दिसम्बर 1997 को हो चुका है। सुरेंद्र के छोटे लड़के ने पिता की मृत्यु के बाद भी पेंशन जारी रखने के लिए अपनी पत्नी पूजा को कागजों में पिता की बीवी घोषित करा दिया, वह भी पिता और पत्नी की सहमति से। इस फर्जी ब्याह के बावत 29 मई 2006 को रजिस्ट्री कार्यालय में पंजीकरण भी कराया गया। इस दस्तावेज के आधार पर रेलवे के पेंशन, यात्रा पास सहित अन्य सुविधाओं के लिए पूजा को बतौर पत्नी नामिनी दर्ज करा दिया गया। इधर इस मामले की भनक लगने पर सुरेंद्र पाण्डेय के बड़े लड़के प्रशांत ने कोर्ट को हकीकत के बारे में बताया तो पिता के साथ-साथ उनके छोटे भाई और अनुज वधू के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का आदेश जारी हो गया।

अगस्त से बदल जायेगी दस ट्रेनों की टाइमिंग

शैलेन्द्र श्रीवास्तव , गोरखपुर :
लखनऊ स्टेशन पर परिचालनिक कारणों को लेकर दस ट्रेनों के आगमन एवं प्रस्थान समय में अगस्त माह से परिवर्तन हो जायेगा। इन ट्रेनों में वैशाली, गोरखधाम, कुशीनगर, हावड़ा-काठगोदाम एक्सप्रेस शामिल हैं। पूर्वोत्तर रेलवे के मुख्य जनसम्पर्क अधिकारी अमित सिंह से मिली जानकारी के अनुसार दस अगस्त से बरौनी-नयी दिल्ली वैशाली एक्सप्रेस गोण्डा में 19।30 बजे के स्थान पर 19।25 बजे पहुंचकर 19.35 बजे के स्थान पर 19.30 बजे छूटेगी। यह गाड़ी लखनऊ 22.10 बजे के स्थान पर 22.05 बजे पहुंचकर अपने निर्धारित समय 22.25 बजे छूटेगी। गोरखपुर-नयी दिल्ली गोरखधाम एक्सप्रेस 9 अगस्त से गोरखपुर से 16.30 बजे के स्थान पर 16.25 बजे छूटेगी। कुशीनगर एक्सप्रेस नौ अगस्त से 31.30 बजे गोण्डा पहुंचकर 21.35 बजे रवाना होगी। सहरसा-आदर्शनगर नयी दिल्ली पूरबिया एक्सप्रेस 16 अगस्त से 23.35 बजे गोण्डा पहुंच कर 23.40 बजे, मुजफ्फरपुर-देहरादून एक्सप्रेस 10 अगस्त से 23.35 बजे पहुंचकर 23.40 बजे, गोरखपुर-देहरादून एक्सप्रेस 12 अगस्त से गोण्डा 23.35 बजे पहुंचकर 23.40 बजे, गुवाहाटी-लालगढ़ अवध असम एक्सप्रेस 12 अगस्त से गोण्डा 2.30 बजे पहुंचकर 2.35 बजे छूटेगी। हावड़ा-काठगोदाम बाघ एक्सप्रेस 11 अगस्त से बाराबंकी स्टेशन पर 22.10 बे पहुंचकर 22.12 बजे रवाना होगी। मोतिहारी-पोरबंदर एक्सप्रेस 11 अगस्त से गोण्डा जंक्शन पर 00.50 बजे पहुंचकर 00.55 बजे छूटेगी। नयी दिल्ली-मुजफ्फरपुर सप्तक्रांति एक्सप्रेस 9 अगस्त से लखनऊ जंक्शन पर 22.10 बजे पहुंचकर 22.30 बजे प्रस्थान करेगी।

19 मई 2009

भाजपा से कम वोट पाकर सीट पाने में आगे रही कांग्रेस

गोरखपुर : आनंद राय

बस्ती और गोरखपुर मण्डल की नौ संसदीय सीटों पर सभी दलों को मिले मतों को जोड़कर देखा जाय तो सर्वाधिक क्षति सपा की हुई। 2004 के चुनाव में इस अंचल में वोटों के लिहाज से सबसे आगे रहने वाली सपा इस बार सबसे पीछे हो गयी। दोनों मण्डलों में पिछले चुनाव के मुकाबले सपा को लगभग पांच लाख मतों की क्षति उठानी पड़ी जबकि बसपा से उसे सात लाख से अधिक मतों से पीछे रह जाना पड़ा। भाजपा दूसरे नम्बर पर रहकर भी सीटों के मामले में पिछड़ गयी और कम वोट पाकर भी कांग्रेस ने करिश्मा कर दिया। अबकी बार गोरखपुर-बस्ती मण्डल में सर्वाधिक वोट और सर्वाधिक सीटें बहुजन समाज पार्टी को मिली। वोटों के लिहाज से दूसरे नम्बर पर रहने वाली भारतीय जनता पार्टी सीट पाने के मामले में कांग्रेस से पीछे हो गयी। इस बार बसपा को चार सीटें और 1763700 मत मिले। जद यू समेत भाजपा 1521739 मत पाकर सिर्फ दो सीटों पर ठहर गयी। अलबत्ता 1245178 मत पाकर कांग्रेस ने तीन सीटें हासिल की। दोनों मण्डलों में समाजवादी पार्टी को सिर्फ 1040411 मत मिले। 2004 के चुनाव में सपा सबसे आगे थी। तब सपा को 1539765, भाजपा को 1537945, बसपा को 1417694 और कांग्रेस को 1155244 मत मिले। वैसे इस बार मतों का बिखराव भी खूब हुआ। बस्ती मण्डल में पीस पार्टी का प्रदर्शन करिश्माई हो गया। अधिकार मंच परिवर्तन मंच ने भी कुछ सीटों पर वोटों में सेंधमारी की। अल्पसंख्यक इलाकों में एकतरफा कब्जा जमाने वाली सपा इस बार अपना जादू नहीं चला सकी। यद्यपि अल्पसंख्यकों ने बसपा को भी बहुत महत्व नहीं दिया लेकिन उनके वोटों के बिखराव का लाभ उसे जरूर मिला। जहां पिछली बार बसपा सपा से इन दोनों मण्डलों में 122071 मतों से पीछे थी वहीं इस बार उसे 723289 मतों की बढ़त मिली। सपा की हालत तो इतनी पतली हुई कि पिछली बार उसे जो मत मिले इस बार उसमें 499354 मतों की कमी आ गयी। कांग्रेस ने तो पिछली बार मिले अपने मतों में सिर्फ 89934 मतों की बढ़त हासिल की लेकिन उसे तीन सीटें मिल गयी जबकि पिछली बार सिर्फ एक सीट मिली थी। यह जरूर है कि कांग्रेस के कई क्षेत्रों में मतों का ग्राफ काफी नीचे आ गया। मसलन बांसगांव में महावीर प्रसाद अपने पिछली बार मिले मतों का आधा मत भी नहीं पा सके तो देवरिया में भी कांग्रेस के बालेश्र्वर यादव पिछले चुनाव के मुकाबले कम वोट पाये। गोरखपुर में लालचंद निषाद, बस्ती में बसंत चौधरी और संतकबीरनगर में फजले मसूद का वोट भी पिछले चुनाव के मुकाबले कम रहा। दोनों मण्डलों में भाजपा को पिछले चुनाव की अपेक्षा इस बार सिर्फ 16206 मत कम मिले। पर इस बार भाजपा का प्रयोग फ्लाप हो गया। इसका गढ़ महराजगंज बिखर गया वहीं बस्ती में मजबूत रहने वाली भाजपा दरक गयी। योगी आदित्यनाथ ने अपने पक्ष में गोरखपुर में मतों का धु्रवीकरण करके भले भाजपा के मतों की संख्या बढ़ा दी लेकिन दूसरी सीटों पर उनका जादू नहीं चल सका। महराजगंज, कुशीनगर, बस्ती जैसी सीटों ने तो निराश ही किया। बसपा को भितरघात और अतिविश्र्वास ले डूबा। वरना शुरूआती दौर में जो स्थिति बन रही थी वह आखिरी समय तक कायम नहीं रह सकी। सपा को जनता ने उपेक्षित कर दिया और इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुलायम सरकार में मंत्री रहे ब्रह्माशंकर त्रिपाठी और विधानसभा अध्यक्ष रहे माता प्रसाद पाण्डेय को जनता ने महज साठ हजार मतों में समेट दिया जबकि ये दोनों दिग्गज पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे।

उपेक्षा-प्रतिशोध से पूर्वाचल में हुई कमजोर सपा

आनन्द राय, गोरखपुर

समाजवादी पार्टी को गोरखपुर-बस्ती मंडल में मिली करारी हार ने पार्टी नेताओं के कान खड़े कर दिये हैं। यह स्थिति एक दिन में नहीं हुई बल्कि इसकी पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही बन रही थी। कमजोर संगठन और आपसी मतभेदों ने सपा का माहौल खराब कर दिया। चुनाव के पहले से ही सपा के पाये खिसकते रहे और जमीन दरकती गयी। समाजवादी पार्टी में संगठनात्मक स्तर पर शायद ही कोई ऐसा जनपद हो जहां पर आपस में कलह न हो। इस कलह ने विद्रोह, भितरघात, पलायन और प्रतिशोध की भूमिका तैयार की। रही सही कसर टिकट बंटवारे में हुई उपेक्षा ने पूरी कर दी। इससे आगे की स्कि्रप्ट कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव की दोस्ती के बाद नाराज मुस्लिमों ने लिख दी। सपा सिमट गयी। अब उसकी तकदीर पर समर्पित कार्यकर्ता जहां आंसू बहा रहे हैं वहीं अवसरवादी दूसरे दलों में अभी से अपना वजूद तलाशने में जुट गये हैं। समाजवादी पार्टी ने लोकसभा चुनाव की भूमिका तैयार करते हुये सबसे पहले सुरक्षित सीटों पर ध्यान केन्दि्रत किया। बांसगांव संसदीय क्षेत्र में पूर्व विधायक कमलेश पासवान ने टिकट की गारंटी न देखकर भाजपा से हाथ मिलाकर सपा को अलविदा कह दिया। कमलेश भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत गये और आखिरी समय में टिकट पाने वाली शारदा देवी किसी तरह तीसरे स्थान पर पहंुच सकीं। गोरखपुर सदर संसदीय क्षेत्र में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अमर सिंह ने भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार मनोज तिवारी मृदुल को चुनाव मैदान में उतारा तो कई पुराने कार्यकर्ता-नेता नाराज हो गये। विद्रोह का रुख पूर्व मंत्री रामभुआल निषाद ने अपनाया और उन्होंने बसपा का दामन थाम लिया। इस दौरान मनोज मृदुल चुनाव मैदान में आये और उनके आने के साथ ही विवाद की भूमिका शुरू हो गयी। मनोज को मुकामी संगठन ने बहुत तरजीह नहीं दी। यहां तक कि चुनावी बैठक के दौरान ही संगठन के नेताओं के बीच तनातनी हो गयी। इसकी गूंज दूर तक सुनायी पड़ी। चर्चित नेता भानु मिश्र पार्टी से बाहर किये गये और फिर दम ठोंकते हुये उनकी वापसी हुई। इस तरह के छिटपुट विवाद ने सपा की उल्टी गिनती शुरू कर दी और मनोज मृदुल इस कदर सिमट गये कि उनकी जमानत तक नहीं बची। बाद के दिनों में जब कल्याण और मुलायम की दोस्ती का फैक्टर चला तो आजम खां की उपेक्षा का मुद्दा उठाकर 22 वर्षो तक मुलायम का साथ निभाने वाले जफर अमीन ने विद्रोही तेवर अपनाकर पार्टी छोड़ दी। भितरघातियों ने तो जो किया सो किया ही। सपा में विद्रोह की गूंज सिर्फ इसी जिले में नहीं रही। यह तो कुशीनगर में बुरी तरह पराजित पूर्व मंत्री और सपा उम्मीदवार ब्रह्माशंकर त्रिपाठी के लफ्जों में साफ सुनायी पड़ रही है। पराजय के बाद उन्होंने खुलेआम कहा कि आपसी फूट और अपनों के दगा देने की वजह से ऐसा दिन देखना पड़ा है। सच भी है कि पिछली बार सपा से विद्रोह कर वहां चुनाव जीतने वाले बालेश्र्वर यादव पिछले साल सपा में लौटे थे। इस बार वे देवरिया से टिकट मांग रहे थे लेकिन नहीं मिला तो कांग्रेस के टिकट पर देवरिया से लड़ गये। उन्होंने एक तीर से दो निशाना साधा। देवरिया में सपा सांसद मोहन सिंह को चुनाव हराना अपनी पहली प्राथमिकता बनायी और दूसरे कुशीनगर में भी सपा को धूल चटाने की कवायद की। उनके अभियान में समाजवादी पार्टी के सहयोगी भी लगे रहे। उनके प्रतिनिधि रहे किशोर यादव ने तो बाकायदे कुशीनगर में चुनाव मैदान में उतरकर ताल ठोंक दी। दोनों जिलों में भितरघात भी खूब हुआ। सलेमपुर में भी टिकट की टीस साफ उभरी। वहां सांसद हरिकेवल प्रसाद को टिकट मिला तो पूर्व सांसद हरिवंश सहाय ने सपा को छोड़ दिया। हरिवंश सहाय सपा को अलविदा कहने के साथ ही बसपा की ताकत बन गये। नतीजा भी सामने आया और हरिकेवल जहां लुढ़क गये वहीं सलेमपुर में बसपा की नैया पार हो गयी। महराजगंज संसदीय क्षेत्र में पार्टी ने पहले पूर्व मंत्री श्याम नारायण तिवारी को टिकट दिया। बाद में उनके भतीजे अजीत मणि को टिकट दे दिया। यहां पार्टी असमंजस में हमेशा दिखी और पूर्व सांसद अखिलेश सिंह आखिरी समय तक संशय बनाये रखे। इस वजह से भी पार्टी को झटका लगा। सपा को लेकर बसपा की ओर से यह बात उठी कि इसके उम्मीदवार चुनाव जीतने के लिए नहीं बल्कि बसपा की राह रोकने के लिए लाये जा रहे हैं। जनता में फैले इस संदेश ने भी पार्टी को डैमेज करने का कार्य किया।

विनोद शुक्ला जी को शत शत नमन


आनंद राय

हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा होता है जिसे वह पूरी जिन्दगी भूल नही पाता है। पत्रकारिता में मैं अपने मौजूद होने को बहुत हद तक विनोद शुक्ला जी को मानता हूँ। यह निजी बात है। इससे महत्वपूर्ण बात तो यह है किउन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के कई पुरोधाओं को वजूद दिया है। अपने से आगे और बाद की कई पीढियां उनकी खोज हैं। सोमवार को उनके निधन की ख़बर आयी तो सहसा स्तब्ध रह गया। विराट व्यक्तित्व के मालिक और हमेशा तेवर में रहने वाले भैया जी का जाना सदैव खलेगा। उन्हें शत शत नमन। उनके लिए बस इतना ही-

खुश जमालों की याद आती है,

बेमिसालों की याद आती है।

जिनसे दुनिया ऐ दिल मुनौवारें थी,

उन उजालों की याद आती है।

जाने वाले कभी लौट कर नही आते,

जाने वालों की याद आती है।

18 मई 2009

हमारा हीरो - विनोद शुक्ला

भड़ास के संपादक यशवंत ने भैया जी पर यह लिखा तो शायद तब कोई नही जानता था कि उनके लिए यह श्रधांजलि होगी। वाकई हिन्दी मीडिया उनके जैसा विराट कोई नही है।
विनोद शुक्ला उर्फ विनोद भैया से बातचीत करना हिंदी मीडिया के एक युग पुरुष से बातें करने जैसा है। एक ऐसी शख्सीयत जिसने अपने दम पर कई मीडिया हाउसों के लिए न सिर्फ सफल होने के नुस्खे इजाद किए बल्कि कंटेंट को किंग मानते हुए जन पक्षधरता के पक्ष में हमेशा संपादकीय लाठी लेकर खड़े रहे। विनोद जी के प्रयोगों को मुख्य धारा की पत्रकारिता माना गया और दूसरे मीडिया हाउस इसकी नकल करने को मजबूर हुए।
दैनिक जागरण को लखनऊ में नंबर वन बनाने वाले इस शख्स की संपादकीय, प्रसार, विज्ञापन, तकनीक आदि विभागों पर जिस तरह की संपूर्ण पकड़ रही है और जिस तरह की गहन समझ रही है, वैसा अब तक कोई और व्यक्ति पैदा न हुआ। आज हिंदी मीडिया में संपादकीय से लेकर प्रबंधन तक में जो सितारे जगमगा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के गुरु विनोद शुक्ला रहे हैं। विनोद शुक्ला हिंदी मीडिया के एक ऐसे स्टाइलिश व्यक्तित्व का नाम है जिसके आभामंडल के आगे बड़े-बड़े सूरमाओं के तेज फीके पड़ जाते रहे हैं। शासन, सत्ता, राजनीति, नौकरशाही, माफिया जैसे संस्थान विनोद शुक्ला के नाम से भय खाते थे। अपने बिंदास स्वभाव के चलते विनोद शुक्ला कई तरह के विवादों में भी रहे पर इससे उनका हौसला कम होने की बजाय और बढ़ जाया करता।
जीवन के उत्तरार्द्ध में विनोद शुक्ला इन दिनों कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। बावजूद इसके सभी अखबारों को पढ़ना और मीडिया के परिदृश्य पर नजर गड़ाए रखना उनका प्रिय शगल है।
भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने विनोद शुक्ला से लखनऊ में कई दौर में बातचीत की, पेश है कुछ अंश-

-शुरुआत अपने बचपन और पढ़ाई-लिखाई से करिए।
--मेरा जन्म और पालन एक संयुक्त परिवार में हुआ। जन्म से लेकर 6 साल की उम्र तक मैं नाना-नानी के यहां दिल्ली में रहा। वह एक बड़ा-सा संयुक्त परिवार था। परिवार में मिल-जुल कर अनुशासनपूर्वक रहने का शऊर मैंने वही, उसी शैशवकाल में सीखा। काशी आया तो वहां भी संयुक्त परिवार ही मिला। मेरे पिता पंडित रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल 'अटल' धुरंधर साहित्यकार-पत्रकार, विद्रोही और फक्कड़ मिजाज के व्यक्ति थे, किंतु परिवार की एकता बनाये रखने के लिए सदा सतर्क रहते थे। वहां सामूहिकता थी। तीन भाई और उनके बाल-बच्चे साथ रहते थे। पिता परिवार के मुखिया थे और परिवार के लिए निजी सुख-सुविधा का त्याग करते थे। अपना हित गौण और दूसरों का हित सर्वोपरि, यह थी उनकी सोच। संयम से रहते थे। सबके दुख स्वयं सहते थे, वह भी अदभुत जीवंतता के साथ। पिता के ये गुण मैंने बहुत निकट से ग्रहण किये। एक संयुक्त परिवार अपने सदस्यों को बहुत कुछ सहज भाव से सिखा देता है। वह सब मैंने भी सीखा। पिता संस्कृत के विद्वान थे इसलिए घर में बड़े-बड़े विद्वानों का आना बराबर लगा रहता था। एक से बढ़कर एक गुणी जन आते थे, गोष्ठी और विमर्श करते। उदाहरण के लिए, मेरे यज्ञोपवीत में अन्य विद्वानों के अलावा तीन पीठों के शंकराचार्य आये थे। इसी तरह पिताजी के त्रयोदशाह में देश के सर्वोच्च तंत्रविद गोपीनाथ कविराज तक आ गये थे। इसी परिवेश में मैं पला-बढ़ा। विद्वान के प्रति अनुराग और गुणी-विद्वज्जनों के प्रति आदर भाव मैंने उसी परिवेश से सीखा।
-आपको जन्मजात पत्रकार मानें या अर्जित संस्कार वाला? अखबार से पहला परिचय कब और कैसे हुआ?
--पहली बात यह है कि मैं अपने को पत्रकार नहीं कहना चाहूंगा। मैं अखबार का संपूर्ण आदमी हूं। रिपोर्टिंग और संपादन तो उस संपूर्णता का एक अंग है। इस क्षेत्र में मेरे प्रवेश के समय ऐसे लोगों की ही जरूरत थी जो समाचारपत्र के पूरे स्ट्रक्चर (ढांचे) और पूरी प्रोसेस (प्रक्रिया) से जुड़े हों। इस संपूर्णता का पहला पाठ भी मैंने घर में ही सीखा। पिता 'आज' में थे। बाद में 'सन्मार्ग' का संपादन करने लगे। तब समाचार, लेख सब अंग्रेजी में होते थे। हम लोगों से अनुवाद कराया जाता था। उसमें सुधार किया जाता था। हमें प्रताड़ना भी मिलती थी। थप्पड़ और फटकार खाते-खाते हमनें बहुत कुछ सीख लिया। प्रेस घर में लगा था। 'मतवाला' जैसे पत्र वहीं छपते थे। 'रणभेरी' के प्रकाशक और मुद्रक मेरे फूफा सरयू प्रसाद दीक्षित थे। सामग्री के लिए मारामारी मैंने बचपन में ही देखी और सुनी। इस तरह, पत्रकारिता से मेरा परिचय तो जन्मजात था, लेकिन पत्रकारिता के पेशे में लाचारी में ही आया।
-आप इंजीनियर बनना चाहते थे, फिर पत्रकारिता की ओर कैसे मुड़े?
--पिता और परिवार का दबाव मुझे इंजीनियर बनाने के लिए था। बीएससी (बीएचयू) की फाइनल परीक्षा छोड़कर मैंने माइनिंग इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, मगर एक दुर्घटना वश वह पढ़ाई भी अधूरी छोड़कर मैं घर आया। फिर वापस नहीं लौट सका। बनारस आकर मैं शावालेस फर्टिलाइजर में सेल्स का काम करने लगा। उसी क्रम में एक दिन हवाई अड्डे पर ज्ञानमंडल के स्वामी सत्येंद्र कुमार गुप्त से भेंट हो गयी। मैंने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने चंद्र कुमार ('आज' के वरिष्ठ संपादक) से पूछा- 'कौन हैं ये?' चंद्रकुमार ने बताया- 'अटल जी के पुत्र हैं।' सत्येंद्र गुप्त ने मुझे अगले दिन कार्यालय में बुलाया। अत्यंत आत्मीयता दिखाते हुए कहा- 'पिता जी को तुम्हारी जरूरत है, काशी में ही रहो'। 'आज' की सेवा में मुझे रख लिया। वे स्वयं समाचारपत्र के एक संपूर्ण आदमी थे और इसीलिए मैं भी उसी रूप में अपने को ढालने लगा।
-अखबारी दुनिया में उस दौर का नजारा कैसा था?
--तबकी दुनिया में पैसा नहीं था। संस्थान अभावग्रस्त थे- इतने कि आज याद करने पर आश्चर्य होता है कि वे समाचार पत्र निकालने का साहस कैसे करते थे। ऐसा ही आश्चर्य तबके पत्रकारों की कर्मठता पर होता है। आज की तुलना में साधन शून्य थे। आप सोच ही नहीं सकते कि वैसी घोर असुविधा के बीच अखबार तैयार किया जा सकता है। लोग दूर-दूर से पैदल आकर नंगे बदन काम करते थे। वेतन अतिअल्प था। वह भी टुकड़े-टुकड़े में मिलता था। विषम परिस्थिति के बावजूद वे जी-जान से जुटे रहते थे। अच्छी से अच्छी कापी देने की होड़ रहती थी। अगले दिन जब अखबार छप जाता तो एक दूसरे की आलोचना में गाली-गुप्ता तक हो जाता। मजेदार यह कि आलोचना-समालोचना के उन आलंकारिक एवं रसात्मक स्वरों को सुनने के लिए लोग उस दिन कुछ पहले ही प्रेस में पहुंच जाते। अदभुत जीवट वाले लोग थे। लेकिन अर्थ संकट की चिंता के कारण वे अपनी आधी-अधूरी प्रतिभा-क्षमता का ही उपयोग कर पाते थे। सब मालिक की कृपा पर जिंदा थे। बाद में पत्रकार मालिक आये- जैसे पूर्णचंद्र गुप्त, डोरीलाल अग्रवाल। उन्होंने पत्रकारों का संकट समझा। उनके प्रति सहानुभूति दिखाई। तभी पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया।
-आपने सड़क से शिखर तक का सफर कैसे तय किया?
--मुश्किलें तो आती ही हैं, क्योंकि यह सफर ही ऐसा है- कदम-दर-कदम रुकावट और जोखिम भरा। मगर आदमी जो कुछ करने को ठान लेता है तो वह येन-केन प्रकारेण कर ही लेता है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। वह ऊर्जा ही नहीं, सूझ-बूझ भी देता है। पत्रकर्मी तो मधुमक्खी जैसा होता है। मधुमक्खी का आकार-प्रकार उड़ने के लिए बनाया गया है। वह दूर-दूर से सामग्री लाकर मधु बनाती है। यह काम तिलचट्टे नहीं कर सकते।
एक प्रकरण विकट संकट का है जिसे मैं भूल नहीं सकता। 'आज' के लिए विदेश से मशीन इम्पोर्ट (आयात) की गयी। 1966 की बात है। मशीन पोर्ट (बंदरगाह) में पहुंची तभी भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। मशीन पोर्ट में फंस गयी, क्योंकि 65 प्रतिशत अधिक धनराशि का भुगतान 'आज' के लिए अत्यंत कठिन था। बड़ी हायतौबा मची। बड़े-बड़े सीए जुटे थे, लेकिन समाधान नहीं निकल रहा था। मशीन का आना जरूरी था। मैं सब कुछ जान-समझ रहा था, यह भी जान गया था कि दिल्ली में इस समस्या का निराकरण संभव है। मैंने इसकी पेशकश की। उन्होंने (सत्येंद्र गुप्त) पहले तो मुझे झिड़क दिया, मगर बाद में मुझे अपनी सूझ को आजमाने की अनुमति दे दी। मैं दिल्ली गया, तत्कालीन आयात-निर्यात मंत्री राजा दिनेश सिंह से मिला और काम निबटवा दिया। वह चुनौती भरा काम हो जाने के बाद मेरे जीवन में निर्णायक मोड़ आया। सत्येंद्र गुप्त मुझ पर भरोसा करने लगे और जिम्मेदारियां सौंपने लगे। विज्ञापनों के उद्देश्य से बड़े विभागों और व्यापारिक घरानों में जाने का अवसर मिला। काशी पूर्वांचल में आती है और वह गरीब इलाका है। तब हिंदी के समाचार पत्रों को बीड़ी के ही विज्ञापन मिलते थे, सिगरेट के नहीं। ऐसे हालात में मैंने विज्ञापन देने वाले विभागों और प्रतिष्ठानों में 'आज' की पैठ बनाई, बढ़ाई।
एक अविस्मरणीय प्रकरण है 'आज' के कानपुर संस्करण का। मैं वहां एक शादी में गया था। वहां से 'दैनिक जागरण' निकलता था, मगर वह काशी के 'आज' के मुकाबले कमजोर था। तभी मन में एक सूझ जगी कि यदि 'आज' यहां से निकले तो कुछ काम बने। उस समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी पत्रकारिता विभाग खुल गया था और शिक्षित युवक पत्रकारिता में आने के लिए बेताब थे, किंतु उस समय अखबार ही नहीं थे। मुझे लगा कि कानपुर से 'आज' का प्रकाशन होने पर साठ-सत्तर युवकों को नौकरी दे सकता हूं। फिर तो जुट गया इस काम में। 1975 में कानुपर से 'आज' निकलने लगा।
कानपुर का ही एक और प्रकरण है। आपातकाल लग चुका था। युवाओं में बहुत उत्साह था। इमरजेंसी के खिलाफ वे गुस्से से उबल रहे थे, लेकिन कायदे-कानून से अनभिज्ञ थे। जिस दिन सेंसर घोषित हुआ उस दिन 'आज' की ओर से हमने (सेंसर के विरोध में) एक बुलेटिन निकाला जिसका बैनर था- 'सब नारायण जेल में', जबकि 'दैनिक जागरण' में संपादकीय (अग्रलेख) का स्थान खाली छोड़ दिया गया। आपातकाल और सेंसर के इस प्रतीकात्मक विरोध के कारण 'दैनिक जागरण' के पूर्णचंद्र जी सहित सभी संपादक जेल चले गये, मगर हम साफ बच गये। वास्तव में हम लोग (आज) कानपुर में पंजीकृत अखबार नहीं थे। काशी में 'आज' पर सेंसर लगा, किंतु कानपुर का 'आज' सेंसर से मुक्त रहा। सेंसर की परवाह न कर हमने समाचारपत्र का जो प्रकाशन किया उससे 'आज' खूब फैला, किंतु कागज की कमी और मशीन की कमजोरी के कारण हम मात खाते रहे। सरकार की धमकियों को देखते हुए हमने कथा-आधारित पत्रकारिता अपना ली। शुरुआत पुराने डकैतों की कथाओं से की। देखते-देखते इस क्षेत्र की विशेषता हासिल कर ली। तत्कालीन समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में हमारी उस सफलता के चर्चे आज भी देखे जा सकते हैं। मलखान और फूलन के आत्मसमर्पण की कथाएं हमारी ही बदौलत पत्र-पत्रिकाओं में खूब कायदे से छपीं। उन दिनों बड़े-बड़े घरानें के बड़े-बड़े पत्रकार 'आज' (कानपुर) में डेरा डाले पड़े रहते थे।
-आपने जिन पत्रकारों से प्रेरणा या प्रशिक्षण पाया उनमें कौन-सी विशेषताएं थीं?
--प्रारंभिक गुरु तो पिता ही थे। उनके विषय में पहले ही बता चुका हूं। वैसे, बचपन में पत्रकारिता में मेरी अधिक रूचि नहीं थी। इस क्षेत्र में आने में पारसनाथ सिंह ने सबसे अधिक प्रेरित और प्रभावित किया। उन्हीं से मिला प्रशिक्षण भी मेरे लिए सर्वाधिक काम आया। वे 'आज' में संपादकीय मंडल के सदस्य रहे। पटना और दिल्ली में 'आज' का प्रतिनिधित्व करते रहे। समाचारों का संग्रह, चयन और संपादन जितना संतुलित और सटीक वे कर देते थे, उतना बिरले पत्रकार ही कर पाते थे। समाचार पत्र के लिए संपर्क, संवाद और व्यवहार के भी वे सिद्ध पुरूष रहे हैं। पारसनाथ सिंह जैसे कर्मयोगी पत्रकार से प्रशिक्षण प्राप्त करना मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूं। उनके साथ मैं लम्बे समय तक रहा। 'आज' के कानपुर संस्करण को लोकप्रिय बनाने में भी मुझे उनका महत्वपूर्ण सहयोग किला। 'आज' के वरिष्ठ संपादक विद्या भास्कर और चंद्रकुमार मेरे 'इमीडिएट बॉस' (निकटतम मार्गदर्शक) थे। विद्या भास्कर की अध्ययनशीलता, बहुज्ञता और कार्य के प्रति गंभीरता मेरे लिए प्रेरणा बनी। वे पूरा दिन पढ़ने और अपने अर्जित ज्ञान को साथियों-सहयोगियों के बीच बांटने में व्यतीत करते थे। मैंने भी यही तरीका अपनाया। ज्ञान के अर्जन और आदान-प्रदान के लिए वे देश-विदेश के बौद्धिक संस्थानों से जुड़े हुए थे। बाद में मैं भी उन संस्थानों का सदस्य बन गया। नये पत्रकारों को आगे बढ़ाने में विद्या भास्कर बेजोड़ थे। मैं जब कानपुर से 'आज' निकालने चला तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ सफल होने के गुर बताये। उन्होंने कहा- "समाचार पत्र की जिम्मेदारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। सारा बोझ हंसते हुए ढोना पड़ता है। अब आपको जो अवसर मिला है वह आपके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा का अवसर है। यह (संपादक की) परीक्षा लिखकर नहीं, बल्कि लिखित सामग्री को संवार-निखार कर पास की जाती है। मेरी सलाह है कि अब आप लिखने की प्रवृत्ति छोड़ दें। समाचारों को ध्यान से देखें। उनका सुधार-परिष्कार जितना कर सकें कर दें, लेकिन लिखवाने का काम अपने अधीनस्थ सहयोगियों से ही करायें।" उनकी यह सलाह मैंने मान ली।
समाचार पत्र का संपूर्ण आदमी बनने की प्रेरणा और शिक्षा मैंने सत्येंद्र कुमार गुप्त से ही प्राप्त की। मशीन प्रकरण के कारण मैं उनके सीधे संपर्क में आ गया। वे गणित ज्योतिष के बड़े ज्ञाता थे। एक तरह से मैं उनका सचिव ही था। समाचार पत्र के संगठन और संचालन की संपूर्ण विद्या उन्होंने मुझे बच्चे की तरह- ककहरे से लेकर स्नातकोत्तर स्तर तक-सिखा दी। उसी विद्या की बदौलत मैं समाचार पत्र के नये संस्करण निकालने और पत्रकारिता में नये प्रयोग करने में सफल हुआ। समाचार पत्र में माड्यूलर मेक-अप (प्रभावी पृष्ठबंध) सबसे पहले हमने ही कानपुर (आज) में प्रारंभ किया। 'लीड' (सर्वप्रमुख समाचार) को दो कालम में छाप देने की युक्ति मेरे ही दिमाग की उपज थी। अखबार में 'द्विस्तंभी झंडे' (डबल कालम बैनर) के उस प्रयोग को न केवल लोगों ने सराहा बल्कि अन्य समाचार पत्रों ने उसे अपनाया भी। समाचारों के स्वरूप की एक सरल नीति भी निकाली हमने। उसके अनुसार "खबर जितनी जरूरी हो उतनी ही लिखी और छापी जाये। वह छोटी है या बड़ी, इसका कोई मायने नहीं। संख्या की दृष्टि से ज्यादा से ज्यादा खबरें छापने पर जोर दिया जाये।" इसी तरह नये संस्करण निकालकर हिंदी भाषी क्षेत्र को अखबारों से पाटने और पत्रकारों की एक बड़ी फौज खड़ी करने में भी सत्येंद्र जी का दिया ज्ञान मेरे बहुत काम आया और मेरे आगे बढ़ने का माध्यम बना।
-पत्रकारिता में आप बनारस घराने का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका वैशिष्ट्य क्या है?
--पत्रकारिता के बनारस घराने का प्रतिनिधित्व करने की मेरी हैसियत नहीं है। मैं स्वयं को उस महान घराने का एक छोटा-सा सिपाही ही मानता हूं। छिटपुट प्रयास चाहे जहां जितने हुए हों, वास्तविक अर्थों में हिंदी पत्रकारिता का जन्म बनारस में ही हुआ। 1956 में प्रथम प्रेस कमीशन की जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसमें साफ-साफ कहा गया कि 'आज' केवल एक समाचार पत्र नहीं वरन हिंदी पत्रकारिता का प्रथम व्यवस्थित संस्थान भी है जिसे देश के अन्य पत्र-प्रतिष्ठान मॉडल के रूप में स्वीकार करते हैं। उस घराने को देश के धुरंधर विद्वानों और सर्वथा समर्पित पत्रकारों ने प्रतिष्ठित किया। तब काशी का प्रत्येक कंकड़ शंकर के समान (ज्ञानी, अक्खड़ और फक्कड़) होता था। सभी महारथी 'आज' कार्यालय में जुटते थे और एक दूसरे को 'लंठ' कहते थे। बड़े-छोटे का कोई भेद ही नहीं था। उस घराने को बाबूराव विष्णु पराड़कर और उनके अनुयायियों ने प्रतिष्ठित किया। उनमें संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी, श्री प्रकाश, राम मनोहर खांडिलकर, दूघनाथ सिंह, मोहनलाल गुप्त (भइयाजी बनारसी), विद्या भास्कर, पारसनाथ सिंह, लक्ष्मीशंकर व्यास, श्रीशंकर शुक्ल, रूद्रकाशिकेय, ईश्वरचंद्र सिन्हा, भगवान दास अरोड़ा, रामेश्वर सिंह आदि प्रमुख थे।
-आपने 'आज' क्यों छोड़ा?
--सत्येंद्र गुप्त एक मिशन की तरह 'आज' का संचालन करते थे। स्वयं लगे रहते और योग्यता-कर्मठता का आदर करते थे। उनके बाद न तो मैं 'आज' के काम का रहा न 'आज' मेरे काम का। इसके विपरीत 'दैनिक जागरण' ने मुझे कुछ कर दिखाने का अवसर दिया। मैं उसका हो गया।
-दैनिक जागरण का पहला अनुभव कैसा रहा?
--उत्साहवर्धक। जब 'आज' का विस्तार हुआ तब 'दैनिक जागरण' वाले गोरखपुर चले गये। 'आज' गोरखपुर गया तो वे लखनऊ आ गये। उनके दोनों संस्करण नहीं चल पाये। लखनऊ संस्करण को तो बंद करने की सोच रहे थे। उस पर लेबर यूनियन का कब्जा हो चुका था। मैंने दोनों संस्करणों को तो जीवित किया ही, तीसरा आगरा और चौथा बरेली संस्करण भी चालू कर दिया। बिना यूनियन के अखबार धकाधक चलने लगा।
-आप नरेंद्र मोहन के निकट रहे हैं। जागरण को नंबर वन बनाने में उनका क्या विजन था?
--नंबर वन समाचार पत्र के रूप में 'दैनिक जागरण' की प्रतिष्ठा नरेन्द्र मोहन जी की दूरदर्शिता और सोच की ही परिणति थी। मैं तो सिर्फ हनुमान की तरह उनके पीछे लगा रहा। वह जो सोचते थे, उसे क्रियान्वित कराने में ही जुटा रहता था या यूं कह लीजिए कि सपने वह देखते थे और उन्हें क्रियान्वित कराने का प्रयास मेरा रहता था। वह लोगों की समस्यायें समझते और समाधान करने में रूचि रखते थे। अच्छे काम करने वालों के हौसले बढ़ाने और विचार-विमर्श के लिए सदैव उपलब्ध रहते थे।
-टेलीप्रिंटर युग से कंप्यूटर युग में आए अखबारों के बारे में क्या कहेंगे?
--'टेलीप्रिंटर युग' नाम ही गलत है। तब लोग टाइप से कंपोज करते थे और लेटर प्रेस पर (अखबार) छापते थे। टाइप मेटल (धातु) से ढाले जाते थे। आज हम कंप्यूटर युग में हैं। मेटल लापता हो गया। लेटर प्रेस की जगह आफसेट आ गया। टाइप कंपोजिंग की जगह लेजर कंपोजिंग आयी। इस यांत्रिक परिवर्तन में पत्रकारिता की मौलिक गुणवत्ता की बलि दे दी गयी। पत्रकारिता पहले पूर्णत: मिशन थी। उसमें पैसा नहीं था। भाव था, एक धुन थी समाज के लिए कुछ करने की, सब तरह की जानकारियां देकर समाज को सजग और सही दिशा में सक्रिय करने की। मशीनी विकास में वह भाव ही पीछे छूट गया। जब नीयत ही बदल गयी तो समाचार पत्र का स्तर तो क्षरित होगा ही। नाटक लिखा जाता है तो उसके भी कुछ मानंदड होते हैं। उसमें लोगों को जानकारी, मनोरंजन और शिक्षा देने का उद्देश्य निहित होता है। समाचार पत्र को यदि क्षरण से बचना है तो खबरों में भी ये तत्व आवश्यक हैं। आज मनोरंजन और सूचना के लिए तो बहुत-से साधन हैं, लेकिन एजुकेट करने वाला तत्व लापता है और इसी कारण मनोरंजन तथा सूचना भी व्यर्थ है। ईमानदारी के साथ तह तक जाने की लगन लुप्त हो गई है। भूख (लगन) ही आदमी को आसमान तक ले जाती है, तृप्ति का भ्रम उसे कबाड़ में मिला देता है। बिना परिश्रम, आसानी से जो कुछ मिल जाय उसे यथावत प्रस्तुत कर देना ही आज की पत्रकारिता है। सब टी शर्ट ही पहनना चाहते हैं, कमीज नहीं, क्योंकि उसके बनने में समय लगता है। सीखने-सिखाने की प्रवृत्ति भी लुप्तप्राय है। न वैसे गुरु रहे, न ही शिष्य। भाषा का लालित्य तो तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब आप स्वयं पढ़ें और भाषा को मांजें। पाठकों को एजुकेट करने के लिए पहले आपको स्वयं एजुकेटेड होना पड़ेगा। मीडिया में अनिवार्यत: अंतर्निहित, समाचारों के सामाजिक सरोकार और भाषा के प्रति संजीदगी यदि नहीं बरती गयी तो एक दिन पत्रकारिता अपनी अर्थवत्ता ही खो देगी। समाचार की वस्तु (घटना) के प्रति संवेदनशीलाता, भाषा के लालित्य और प्रस्तुति की भंगिमा अपनाये बिना पत्रकारिता चल ही नहीं सकती। राजनीति अथवा शहर की दुर्दशा और दुर्गंध की खबर ऐसी होनी चाहिये कि पढ़ने वाला बिलबिला जाये।
-नई पीढ़ी में इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़ने की ललक अधिक है, इसका कारण?
--प्रदर्शन की प्रवृत्ति अब के लोगों पर हावी है। ये लोग पराड़कर (पत्रकार) बनने के बजाय शाहरूख खान (शोमैन) बनना ज्यादा पंसद करने लगे हैं। इनमें एक धारण घर कर गई है कि छोटे बक्से पर चेहरा दिखने से सहज ही पहचान बन जाती है। ललक का एक कारण तो यही है। दूसरा कारण यह है कि टेलीविजन में पैसा बहुत मिलता है। आज के समय में पैसा बहुत महत्वपूर्ण है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में बिना प्रतिभा, बिना योग्यता के नाम और नामा दोनों मिल रहे हैं। प्रिंट मीडिया में छदम पत्रकारिता नहीं चल सकती। समाचार पत्र में आपका कृतित्व ही आपकी पहचान होता है। मुद्रण माध्यम की डगर कठिन है, उसमें उपलब्धि अर्जित करने के अवसर कम हैं।
-अखबार के संपादन और प्रबंधन तंत्र में संतुलन पर आपके अनुभव कैसे रहे?
--दोनों में स्वामी और सेवक का संबंध है, समाचार पत्र का दार्शनिक सत्य यही है। यही संबंध संपादन और प्रबंधन के बीच सही संतुलन बनाता है और समाचार पत्र को सार्थक, स्वस्थ एवं प्रगतिशील बनाये रखता है। समाचार पत्र का सबसे बड़ा यथार्थ यह है कि वह अपने कंटेंट, अपनी पठनीय सामग्री (समाचार और विचार) की बदौलत ही प्रतिष्ठा एवं प्रसार प्राप्त करता है। यही प्रतिष्ठा और प्रसार उसके व्यवसाय (बिक्री एवं विज्ञापन) का आधार होता है। चूंकि कांटेंट (पठनीय वस्तु) संपादकीय विभाग देता है, इसलिए वही राजा है। किसी भी समाचार पत्र का हृदय स्थल, उसका ब्रेन (मस्तिष्क) संपादकीय विभाग ही है। उसके सहकर्मी उसकी स्नायु हैं और प्रबंधतंत्र उस राजा की सेवा में सतत तत्पर रहने वाला सेवक तंत्र है। राजा को सबल और संतुष्ट रखने की सारी जिम्मेदारी प्रबंध तंत्र की होती है। इसमें जब बदलाव की चेष्टा होगी तो संतुलन का गड़बड़ाना और समाचार पत्र का पतन निश्चित है। प्रिंट मीडिया विद्वत्ता का खेल है। समाचार पत्र की महत्ता इतनी ही है कि वह मुद्रित शब्द है, अमिट अभिलेख है। इसीलिए इसके प्रति सतत सावधानी आवश्यक है। अलग-अलग संस्थानों में अलग-अलग विचार चलते हैं। एक दौरा आया जब प्रबंधन को प्राथमिकता दी गयी। संपादकीय तंत्र को उसके पीछे-पीछे चलाया गया, किंतु वह व्यवस्था चली नहीं।
-पत्रकारिता की परंपरा और आए परिवर्तन के बारे में क्या कहेंगे?
--परंपरा, ज्ञान और क्रिया के सभी क्षेत्रों की तरह, पत्रकारिता की भी आधारभूत संरचना है। हमारी जड़ों की मजबूती पंरपरा पर ही निर्भर है। सुदृढ़ पंरपरा वाले समाचार पत्र ही व्यापक प्रसार और गुणवत्ता की ऊंचाइयां प्राप्त करते हैं। परंपरा का साथ प्रिंट मीडिया का नया तंत्र नहीं निभा पा रहा है, यह उसके लिए दुर्भाग्य पूर्ण है। इस तंत्र को परंपरा की जानकारी ही नहीं है। वह सब कुछ कैप्सूल फारमेट में चाहता है। परिवर्तन और प्रयोग स्वाभाविक और जरूरी हैं, किंतु ये तभी फबेंगे और फलीभूत होंगे जब परंपरा से जुड़े रहेंगे। परंपरा से एक बारगी हटकर परिवर्तन और प्रयोग को अपना लेना पत्रकारिता के विनाश को निमंत्रण देना है। विनाश एक-ब-एक नहीं होगा, बल्कि धीरे-धीरे क्षरण होगा और पता नहीं चलेगा। बड़े-बड़े समाचार पत्रों ने इसीलिए आचार संहिताएं बना रखी हैं। मैंने जो कुछ किया, जितना कुछ खोया- पाया उसके लिए बाबा विश्वनाथ से जुड़ी परंपरा ही मुझे ऊर्जा देती रही है, इसलिए मेरा अनुभव यही कहता है कि सबकुछ भले छोड़िये, किंतु परंपरा कदापि नहीं।
-अखबार के विस्तार के संघर्ष का निचोड़ क्या रहा?
--अनुभव कुल मिलाकर संतोषजनक ही रहे। दुनिया में जैसे-जैसे आर्थिक सुदृढ़ीकरण की लहर चली, मीडिया का प्रभाव बढ़ता गया। उसका बाजार बढ़ा। एक दौर में यह बाजार 150 करोड़ से 500 करोड़ रूपये तक का रहा। हमारे समय में यह डेढ़-दो सौ करोड़ का था। आज यह साठ हजार करोड़ के ऊपर जा पहुंचा है। पहले प्रेस वाले प्राय: दरिद्र होते थे। मात्र एक गाड़ी होती थी। बाजार और साधन के साथ ही प्रेस का विस्तार हुआ। इसी क्रम में प्रसार की दौड़ चली। हार-जीत का एक पैमाना बना- जो नंबर वन होगा वही राजा।... और इस दौड़ में राजा बन गये हम।
-आप पर सहयोगियों को गरियाने, मारने-पीटने जैसे आरोप भी लगते रहे हैं। आपको अधिनायक और तानाशाह सरीखा कहा जाता है?
--यह सब बातें बेकार की हैं। तमाम विपरीत हालातों के बावजूद मैंने उतर प्रदेश में पत्रकारिता जगत का सबसे बड़ा चैलेंज स्वीकारा था, 'आज' को कानपुर लाकर। तब किसी के जेहन में मूल स्थान से इतर संस्करण निकालने की कोई सोच भी नहीं जगी थी। कल्पना कीजिये उस रिस्क के बारे में? रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मालिक तक ने हाथ खड़े कर दिये थे एकबारगी। वस्तुत: यही थे वह हालात जिन्होंने मुझे परफेक्ट बनाया। 'आज' में काम करने के मूलभूत सिद्धांत बहुत कड़े थे। 'आज' पहला अखबार था जिसका अपना कोड आफ कंडेक्ट था। काम का दबाव, मशीनों की कमी और मशीनों की कमी को आदमियों के जरिये पूरा करने की कोशिशों के चलते ही लोग मुझे क्रोधी और चिड़चिड़ा कहने लगे। लेकिन ऐसे लोगों में आपको वह लोग भी मिलेंगे जो कहते है कि मैं उनका भविष्य संवारने में सहायक रहा।
-चर्चा है आप दैनिक जागरण छोड़ना नहीं चाहते थे, आपको जबरन रिटायर कर दिया गया?
--1998 में मेरी किडनी ने काम करना बंद कर दिया था। 1999 में मैं डायलिसिस पर था मगर उससे पहले एक बड़ा काम निपटाना था- दैनिक जागरण के बिहार संस्करण की लांचिंग। पहले से ही इसके लिये वचनबद्ध था। काम पूरा नहीं कर पा रहा था। डायलिसिस पर जाते ही संचालकों को मेरा विकल्प खोजना ही था और उनके मन में अंतर्भाव यह भी था कि मैं काम का जितना बड़ा बोझ उठाये हूँ, उसे कम किया जाये। 'विनोद, अपना कोई सहायक खोजो'- मालिकान निरंतर मुझसे यही कहते रहते थे। इस बीच मेरे साथ कुछ और हादसे भी हुए। ऐसे हादसे जिनकी पराकाष्ठा महाकेष की दशा में शामिल है। जैसे ही विकल्प का नाम मेरी समझ में आया, वह अच्छा था या गलत, मैंने मालिकों को बताया और उसकी नियुक्ति हो गई। तब भी मालिकों ने यह नहीं कहा कि आप अपना नाम प्रिंट लाइन से हटा दें। कुछ दिनों बाद मुझे लगा कि जिस अखबार में मेरा नाम जाये, वह अखबार पत्रकारिता के प्रत्येक मानक में नंबर वन हो और आखिर में अपना नाम मैंने खुद ही हटवा दिया। आज भी मेरे सारे खर्चे और पूरी जिम्मेदारी दैनिक जागरण ही वहन करता है।
-अपने दौर में कैसे समझा था मार्केट को। क्या नई पीढ़ी में आपको आप जैसा कोई दूसरा कमांडर नजर आता है?
--1964 में मैं अमेरिका से निकलने वाली सबसे बड़ी मानक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन-मनन कर रहा था। 'आज' चूंकि हिंदी का सबसे पुराना अखबार था लिहाजा अमेरिकी सरकार का सूचना तंत्र अखबारी दुनिया की अद्यतन सूचनाओं से संबंधित सामग्री समग्र रूप में 'आज' को उपलब्ध करवाता था। घर पर 'टाइम', 'लाइफ', 'लुक', 'नेशनल ज्योग्राफिकल' आती थी। घर पर साहित्य और पत्रकारितामय वातावरण था ही। इसलिए बचपन से मीडिया में खबरों के प्रस्तुतीकरण को अलग-अलग तौर-तरीके के साथ देखता चला आ रहा था। आश्चर्य करेंगे आप कि 'न्यूनवीक' ने लांचिंग के साथ ही अपनी काम्पलीमेंटरी कापी भेजनी शुरू कर दी थी मुझे। बाद में कुछ रोजी-रोटी पर बन आने की बात हो गई थी। ब्रांड और प्रोडक्ट की बात करने वाले लोग संस्थानों में आ गये थे। कलम-कागज के बीच जो आत्मा होती है, उसका मशीनीकरण करने को आतुर। इन सबको, इन्हीं की भाषा में समझाना आवश्यक था कि अखबार के ब्राण्ड और कोलगेट के ब्राण्ड में जमीन-आसमान का फर्क होता है। रही बात भविष्य की....... यह चीज तो समय खुद अपने आप चुनता है। मैं पक्षधर रहा हूँ परम्पराओं का लेकिन समय के साथ हुए बदलावों को स्वीकार करते हुए। अखबार में समाचार संप्रेषण जैसी चीजों का तरीका तो बदल सकता है लेकिन खबर के तौर-तरीके स्थाई रहेंगे। जिन्होंने उसको बनाकर रखा है, वही लम्बे समय तक जिन्दा रहेंगे। 'गार्जियन', 'वाशिंगटन पोस्ट' जो भी हों, ऐसे अखबार चैनल के दौर में भी जमे हैं, जमे ही नहीं हैं बल्कि सबको पीछे छोड़ देते हैं। नया नेतृत्व तो उनके लिये भी आता है न...। मेरी परिस्थितियां अलग थी। वह चैलेंज ओन की करने की हिम्मत। वस्तुत: ओन करने की चुनौती जो भी स्वीकारेगा वही नेतृत्व कर पाने में सर्मथ्य होगा। ओनरशिप ही सही-गलत का पता देती है।
-अखबार के मार्केट में क्या होने वाला है। कैसा होगा भविष्य? क्या अखबार योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रहे हैं?
--अखबार की दुनिया अभी भी विकासशील देशों में सबसे बड़ी ताकत है। विकासशील देशों में प्रिन्ट मीडिया का बड़ा स्कोप है। कम्प्यूटर-लैपटापधारी विद्वानों का भविष्य चंद दिनों का है। इन्हीं दिनों प्रिन्ट मीडिया ने खासी ग्रोथ हासिल की है। ग्रोथ हासिल करने वाले भारत के दस बड़े अखबार हैं लेकिन इनमें अंग्रेजी का एक भी नहीं है। दैनिक जागरण अभी भी योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहा है। यहां काम का माहौल है, पत्र ही नहीं मित्र का भाव है। भगवान की दया से किसी जूता कम्पनी का सीईओ कभी भी दैनिक जागरण में प्रवेश नहीं कर पायेगा। ब्राण्ड...... ब्राण्ड का शोर बहुत सुनाई देता है। साफ कर दूं कि अखबार एक ब्राण्ड जरूर है मगर सतही तौर पर नहीं। अखबार की छाप लोगों के दिलो-दिमाग पर पड़ती है। आप खुद सोचिये लोग क्या कहते है- ये मेरा अखबार है..... लोग ये नहीं कहते, अमुक दंत मंजन मेरा है।

जनादेश से सहम गये सपा के शूरमा


आनंद राय गोरखपुर :

पन्द्रहवीं लोकसभा में मिले जनादेश से समाजवादी पार्टी के शूरमा सहम गये हैं। चुनाव परिणाम ने उन्हें आत्ममंथन करने पर मजबूर कर दिया है। पार्टी नेताओं का यह मानना है कि प्रत्याशी चयन और चुनावी रणनीति में चूक हुई वरना नतीजे कुछ और होते। गोरखपुर और बस्ती मण्डल में सपा के सभी पाये दरक गये हैं। दिलचस्प यह कि यहां सभी सीटों पर साफ हो जाने वाली सपा सिर्फ बस्ती में दूसरे नम्बर पर रही। पांच संसदीय क्षेत्रों में सपा को तीसरे और दो क्षेत्रों में चौथे तथा एक क्षेत्र में पांचवें स्थान पर संतोष करना पड़ा। इस अंचल की संसदीय परीक्षा में सपा के तीन विधायक भी उत्तीर्ण नहीं हो सके। समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ा झटका गोरखपुर-बस्ती मण्डल में लगा है। इस बार यहां सपा कोई सीट नहीं जीत सकी। दूसरे नम्बर पर सिर्फ बस्ती में सपा के विधायक और पूर्व मंत्री राजकिशोर सिंह रहे लेकिन वे भी बसपा के विजयी उम्मीदवार अरविन्द चौधरी से एक लाख से अधिक मतों से पीछे रहे। खलीलाबाद में सपा के भालचंद यादव, बांसगांव में शारदा देवी, गोरखपुर में मनोज तिवारी मृदुल, देवरिया में मोहन सिंह और सलेमपुर में हरिकेवल प्रसाद तीसरे स्थान पर रहे। गोरखपुर में हमेशा दूसरे नम्बर पर कड़ा मुकाबला करने वाली सपा इस बार भोजपुरी स्टार लाने के बाद भी सिमट गयी। भाजपा के विजयी प्रत्याशी योगी आदित्यनाथ और सपा के मनोज तिवारी मृदुल के बीच तीन लाख से अधिक मतों का अंतर था। कुशीनगर में पूर्व मंत्री और विधायक ब्रह्माशंकर त्रिपाठी चौथे और डुमरियागंज में पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और विधायक माता प्रसाद पाण्डेय पांचवे स्थान पर रहे। ब्रह्माशंकर और माता प्रसाद डेढ़ लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे। दोनों उम्मीदवार लगभग साठ हजार मत पाकर रह गये। चौथे स्थान पर रहे महराजगंज के अजीत मणि को भी करारी हार का सामना करना पड़ा। गौर करें तो इन दोनों मण्डलों में सपा के तीन विधायक तकदीर आजमा रहे थे और ये अपनी सरकार में मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष तक रहे लेकिन प्रदर्शन बेहद खराब रहा। भोजपुरी फिल्म स्टार के लिए तो जयाप्रदा, जयाबच्चन, संजय दत्त, दिनेश लाल निरहुआ,मुकेश खन्ना और सुरेन्द्र पाल जैसे अभिनेता और दर्जन भर गायकों का भी जादू नहीं चल सका। इस अंचल में सपा के प्रति जनता के मन में कोई उत्साह नहीं रहा। और तो और पार्टी के थिंक टैंक समझे जाने वाले मोहन सिंह को भी देवरिया में तीसरे स्थान पर जाना पड़ा। बांसगांव में शारदा देवी को यद्यपि कम समय मिला फिर भी उन्होंने केन्द्रीय मंत्री महावीर प्रसाद को पीछे कर दिया। सपा को जनता ने पूरी तरह नकार दिया। इस संदर्भ में पार्टी के कुछ नेता चुप हैं तो कुछ अपनी चुप्पी अगर मगर लेकिन के साथ तोड़ते हैं। सपा के टिकट पर गोरखपुर से विधानसभा चुनाव लड़ चुके भानुप्रकाश मिश्र कहते हैं कि यह समय का फेर है और मतदाताओं को जल्द ही अहसास होगा कि उनसे चूक हुई है। पर समाजवादी युवजन सभा के राष्ट्रीय महासचिव ओ।पी. यादव कहते हैं कि हम मंथन कर रहे हैं और यह लग रहा है कि हमारा नियोजन सही नहीं था। वोटों के बिखराव से नुकसान हुआ। सपा लोहिया वाहिनी के राष्ट्रीय सचिव रजनीश यादव तो दो टूक कहते हैं कि सपा को सम्पूर्ण पिछड़ा वर्ग को एकजुट करके पार्टी को मजबूत करने की जरूरत है। लगभग सभी नेता मुखर तो नहीं हो रहे लेकिन अपने अपने समीकरण के हिसाब से प्रत्याशी चयन में भी गड़बड़ी बताते हैं। कुछ लोग संगठन को दोष देते हैं। सपा के अब तक के अतीत पर नजर डालें तो 1996 में पहली बार लोकसभा में सपा ने अपनी तकदीर आजमायी तब सलेमपुर, डुमरियागंज और बांसगांव में पार्टी को जीत मिली थी। 1998 में सिर्फ देवरिया में पार्टी जीत सकी लेकिन 1999 में महराजगंज और खलीलाबाद में पार्टी का खाता खुल गया। 2004 में भी सलेमपुर और देवरिया में पार्टी का वजूद बना रहा लेकिन इस बार के परिणाम ने पूरी तरह सफाया कर दिया। वजूद में आने के बाद यह पहला अवसर है जब सपा को इतनी करारी चोट मिली है।

17 मई 2009

बदल गयी गोरखपुर-बस्ती मण्डल की सियासी तस्वीर


आनन्द राय, गोरखपुर

पन्द्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों ने गोरखपुर बस्ती मण्डल की पिछली सियासी तस्वीर बदल दी है। इस बार के जनादेश ने दोनों मण्डलों की नौ संसदीय सीटों की गणित में हेर-फेर कर दिया है। अबकी दोनों मण्डलों से सपा साफ हो गयी है। कांग्रेस और बसपा ने बढ़त हासिल की है जबकि भाजपा अपने पुराने रिकार्ड पर ठहर गयी है। सपा के लिए यह चुनाव सर्वाधिक दुखदायी साबित हुआ है। भाजपा को भी अपने नये प्रयोग का लाभ नहीं मिल पाया। गोरखपुर-बस्ती मण्डल में गोरखपुर, बांसगांव, महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, सलेमपुर, बस्ती, संतकबीरनगर और डुमरियागंज संसदीय क्षेत्र हैं। परिसीमन में पड़रौना संसदीय क्षेत्र को बदलकर कुशीनगर और खलीलाबाद को संतकबीरनगर का नाम दिया गया है। पिछली बार यहां दो सीट सपा, तीन बसपा, दो भाजपा और एक कांग्रेस तथा एक निर्दल उम्मीदवार के खाते में थी। इस बार चुनाव में गोरखपुर से भाजपा के योगी आदित्यनाथ और बांसगांव से कमलेश पासवान, बसपा से सलेमपुर में रमाशंकर विद्यार्थी, बस्ती से अरविन्द चौधरी, देवरिया से गोरखप्रसाद जायसवाल और संतकबीरनगर से भीष्मशंकर तिवारी तथा कांग्रेस से कुशीनगर में आर.पी.एन. सिंह, महराजगंज में हर्षव‌र्द्धन सिंह और डुमरियागंज में जगदम्बिका पाल चुनाव जीते हैं। गोरखपुर की सीट को योगी आदित्यनाथ ने चौथी बार अपने नाम किया है जबकि पिछली बार कांग्रेस के महावीर प्रसाद के नाम रही बांसगांव संसदीय सीट को इस बार कमलेश पासवान ने भाजपा के खाते में डाल दिया है। पिछली बार महराजगंज से चुनाव जीतने वाले भाजपा के पंकज चौधरी ने अबकी बार अपनी सीट गंवा दी। यह सीट कांग्रेस के पाले में गयी है और यहां कांग्रेस के हर्षव‌र्द्धन सिंह ने विजयश्री हासिल करके एक रिकार्ड बनाया है। कुशीनगर संसदीय सीट पर कांग्रेस के ही कंुवर आर.पी.एन. सिंह ने अपना कब्जा जमाकर पिछली बार मामूली मतों से हारने की कसक मिटा दी है। डुमरियागंज सीट जीतकर जगदम्बिका पाल ने कांग्रेस की संख्या बढ़ायी है। यह सीट उन्होंने बसपा के मुकीम से छीनी है। बस्ती संसदीय क्षेत्र से बसपा के अरविन्द चौधरी जीते हैं। यह सीट पिछली बार भी बसपा के नाम रही। तब यह सीट सुरक्षित थी और लालमणि प्रसाद यहां चुनाव जीते थे। इस बार सामान्य सीट होने पर यहां अरविन्द चौधरी ने अपना खाता खोला। खलीलाबाद संसदीय क्षेत्र भी पिछली बार बसपा के खाते में थी। यहां उपचुनाव में बसपा उम्मीदवार भीष्म शंकर तिवारी चुनाव जीते। खलीलाबाद से बदलकर नयी बनी संतकबीरनगर सीट पर फिर बसपा के ही भीष्मशंकर तिवारी उर्फ कुशल तिवारी ने कब्जा जमाया है। देवरिया संसदीय क्षेत्र पिछली बार समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह के नाम रही। इस बार बहुजन समाज पार्टी के गोरख प्रसाद जायसवाल ने यह सीट अपनी पार्टी की झोली में डाल दी। इसी जिले की सलेमपुर संसदीय सीट को भी बसपा के रमाशंकर विद्यार्थी ने सपा के हरिकेवल प्रसाद से छीनकर अपनी पार्टी की सीटों की संख्या बढ़ा दी है। अबकी बार गोरखपुर बस्ती मण्डल के चुनाव परिणाम की खासियत यह रही कि कुशीनगर, संतकबीरनगर, बांसगांव, गोरखपुर, सलेमपुर और बस्ती में मतदाताओं ने युवा उम्मीदवारों को मौका दिया है।

अकेले पड़ गए केन्द्रीय मंत्री महावीर प्रसाद


आनंद राय , गोरखपुर :

शनिवार को गोरखपुर की महेवा मण्डी सियासी उतार चढ़ाव का पैमाना बन गयी। भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्री और बांसगांव संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस उम्मीदवार महावीर प्रसाद की सियासी तकदीर इसी मण्डी के एक पण्डाल में दरक रही थी। यद्यपि इस पण्डाल में संसदीय क्षेत्र के सिर्फ तीन विधानसभा क्षेत्रों की ही मतगणना हो रही थी लेकिन दो अन्य विधानसभा क्षेत्रों के परिणाम भी संचार माध्यमों से पहंुच रहे थे। यह पण्डाल भाजपा के युवा प्रत्याशी कमलेश पासवान की तकदीर के उत्कर्ष का गवाह बना हुआ था। इसी पण्डाल में बहुतों की दम तोड़ती उम्मीदें साफ दिख रही थीं। बांसगांव संसदीय क्षेत्र का यह पण्डाल बदलते हुये राजनीतिक नतीजे का गवाह था। पिछली बार चुनाव में कांग्रेस के महावीर प्रसाद ने बसपा उम्मीदवार सदल प्रसाद को हराकर जीत हासिल की। इस बार विजय का सेहरा भाजपा उम्मीदवार कमलेश पासवान के माथे बांधा गया। इस बार भी बसपा दूसरे नम्बर पर थी और उसके उम्मीदवार श्रीनाथ एडवोकेट आखिरी सांस तक लड़े। कांग्रेस और सपा की जमीन दरक गयी। चुनाव तक केन्द्रीय मंत्री महावीर प्रसाद की वजह से बांसगांव संसदीय क्षेत्र पर लोगों की निगाह थी लेकिन शनिवार को निगाहों के केन्द्र में कमलेश पासवान आ गये। सुबह ही मतगणना के समय महावीर प्रसाद पण्डाल में आये थे लेकिन रुझान देखकर थके मन से वापस लौट गये। इस संसदीय क्षेत्र में गोरखपुर जिले की बांसगांव, चौरीचौरा और चिल्लूपार विधानसभा सीटें शामिल हैं जबकि देवरिया जिले की रुद्रपुर और बरहज को भी परिसीमन में लिया गया है। इन पांचों सीटों पर कमलेश के बेहतर प्रदर्शन ने बाकी लोगों की उम्मीदों को धराशायी कर दिया। पण्डाल में भाजपा की ओर से जिलाध्यक्ष मार्कण्डेय राय मोर्चा संभाले थे। भाजपा के पक्ष में मतों की बढ़त उनके दर्प को बढ़ा रही थी। भाजपाईयों की खुशी और रौनक देखने लायक थी। कमलेश पासवान सुबह एक चक्र घूमकर देवरिया चले गये थे लेकिन दोपहर बाद लौटे तो फिर यहीं जम गये। दोपहर को ही कमलेश पासवान की मां और पूर्व सांसद सुभावती पासवान भी यहां आयी। बेटे की जीत की खुशी ने उन्हें भावविह्वल कर दिया।

गोरखपुर ने स्वीकार नहीं किया तो क्या कहूं


आनंद राय , गोरखपुर :

भोजपुरी फिल्मों के सुपर स्टार और गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से सपा उम्मीदवार मनोज तिवारी मृदुल ने अपनी हार को बहुत ही सहजता से लिया। मतगणना के शुरूआती रुझान को भांपकर ही वे पण्डाल से बाहर निकल पड़े और चेहरे पर हारी हुई मुस्कान लिये बोले- यदि गोरखपुर की जनता ने मुझे स्वीकार नहीं किया तो क्या कहूं। पर उन्होंने तुरंत यह भी कहा मुझे वोट भले कम मिला लेकिन जनता ने खूब प्यार दिया और मेरी सभाओं में सबसे ज्यादा भीड़ आयी। कभी भोजपुरी गायन और फिर भोजपुरी फिल्मों के चुनाव में गोरखपुर की जनता ने मनोज को सिर आंखों पर बिठाया लेकिन सियासी चुनाव में उन्हें नकार दिया। यह टीस उनके चेहरे पर चस्पा थी। मन की पीड़ा को बाहर करते हुये उन्होंने कहा कि मैंने यहां के लोगों का प्यार देखकर ही अपनी दावेदारी प्रस्तुत की थी। मेरी अपेक्षा पूरी होती तो मैं अपने वादे भी पूरा करता। मनोज ने कहा कि मैंने तो सदियों से पिछड़े गोरखपुर में दिया जलाने की कोशिश की लेकिन जनता हवा के रुख से इसे संभाल नहीं सकी। इस संवाददाता ने सवाल किया कि क्या अब आपका गोरखपुर से मोहभंग हो जायेगा? मनोज ने बात काटी। बोले-नाहि जी जइसन पहिले रहलीं जा वइसहीं रहब॥हम कवनो राजनीतिज्ञ थोड़े बांटि। इहां क बेटवा हईं आ इहां के लोग जीवन भर हमरा हृदय में रइहें।

इस बीच मनोज ने एक शेर भी सुनाया-
जो आंसू तुमने सौंपे हैं मुझे उनसे गिला क्यों हो ,
समय का दौर ऐसा है की अपने ही रुलाते हैं।
बंधे हो पाँव में पत्थर हमें तो दौड़ना होगा,
रुके कैसे की कल के रास्ते हमको बुलाते हैं।


तो क्या राजनीति में बने रहेंगे? मनोज ने कहा कि अब हम जो भी फैसला करेंगे सोच समझ कर करेंगे। गोरखपुर के लिए मेरा प्यार बना रहेगा। यहां मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं है क्योंकि यहीं के लोगों ने मुझे सब कुछ दिया है। जब उनसे यह कहा गया कि क्या अब आपकी रफ्तार धीमी हो जायेगी तो उनका कहना था कि एक कलाकार के रूप में मेरी जो रफ्तार थी वह और तेज हो जायेगी। मनोज मृदुल पूरे चुनाव में राज ठाकरे को सबक सिखाने का एलान करते रहे। जब उनसे पूछा गया कि अब कैसे सबक सिखायेंगे तो उन्होंने कहा कि यह कसक हमारे मन में बनी रहेगी।


15 मई 2009

बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं


यह रचना महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की है। बहुत ही प्रेरित करती है और मन की ताकत बढाती है। कई बार व्यथा को कम करने में सहायक होती है। वाकई मुझे बहुत पसंद है।

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।

शहीदे-आजम भगत सिंह

साभार दैनिक जागरण
देश की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देने वाले क्रंातिकारियों में अग्रणी हैं शहीदे-आजम भगत सिंह। एक कृतज्ञ राष्ट्र अपने सपूतों की स्मृति से ज्योतित होता रहता है। भगतसिंह के जीवन और विचारों पर केन्द्रित दो पुस्तकों के महत्व को इस आलेख में रेखांकित किया है केशव तिवारी ने। इधर सुधीर विद्यार्थी के संपादन में दो किताबें शहीद भगत सिंह क्रांति का साक्ष्य और जब ज्योति जगी [सुखदेव राज के संस्मरण] आई हैं। सुखदेव राज क्रान्तिकर्म में रत थे और शहीद चंद्रशेखर की शहादत के वक्त उनके साथ रहे। पहली किताब में भगत सिंह जी के साथियों और उनसे जुडे लोगों के संस्मरण हैं। इन संस्मरणों से गुजरते हुए शहीदे आजम का जो एक चरित्र उभरता है वो बताता है कि एक क्रांतिकारी अपने लोगों के बीच किस सहजता से उस अतिमानवीयता को जीता है जिसका उद्देश्य ही विश्व को उत्पीडन मुक्त करना है। पूरी किताब एक दस्तावेज है कि तेइस साल का एक युवा अपनी जातीयता से प्रभावित होकर विश्व की राजनीति से किस तरह जुडा। उसका स्वप्न साम्राज्यवाद के नाश तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसका विस्तार एक क्रांतिकारी समाज के निर्माण तक था। शहीद करतार सिंह सराबा से प्रेरणा लेने वाला यह शहीद कितने ही देश के युवाओं को वह सपना दिखा चुका था। उनके फांसी पर चढते वक्त जयदेव कपूर ने पूछा, सरदार तुम मरने जा रहे हो मैं जानता हूं तुम्हें इसका अफसोस नहीं है। सुनकर ठहाका मारकर हंसे फिर गंभीर होकर बोले, क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया..। फिर रुककर कहा, इस छोटी सी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य भी क्या हो सकता है। आगे शिववर्मा लिखते हैं कि वह बहुत ही सौंदर्यप्रिय थे। संगीत और कला से उन्हें बहुत प्रेम था। हिंदी, उर्दू, पंजाबी से गहरा लगाव था। कामरेड सोहन सिंह की गुरुमुखी और उर्दू से निकलने वाली पत्रिका कीर्ति में लेख लिखते थे। वास्तव में यह पुस्तक शहीदे आजम पर संस्मरणों का लहराता समुद्र है, जिसमें उन्हें सतह से जानने वालों के लिये एक सम्पूर्ण क्रांतिकारी का चरित्र खुलता है। मथुरादास थापर लिखते हैं कि काकोरी केस के क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनकर लौटे तो पूछा, मथुरा तू इंस्टीट्यूट से क्यों लौट आया?-यह सुनकर सारा देश रो रहा है। मैं कैसे पढता? बोले तू ये सब छोड हम ही काफी हैं यह गम उठाने के लिये। पूरी किताब बार-बार यह सोचने पर मजबूर करती है कि एक युवा सिख किस नजर से देख रहा था अपनी दुनिया के एक मुक्कम्मल क्रांतिवीर और एक मुक्कम्मल स्वप्नदर्शी को। यह ताकत उसने अपनी जनता और दर्शन से हासिल की। इस पुस्तक की सबसे बडी खूबी यह है कि सुधीर विद्यार्थी ने जो चयन किया है उसमें हर लेखक भगत सिंह के चरित्र के एक नये आयाम ही खोलता है। उनका राजनैतिक चिंतन, उनका जीवन, अपनी मिट्टी-बोली-बानी से प्रेम, उनकी कलाप्रियता और अपनी जमीन पर खडे होकर विश्व को देखना जैसा की बटुकेश्वरदत्त कहते हैं, सन् 1927- 28 में क्रांति के साथ राष्ट्रीय संकट का भी काल था। जहां आर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषण विहीन समाज भगत सिंह का लक्ष्य था। वहीं ट्रेड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था। लाखों लाखों लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रयास हडताल से भी वंचित कर दिये गये। पब्लिक सेफ्टी बिल, ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध के चलते लाला लाजपतराय की हत्या का उन पर गहरा प्रभाव पडा, वो समझते थे कि इन नंगे-भूखों की लडाई लडे बिना इन्हें राष्ट्र की आजादी कभी पूरी नहीं मिलेगी। राजनीति के साथ-साथ आर्थिक लडाई भी एक बडा मुद्दा था। एक संस्मरण विरेन्द्र सिन्धु का है- स्वभाव के आइने से। इससे हमें उनके मूल स्वभाव का पता चलता है कि वे अति संवेदनशील और हंसमुख व्यक्तित्व के स्वामी थे। चीजों को समझने-समझाने की कोशिश करते थे। जिद्दी और कट्टर बिल्कुल नहीं। बहुमत से अपने खिलाफ निर्णय को भी प्रजातांत्रिक ढंग से स्वीकार कर लेते थे। यह दिखाता है कि जीवन के इन मूल्यों को धारण करके ही वो शहीदे आजम हो पाये। अंत में जितेन्द्र सान्याल ने भगत सिंह को फांसी पर कांग्रेसी नेताओं की राय उनकी निरीहता और उनके मुकदमे की कार्यवाही और उनकी दलीलों का जिक्र किया है। दूसरी किताब जब ज्योति जगी सुधीर विद्यार्थी के संपादन में क्रांतिकारी सुखदेव राज का संस्मरण है। यूं तो यह भी संस्मरण ही है परन्तु यह इस मामले में भिन्न है कि एक व्यक्ति जो आजाद की शहादत के वक्त उनके साथ तथा तमाम क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त था वह इस समूचे परिदृश्य को कैसे देख रहा था। पूरे संस्मरणों में विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं को बहुत सा सीधे- सादे ढंग से बिना किसी लागलपेट के दिया गया है। यशपाल पर लेखक की राय एक नई बात खोलती है जो शायद इस पुस्तक के पहले लोगों को मालूम न हो पाती कि कैसे व्यक्तिवाद क्रांतिकारी पार्टियों में पनप जाता है और आजाद को अन्तत: अपने लोगों की ही हुकुमउदूली और रूमानी कमजोरियों से लडना पडा। सुखदेव राज ने बाद के जीवन का एक हिस्सा छत्तीसगढ दुर्ग के अंडा गांव में कुष्ठ रोगियों की सेवा में बिताया, यह बताता है कि क्रांति से विरत होकर भी वह मानवता से कभी विरत नहीं हुए। पुस्तक भगवतीचरण वर्मा और दुर्गा भाभी को लेकर पैदा की गई गलतफहमी पर भी खुलकर चर्चा करती है। अपने संस्मरण में लेखक ने अपने साथियों की शहादत को बहुत ही शिद्दत से याद किया है। इसमें भगवती भाई और सालिग राम का बलिदान, पृथ्वी सिंह को खोजकर क्रांतिकारियों का मिलना, इस संघर्ष का ही नया मोड है। आजाद और पं. जवाहरलाल के बीच एक वार्ता का जिक्र है जिसमें गांधी इरविन समझौते में आजाद वह शर्त शामिल नहीं करवा सके जिसमें क्रांतिकारियों को छोडने और उनके विरुद्ध वारंट वापस लेने की बात थी। यह पुस्तक एक पूरे के पूरे परिदृश्य का खाका खींचती है। यह वस्तुत: एक समूचे काल खण्ड का दस्तावेज है जिसमें क्रांति और व्यक्ति के अंतर्सबंधों की गहरी पडताल है।

12 मई 2009

बिजली के खंभे पर टूट गया राजबली का ख्वाब

आनंद राय गोरखपुर :
अपने कई साथियों की तरह ही संविदाकर्मी राजबली का ख्वाब बिजली के खंभे पर टूट गया। बिजली की गड़बड़ी ठीक करते समय राजबली ने अपनी जान गंवा दी। अफसोस दो दशक से अधिक समय तक सेवा करने के बाद भी राजबली परमानेंट नहीं हो सका। उसकी मौत पर विभागीय अधिकारियों ने अपनी संवेदना उसी तरह दिखायी जैसे किसी के डूबने के बाद सिसकियां लेती लहर पहंुची हो। ठीक दोपहर में जब लोग बाग गर्मी से बचने के लिए छांव तलाश रहे थे तब नगरीय विद्युत वितरण मण्डल प्रथम खण्ड के अधिशासी अभियंता दफ्तर से महज दो कदम दूरी पर संविदाकर्मी राजबली एक पोल पर चढ़ा हुआ था। बिजली की गडबडी ठीक करते समय अचानक हादसा हुआ और उसने अपनी जान गंवा दी। गुलरिहा थाना क्षेत्र के सियारामपुर टोला धर्मपुर निवासी राजबली ने बिजली विभाग में इतनी लम्बी सेवा दी लेकिन आखिरी समय में वह इस विभाग से बेगाने की तरह विदा हुआ। उसकी कोशिश नियमित स्टाफ बनने की थी लेकिन उसके बदले में मौत मिली। उसकी मौत पर मातमपुर्सी के लिए गये अभियंता संविदाकर्मियों के आक्रोश से बचने की जुगत में थे। आपस में जोड़ जुगाड़ कर उसके लिए बीस हजार रुपये जुटाये गये लेकिन यह मामूली रकम मंुह चिढ़ाने जैसी थी। अलबत्ता जिस पोल से गिरकर राजबली की मौत हुई उसी पोल पर टंगा रह गया उसका चप्पल पूरी व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश का सबूत बन गया। राजबली विभाग में सबका प्यारा था। सोखा नाम से सुपरिचित इस शख्स के पास सभी बिगड़े हुये कामों को ठीक कर लेने की महारत थी। 2000 में जब मस्टरोल कर्मचारियों को नियमित करके झांसी भेजा गया तब पता नहीं किन वजहों से राजबली का नाम उस सूची में नहीं आ पाया। अब घर में उसके पीछे उसकी जिम्मेदारियां छूट गयी हैं। चार बेटे और एक बेटी को किसी तरह संभाल रहे मामूली खेती वाले इस मजदूर की तकदीर ने तो उसे हमेशा छला लेकिन आखिरी समय में भी विभाग से इस उपेक्षा की उम्मीद नहीं थी। पोल से गिरने के बाद कुछ लोग अस्पताल ले गये। जान नहीं बची। इस संवाददाता ने एक बजकर 55 मिनट पर अधिशासी अभियंता को फोन किया। तब तक किसी जिम्मेदार विभागीय अधिकारी की संवेदना नहीं जगी थी। यूनियन के कुछ लोग और कुछ विभागीय कर्मचारी उसकी मौत से आहत थे और तब मौके पर वही लोग उपस्थित थे। थोड़ी देर बाद जिला अस्पताल के मर्चरी में राजबली की लाश रख दी गयी। उसके परिजन वहां पहंुचे तो दिल दहला देने वाला दृश्य उपस्थित हो गया। तब तक अधिशासी अभियंता जयराम चौरसिया समेत कई लोग पहंुच गये थे। विद्युत मजदूर संगठन उत्तर प्रदेश के प्रांतीय उपाध्यक्ष के.पी. सिंह ने कहाकि अब संविदा कर्मियों की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं होगी। उन्होंने इस संवाददाता को बताया कि अफसरों की अनीति और लापरवाही से संविदा कर्मी दिनेश गौड़, फाजिलनगर के विजय बहादुर पाण्डेय, बृजमनगंज के पारस दुबे, लक्ष्मीपुर के कांता और टिल्लू भी बिजली के पोल और अव्यवस्था के शिकार हो चुके हैं। जांच के बाद ही होगा कोई निर्णय-मुख्य अभियंता गोरखपुर: संविदाकर्मी राजबली की मौत पर निजी स्तर पर चाहे जो कुछ मदद हुई हो लेकिन अधिकृत तौर पर कोई घोषणा नहीं हुई। इस संदर्भ में जब मुख्य अभियंता सुरेश राम से बातचीत की गयी तो उन्होंने कहा कि इस मामले की जांच सुरक्षा निदेशालय को सौंप दी गयी है। जांच रिपोर्ट आने के बाद ही मुआवजा सम्बंधी कोई घोषणा की जा सकेगी। मांगे पूरी नहीं हुई तो मुख्य अभियंता का 19 को होगा घेराव गोरखपुर: विद्युत मजदूर संगठन उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष आर.एस. राय ने कहा है कि यदि संविदाकर्मियों को नियमित नहीं किया गया तो आर पार की लड़ाई होगी। उन्होंने कहा कि मजदूरों के हितों के साथ खिलवाड़ करने वाले काकस को अब अधिक समय नहीं दिया जायेगा। इस बीच संविदाकर्मियों की एक आपात बैठक में चन्दि्रका प्रसाद भारती ने कहा कि यदि अविलम्ब राजबली के परिजनों को एक लाख का मुआवजा और पत्‍‌नी को नौकरी नहीं दी गयी तो 19 मई को मुख्य अभियंता का घेराव किया जायेगागड़बड़ी

लोकगीत बन गये थे जंग-ए-आजादी के परचम

हरीन्द्र द्विवेदी, गोरखपुर
गुलामी से आजादी की छटपटाहट लोक कवियों में भी कम नहीं रही। उन्होंने जनजागरण के गीत लिखे और सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के नाट्य मंचों पर उनकी प्रस्तुति कर आम जनता को आजादी की लड़ाई में ताकत दी। ये लोकगीत जंग-ए-आजादी के परचम बन गये थे। ये कवि आमजन के बीच के ही थे। ऐसे बहुत से कवियों के असली नाम भी कोई नहीं जानता। बस इनकी रचनाएं लोकजीवन में रची बसी हैं। लोकनाट्य रूपों की कहरवा (हुड़का), इनरसनी (मिरदंगी), फरुआही, लोरकायन, धोबियउआ विधा की माहिर टीमें भी जनजागरण में पीछे नहीं थी। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के शहीदों की कुर्बानी और उनकी वीरगाथाएं लोकनाट्यों की मुख्य कथावस्तु बन गयी। बाद में नाटक कंपनियों ने ऐसे नाटकों का मंचन शुरू किया जिनमें अंग्रेजों के जुल्म और आजादी के परवानों के साथ की जा रही उनकी ज्यादतियों का प्रकारांतर से जिक्र रहता था। बिहार के लोक कवि महेन्दर मिसिर ने तो मण्डली बनाकर मंचन करवाया और सरकार के खिलाफ लड़ रहे लोगों की मदद के लिए छापाखाना लगाकर रुपये तक छापे। लोक कवियों का यह जनजागरण अभियान आजादी मिलने के दिन तक चलता रहा। गोरखपुर क्षेत्र के लोक कवि चंचरीक ने महात्मा गांधी के आन्दोलन से प्रेरित होकर सुराजी गारियां (गालियां) लिखीं और उसे गांवों में जाकर गाया भी । उनकी सुराजी गारी आज भी हर गांव में महिलाएं गाती हैं। उन्होंने सुराजी गीतों के क्रम में ही चरखा गीत मोरे चरखे का टूटे ना तार, चरखवा चालू रहे लिखकर कुटीर उद्योगों को बढ़ाने की दिशा में लोगों को प्रेरित किया। इसी तरह एक अनाम कवि ने लिखा.. रेलिया बैरन, पिया को लिये जाय रे। जउने सहबवा क, पिया मोर नोकर। लागै गोलिया, साहब मरि जाये रे। इस गीत के माध्यम से उसने हुकूमत करने वाले साहबों को नेस्तनाबूद करने का आह्वान किया। बताते चलें कि गुलामी से आम आदमी का सामजिक विरोध भी लोगों के सामने आया। उस दौर में नौकरी को सबसे तुच्छ माना जाता रहा है। लोक कवि घाघ ने लिखा था.. उत्तम खेती मद्धम बान, निषिध चाकरी भीख निदान इतना ही नहीं विदेश जा कर नौकरी करने वालों को अछूत माना जाता था। उसके परिजन भी उसका छ़आ भोजन नहीं करते थे। इन्हीं लोक कलाकारों के भांड़ वर्ग ने भी इसे अपनी भड़ैती का हिस्सा बनाया। उस दौर में भांड़ों का प्रचलित गीत रहा.. भांड़ आये हैं, मजा लाये हैं, तक तक तक तक्क कहो वाह वाह वाह, गोरन के घर लइकी लइका खेलैं घोड़ा घोड़ी, आपन लइके लकड़ी बीनैं बना-बना के टोली, क्या व्यवस्था है क्या अवस्था है, तक तक तक तक्क कहो वाह-वाह-वाह कहने का अर्थ यह कि ग्रामीण परिवेश में लोक कवियों व कलाकारों ने अपने-अपने तौर तरीके से ब्रितानी हुकूमत के विरुद्ध जन जागरण कर जंगे आजादी में अपना योगदान दिया। उनके इस योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता।

आमी : कुआवल को बेचैन कर रहीं स्मृतियां


आनंद राय , गोरखपुर :

स्मृतियां जीने नहीं देती। स्मृतियां मरने नहीं देती। स्मृतियों की पूंजी के साथ सौ बसंत पार कर चुके बुद्धु सरदार अपने गांव कुआवल को अब भी दिल में बसाये हुये हैं। इस गांव के सबसे बुजुर्ग बुद्धु आमी नदी के स्वर्णिम दौर के गवाह हैं। वे मौजूदा समय की विसंगतियों से भी जूझ रहे हैं। गरीबी और वक्त की मार सहकर उन्हें कोई दुख नहीं हुआ लेकिन आमी नदी से जब भी बदबूदार झोंके उठते हैं तो बुद्धु सरदार की बूढ़ी हड्डियां गुस्से से तन जाती हैं। पानी से जीवन की गति और लय तय होती है लेकिन आमी का चहेता कुआवल अब पानी के दुख से दुखी हो गया है। और यह दुख छोटे बड़े सबके चेहरे पर दिखता है। गोरखपुर मुख्यालय से 24 किलोमीटर दूरी पर स्थित कुआवल गांव की आबादी लगभग दो हजार है। 1997 में ही अम्बेडकर गांव हो जाने की वजह से यहां विकास की गति बढ़ी है। प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक विद्यालय और पक्की सड़क के साथ ही हैण्डपम्प और अन्य सुविधाएं दिखती हैं। पर इन सुविधाओं ने गांव के सुख चैन में कोई वृद्धि नहीं की है। सबसे बड़ा दुख तो आमी नदी का प्रदूषण है। गांव के पूरब सटकर बहती हुई आमी नदी कभी इनके सुखों की वजह थी। तब गरीबी थी लेकिन यहां के लोग अपने पौरुष से आमी के आंचल से अपने लिए रोटी ढूंढ लाते थे। गांव की प्रधान मंदरावती देवी के पति राममिलन यादव कहते हैं- साहब आमी तो हमारे लिए स्वर्ग थी और अब उद्यमियों ने उसे नरक बना दिया है। अपनी पत्नी से पहले राममिलन भी गांव के प्रधान थे। तबसे उनकी कोशिश है कि किसी तरह आमी का प्रदूषण दूर हो। इसी प्रदूषण ने गांव का विकास रोक दिया है। प्रदूषित आमी की दुर्गध से मच्छर, बदबू और वितृष्णा की वजह से युवा पीढ़ी का गांव से मोह कम हो रहा है। लोग पलायन कर रहे हैं। रोजगार और सुकुन की आस में सबके पैर दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता की ओर बढ़ रहे हैं। इससे गांव का वास्तविक विकास रूक गया है। गांव के फूलदेव, धनंजय, मुन्नुर, त्रिवेणी और रामनौकर कहते हैं कि पहले इस गांव की जो रौनक थी वह नहीं रही। सुबह शाम आमी का तट गांव के नौजवानों से गुलजार रहता था। मछली पकड़ते थे और पशुओं को इसी नदी में दिन भर छोड़ देते थे। इसी नदी के पानी से खेतों की सिंचाई होती थी। अब तो वे अच्छे दिन हवा हो गये हैं। सिर्फ त्रासदी और दुख बचा रह गया है। गांव के संकटा उपाध्याय आमी की व्यथा से व्यथित हैं। और गांव में रहने वाला हर व्यक्ति व्यथित है। बरसात के दिनों में यह गांव मैरुण्ड हो जाता है। तब आमी के अलावा बरसात का ठहरा हुआ पानी भी दुख का सबब बन जाता है। पूरब और दक्षिण तरफ से गांव को आमी नदी घेरे है और गांव से सटे पश्चिम तरफ एक तालाब है। जब भी बाढ़ आती तो पूरे संसार से यह गांव जुदा हो जाता है। डोंगी नांव से सफर करके लोग बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। साल के कई महीने पानी से जूझते हुये बीत जाता है। बाकी बचे दिनों में आमी का जहरीला पानी इनका दुश्मन बना रहता है। कभी उस पानी को पीकर पशु मर जाते तो कभी सिंचित फसल जल जाती। गाढ़े दुख में कभी कभी भाषा छलती है। गांव के समझदार लोग आमी के नाम पर जो भाषा बोलते उससे उनकी व्यथा को विस्तृत आकार मिलता है। उनके दुखों में सागर में जलती हुई अभिलाषाओं को साफ देखा जा सकता है।

8 मई 2009

नंदन जी का बड़प्पन


आनंद राय, गोरखपुर

वैसे तो नंदन जी को बहुतों बार सुना और देखा लेकिन जब उन्हें सीधे देखना था यानि ख़ुद अपनी बात करनी थी तब हिम्मत नही पडी। उन दिनों मैं सन्डे मेल अखबार से जुड़ा था। लखनऊ में मुरली भवन में आफिस था। राम दत्त त्रिपाठी जी ने कहा दिल्ली जा रहे हो तो नंदन जी से मिल लेना। मैं आज भी रामदत्त जी की चिट्ठी रखा हूँ क्योंकि नंदन जी से मिल नही पाया। रामदत्त जी अब बी बी सी में आ गए हैं और मैं अपनी रोजी में उलझ गया हूँ लेकिन सच कहूं तो कुछ पैसो के लिए लिखे गए एक बड़े मजमून को मैंने वक्त के लिए रख लिया। नंदन जी ने पता नही किस भाव में अर्जुन सिंह पर एक किताब लिखी और वह विवादित हो गयी वरना उन्होंने ठोंक बजा कर लिखने की नसीहत दी है- मैं उनका आभारी हूँ और जीवन भर रहूँगा। जीवन की जिस बेला में मेरी बातें भी स्तम्भ बनेगीं मैं उन दिनों उनका बड़प्पन लिखूंगा ताकि लोग उसे याद रखें। यहाँ विज्ञान का एक लेख प्रस्तुत है-

वरिष्ठ कवि, सिद्धहस्त लेखक और विख्यात पत्रकार कन्हैयालाल नंदन की जीवन यात्रा फतेहपुर [उत्तर प्रदेश] जिले के छोटे से गांव से शुरू होकर कानपुर, इलाहाबाद और मुंबई से गुजरती हुई अब दिल्ली में आकर ठहरी है। आत्मकथा लेखन की बनी बनाई परंपरा का उल्लंघन करते हुए नंदन जी ने अपनी आत्मकथा कहां कहां से गुजर गया में तारीखों से पूरी तरह बेखबर रहकर अपनी जिंदगी की रहगुजर को बयान किया है। उससे उपजे सवालों को लेकर पिछले दिनों विज्ञान भूषण ने उनसे मुलाकात की, प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश-
[अपनी आत्मकथा में आपने किस वजह से घटनाओं और संस्मरणों को अधिक महत्व दिया है जबकि घटना से जुडी तारीखों का जिक्र नहीं है?]
मेरे जीवन में घटित सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र मैंने इस पुस्तक में किया है। किस तारीख को यह घटना घटित हुई इससे पाठकों को क्या फर्क पडेगा? मैंने इसमें स्वीकार किया है कि मुझे अपनी जन्मतिथि, दिन और नक्षत्र के बारे में ठीक से नहीं मालूम है, इसीलिए मेरी कुंडली भी नहीं है। अब इसका ये मतलब तो नहीं है कि मेरा जन्म ही नहीं हुआ। किसी भी घटना का मेरे मन पर क्या प्रभाव पडा, उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई, पाठकों के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण है।
[आपने इसी पुस्तक में लिखा है कि प्रेम कभी-कभी स्वयं को उग्र और हिंसक रूप में भी प्रकट करता है तो क्या भारती जी का प्रेम भी आपके प्रति कुछ इसी तरह का था?]
हां, ये हो सकता है। पर उनका व्यवहार कभी-कभी इतना निष्करुण हो जाता कि मैं सहन नहीं कर पाता था। दरअसल, वे प्रेम भी सतर्कता के साथ करते थे। एक बार उन्होंने लक्ष्मीचंद्र जैन को पत्र में लिखा कि- नंदन, अब विश्वास के काबिल नहीं रह गया है। तो दूसरी तरफ जब मैं धर्मयुग छोडकर संडेमेल से जुडा तो उसके अंकों की भरपूर प्रशंसा करते हुए कहते थे- नंदन, जो कुछ भी करता है उसे देखकर मेरी छाती गर्व से फूल जाती है। उनका ये दोहरा प्रेम और रहस्यमयी प्रेमाभिव्यक्ति को मैं कभी नहीं समझ पाया। उनके लिए बस यही कहना चाहूंगा- जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको, याद आया बहुत इक पेड का साया मुझको।
[क्या किशोरावस्था में जिस लडकी को आपने गांव की नदी में तैरना सिखाया उसके प्रति या गांव में ही रहने वाली रूपजीवी की बेटी मानकुंवर के प्रति उत्पन्न लगाव को ही आप अपने जीवन का प्रथम प्रेमानुभव मानते हैं?]
प्रेम का अनुभव हर किसी को नया सबक सिखाता है। हालांकि गांव की उस लडकी या फिर मानकुंवर के प्रति मेरे मन में जो हुआ उसे मैं प्रेम नहीं मानता, लेकिन उस अनुभव से यह सबक मिला कि मेरा दरिया तो कहीं और है, जहां डूबकर मुझे आगे जाना है। मुझे डूबना तो कबूल है पर उथले पानी में डूबना नाकाबिल ए बर्दाश्त रहा है।
[बगैर प्रेम किया गया विवाह कहां तक उचित है? जिसके संग आपका विवाह हुआ क्या उनके प्रति आपके मन में पहले से ही कोई प्रेम भाव था?]
जिसके संग विवाह हो उसके प्रति प्रेम का होना सबसे आवश्यक है। रामावतार चेतन जी से मेरे घनिष्ठ संबंध थे। मेरी पत्नी उन्ही की बहन हैं। दरअसल, उनके घर में सभी के साथ मेरा जुडाव हो गया था। और धीरे-धीरे मन में उनके प्रति प्रेम घना होता गया। चेतन जी से विवाह की अनुमति मांगने पर पहले तो उन्होंने धैर्य रखने को कहा और विचार करते रहे, बाद में विवाह की अनुमति दे दी।
[आत्मकथा लेखन में सच्चाई, पूरी ईमानदारी और साहित्यिक मर्यादा का पालन करना किसी लेखक के लिए कितना आवश्यक है?]
आत्मकथा लेखन में ईमानदारी तो बुनियादी चीज है। एक ही घटना के बारे में सच के स्वरूप अलग-अलग कोणों से भिन्न नजर आते हैं। अपने जीवन में शामिल किन प्रसंगों को देना है किसे नहीं, यह पूरी तरह लेखक पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं कि लेखक के जीवन में घटित किसी घटना या संस्मरण का अगर कोई सामाजिक महत्व न हो तो उसे लिखना व्यर्थ है।
[व्यक्ति को किसी न किसी स्तर पर समझौता करना पडता है। ऐसे किसी अनुभव से क्या आप भी रूबरू हुए?]
मेरा मानना है कि जिंदगी का दूसरा नाम ही समझौता है। अगर किसी बडे उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आपको कुछ समझौते करने पडते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है। हां ये जरूर है कि समझौता करने की सीमारेखा आपको स्वयं निर्धारित करनी पडती है। आपका विवेक हमेशा आपके साथ रहना चाहिए।
[आजकल मीडिया ने भाषा [विशेषकर हिंदी] के व्याकरण को तहस नहस करने का जो दुष्चक्र रचा है उससे बचने के लिए क्या करना चाहिए?]
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया ने ही पहले ऐसी व्याकरणहीन [कहना चाहिए आत्माहीन] भाषा को ईजाद किया। अब ये भी आरोप लगाया जाता है कि लोग ऐसी ही भाषा चाहते हैं। लोगों के मन में भाषा के प्रति जागरुकता समाप्त होती जा रही है। कुछ हद तक इसके लिए हमारी शिक्षा प्रणाली भी दोषी है। त्रिभाषा फार्मूला कारगर हो सकता है। अंग्रेजी का दखल हर भाषा के लिए खतरनाक है।
[क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक विमर्शो से स्त्री या फिर दलितों की सामाजिक स्थिति में कुछ सुधार हो सकता है?]
साहित्य में ऐसे विमर्शो से लोगों का ध्यान उपेक्षित वर्ग की तरफ जाता है। जागरुकता भी बढती है यानी इस तरह के विमर्श समाज में दलितों और स्त्रियों की स्थिति को समझने में सहायक हो सकते हैं। लेकिन विमर्श के मूल उद्देश्य को भूलकर मात्र नारेबाजी या झंडाबरदारी करना या इनकी आड में अपने निजी हित को साधने के लिए आपस में द्वंद्व करना पूरी तरह से दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित है साथ ही इससे साहित्यिक गरिमा को भी आघात पहुंचता है।
[विज्ञान भूषण]

स्कूल तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में


आनंद राय, गोरखपुर

व्यवस्था की चूक पर शायर अदम गोण्डवी ने सटीक निशाना साधा है। हर विषय पर उनकी तरकश से तीखे तीर निकले हैं। उनकी एक रचना है- जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में, गांव तक वो रोशनी आयेगी कितने साल में। आंकड़ों की बाजीगरी और फाइलों के जाल पर दृष्टिगत अदम का यह शेर परिषदीय विद्यालयों की विद्युतीकरण योजना के लिए भी बिल्कुल सटीक है। गोरखपुर-बस्ती मण्डल में गुजरे वित्तीय वर्ष में कुल 5473 विद्यालयों में विद्युतीकरण करने का लक्ष्य निर्धारित था लेकिन पोल और परिवर्तक के अभाव में 2354 विद्यालयों में विद्युतीकरण का कार्य नहीं हो सका है। मुख्य अभियंता सुरेश राम कहते हैं कि इसके लिए 14.50 करोड़ रुपये की वित्तीय स्वीकृति के लिए शासन को प्रस्ताव भेजा गया है। उल्लेखनीय है कि जुलाई 2008 में शासन स्तर से निर्देश हुआ कि बारहवें वित्त आयोग योजनान्तर्गत प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में विद्युतीकरण किया जाय। इसके लिए सभी जनपदों में 567 प्राथमिक और 229 उच्च प्राथमिक विद्यालयों में विद्युतीकरण का लक्ष्य निर्धारित किया गया। पूरे प्रदेश में 56516 विद्यालय चिन्हित किये गये और इसके लिए एक अरब 64 करोड़ 96 लाख रुपये की धनराशि स्वीकृत की गयी। गोरखपुर-बस्ती मण्डल के 5473 विद्यालयों के लिए कुल 16.38 रुपये की धनराशि आवंटित की गयी। पावर कारपोरेशन को प्रत्येक विद्यालय के हिसाब से 2200 रुपये दिये गये। तब साफ निर्देश था कि उन्हीं विद्यालयों को चयनित किया जाय जहां गांव में बिजली गयी है। सूची बनाते समय ऐसे विद्यालय भी चयनित हुये जहां बिजली के पोल नहीं थे अथवा परिवर्तक नहीं लगे थे। विद्युतीकरण का कार्य शुरू हुआ तो व्यवहारिक अड़चन शुरू हो गयी। महज 2200 रुपये की पूंजी में बिना पोल और परिवर्तक के विद्युतीकरण करना कठिन हो गया। जिन विद्यालयों को सिर्फ केबल से जोड़कर ऊर्जित करना था उनमें कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन जहां पोल और परिवर्तक लगाने थे वे विद्यालय अतिरिक्त बजट न होने से विद्युतीकरण से वंचित रह गये। उन विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को बिजली के पंखे की हवा नसीब नहीं हुई। इस संदर्भ में पावर कारपोरेशन गोरखपुर जोन मुख्यालय के अधीक्षण अभियंता ओ.पी. गुप्ता से बातचीत की गयी तो उन्होंने बताया कि 5473 विद्यालयों के लक्ष्य के सापेक्ष 3119 विद्यालयों का विद्युतीकरण हो गया है। 879 विद्यालयों में पोल लगाकर विद्युतीकरण करना है जबकि 1475 विद्यालयों के विद्युतीकरण के लिए परिवर्तक लगाना जरूरी है। इसके लिए क्रमश: 403.34 लाख और 1047.12 लाख रुपये की जरूरत है। मुख्य अभियंता श्री सुरेश राम ने बताया कि इसका प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। पैसा मिलते ही कार्य शुरू हो जायेगा। विशेषज्ञ बताते हैं कि चूंकि जो धनराशि मुहैया करायी गयी थी वह विद्यालयों में फर्नीचर के लिए बारहवें वित्त आयोग से स्वीकृत थी। अब बजट बढ़ जाने से मामला फाइलों में उलझ कर रह गया है। जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों का कहना है कि शासन स्तर पर इसके लिए पहल की गयी है। अब यह पहल कब तक कारगर होगी यह तो समय बतायेगा लेकिन 2354 विद्यालयों के विद्युतीकरण की फिलहाल कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है।

कटाई टीकर के लोगों की व्यथा


आनंद राय , गोरखपुर

आमी नदी को छूकर किसी भी ओर से हवा बहती तो कटाई टीकर के लोगों की व्यथा बढ़ जाती है। गांव के बड़े बुजुर्ग अपने अतीत की यादों में खो जाते हैं। आधुनिक मिजाज के कुछ नये लड़के अपने पूर्वजों पर फक्र करने के बजाय सिर्फ उस घड़ी को कोसते हैं जब उन लोगों ने बसने के लिए इस तट को चुना। वाकई आमी नदी का प्रदूषण बढ़ने से दो दशक में इस गांव ने अपने सुख चैन के साथ ही बहुत कुछ गंवाया है। चार हजार आबादी वाले कटाई टीकर ग्राम सभा में मिश्रौलिया और मठिया जैसे दो टोले भी जुड़े हैं। गोरखपुर मुख्यालय से इस ग्राम सभा की दूरी 32 किलोमीटर है। आमी नदी इस गांव से महज पांच सौ मीटर दूरी पर बहती है और खास बात यह कि पश्चिम-पूरब और उत्तर तीनों तरफ से गांव को घेरे हुये है। औद्योगिक इकाइयों के अपजल से आमी प्रदूषित हुई तो इस गांव का सुख चैन दुश्र्वारियों में बदल गया। अब तो हवा उत्तर से बहे या पूरब से दुर्गध आनी ही है। जिस गांव में दो दशक पहले भूले से मच्छर नहीं आते थे वह गांव दिन में भी मच्छरों के हवाले रहता है। उठना-बैठना और सोना दूभर हो गया है। तीनों दिशाओं से आमी कटाई टीकर को दुख दे रही है। अमृत जैसी स्वच्छ और धवल आमी के चलते पहले इस गांव के हर घर में दूध की गंगा बहती थी। जबसे आमी को प्रदूषण का रोग लगा तबसे दूध का उत्पादन कम हो गया। यादव, ब्राह्मण, बेलदार, अनुसूचित जाति, कोइरी, केवट, गुप्ता और नाई समेत कई प्रमुख जातियों वाले इस गांव का सामाजिक ताना-बाना अभी बिल्कुल मजबूत है लेकिन नदी के प्रदूषित होने से सबका दुख एक हो गया है। 2000 में इस गांव में हीरा यादव प्रधान चुने गये थे। अगले चुनाव में यह सीट महिला के लिए आरक्षित हुई तो उनकी पत्नी रेशमा देवी प्रधान चुनी गयी। पर अब ग्राम सभा के कार्यक्रमों की देखरेख उनके पुत्र विजय बहादुर यादव करते हैं। सेण्टएण्ड्रयूज डिग्री कालेज से स्नातक विजय बहादुर यादव आमी की मुक्ति की लड़ाई में सक्रिय हो गये हैं। श्री यादव हैं कि इस गांव के लोग मुख्य रूप से गाय-भैंस पालकर दूध के कारोबार से अपनी जीविका चलाते थे लेकिन जबसे नदी दूषित हुई स्थिति बिगड़ गयी। अब नदी का पानी न तो पीने लायक है और न ही नहाने लायक। हालत यह है कि जिस कटाई टीकर गांव में पहले 6000 लीटर दूध का उत्पादन होता था वहां अब 2500 लीटर पर सिमट गया है। लोगों के रहन-सहन और दिनचर्या में आया बदलाव भी इसे बिल्कुल साफ कर देता है। 95 साल के खुट्टुर यादव पहले भैंस पालते थे। दिनेश यादव और बद्री यादव आठ से दस गाय-भैंस रखते थे। लेकिन अब उनके दरवाजे के सभी खूंटे उखड़ गये हैं। मिश्रौलिया के देवेन्द्र मिश्रा और ओमप्रकाश मिश्रा की सुने तो सबसे बड़ी दिक्कत तो नदी के दुर्गध की है। शाम होने के साथ ही बदबू का झोंका हर घर में घुस जाता है। किसी तरह लोग भोजन करते लेकिन रात को सो नहीं पाते। मच्छरों के हमले से सभी परेशान रहते हैं। कटाई टीकर गांव का पहले बड़ा नाम था। इस गांव के राम लखन यादव नामी गिरामी पहलवान थे। अखाड़े में उनकी कलाबाजी देखने के लिए लोग उमड़ पड़ते थे। चार-पांच साल पहले रामलखन यादव 105 साल की उम्र में मरे। गांव के लोग कहते हैं कि आमी के पानी की तासीर कुछ ऐसी थी कि यहां गठी हुई कद काठी के लोग पैदा होते। अब रामलखन यादव के गांव में नदी की धारा तो वैसे ही सलामत है लेकिन उसका अमृतत्व कहीं खो गया है। अपने आखिरी दिनों में रामलखन यादव आमी के प्रदूषण से बहुत बेचैन रहते थे। उनकी बेचैनी धीरे धीरे रंग ला रही है। गांव के नौजवान आमी को मुक्त करने के लिए संगठित हो गये हैं। आमी की लड़ाई को बल मिल रहा है और सभी एक स्वर से कहते हंै- हम आमी के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं।

बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं

यह कोई नयी बात नहीं है। हर साल ऐसा ही होता है। बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में योजनाओं के नाम पर मिले धन की बंदरबांट हो जाती है। पात्रों को उसका लाभ नहीं मिल पाता। इस सत्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गोरखपुर-बस्ती मण्डल में 1076250 बालिकाओं के ड्रेस के लिए 10.76 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गयी। पर बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं। बहुतों को ड्रेस मिला ही नहीं और जिन्हें मिला उन्हें भी इतना खराब कि सत्र बीतते बीतते उसकी सिलाई, बटन और हुक उखड़ गये। असल में प्रति ड्रेस 35 रुपये के हिसाब से आवंटित धनराशि में लगभग साढ़े 37 लाख रुपये साहबों की जेब में चले गये। नगर क्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय निजामपुर की बात हो या ग्रामीण क्षेत्र के गगहा विकास खण्ड के प्राथमिक विद्यालय बड़ैला की बात हो, यहां बेटियां नि:शुल्क ड्रेस पाने की उम्मीद में पूरा सत्र पार कर गयीं और उनकी हसरत उनके दिलों में ही रह गयी। सिर्फ इन्हीं दो विद्यालयों में नहीं बल्कि दोनों मण्डलों में ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जहां उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं। इसका अंदाज तो कक्षा पांच की दीपमाला, बबीता, कक्षा तीन की सुषमा और कक्षा दो की खुश्बू से बातचीत के बाद ही पता चलता है। मां-बाप की आर्थिक दुश्र्वारियों के बावजूद स्कूल की राह याद रखने वाली इन बेटियों के ख्वाबों को तिल तिल कर तोड़ा गया है। जिन स्कूलों में ड्रेस बंटे हैं उनकी हालत तो और बुरी है। पहली चीज तो यह कि अधिकांश विद्यालयों में दो तीन माह के अंदर ही ड्रेस वितरित किये गये हैं। कुछ जगह यह सिलसिला हाल तक चला है। पर जो कपड़े उन्हें दिये गये उनकी हालत खस्ता है। दो तीन धुलाई में कपड़े बदरंग हो गये हैं। सिलाई उघड़ने लगी है। बटन और हुक टूट रहे हैं। कपड़े की क्वालिटी तो पूछिये मत, स्कर्ट की सिलाई भी बेतरतीब हुई है। इसमें घेरे तक नहीं डाले गये हैं। प्राथमिक विद्यालयों के हेड मास्टर आहत हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि ड्रेस देने के नाम पर बालिकाओं को छला गया है। नगर क्षेत्र के एक प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका कहती हैं कि बीएसए दफ्तर का एक चपरासी ड्रेस देने वालों के साथ आ धमका और कहा कि बीएसए साहब का कहना है कि इन्हीं से ड्रेस लीजिये। ड्रेस खराब होने के बावजूद बीएसए दफ्तर के दबाव में ड्रेस लेना पड़ा। हर जगह यही हाल है। जहां ड्रेस लिये गये हैं वहां दबाव का असर है और जहां दबाव नहीं चला वहां अभी तक ड्रेस बंटे नहीं हैं। दरअसल ड्रेस वितरण के लिए निर्धारित शुल्क में ही सारा गोरखधंधा छिपा है। महंगाई के इस दौर में सौ रुपये में ड्रेस तैयार करना कठिन है। बालिकाओं के लिए डार्क ग्रे रंग की स्कर्ट और आसमानी रंग की टाप देने का निर्देश जारी हुआ। सौ रुपये में इनके कपड़े नहीं मिल सकते। पर जिन वितरकों से ड्रेस देने के लिए साहबों ने करार किया उनसे भारी कमीशन तय हुआ। सूत्र बताते हैं कि 65 रुपये प्रति ड्रेस के आधार पर यह सौदा तय हुआ और हर ड्रेस में साहबों ने 35 रुपये का कमीशन खा लिया। कमोवेश सभी जिलों का यही हाल रहा। बालिकाओं को ड्रेस देने के नाम पर इस तरह लगभग 37.66 हजार रुपये से अधिक साहबों के कमीशन के मद में चला गया। मतलब यहां एक तो करेला कड़वा दूजे नीम चढ़ा वाला मुहावरा चरितार्थ हो गया। ड्रेस के लिए पैसा कम मिला और ऊपर से उसमें भी कमीशनखोरी हो गयी।

बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं

यह कोई नयी बात नहीं है। हर साल ऐसा ही होता है। बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में योजनाओं के नाम पर मिले धन की बंदरबांट हो जाती है। पात्रों को उसका लाभ नहीं मिल पाता। इस सत्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गोरखपुर-बस्ती मण्डल में 1076250 बालिकाओं के ड्रेस के लिए 10.76 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गयी। पर बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं। बहुतों को ड्रेस मिला ही नहीं और जिन्हें मिला उन्हें भी इतना खराब कि सत्र बीतते बीतते उसकी सिलाई, बटन और हुक उखड़ गये। असल में प्रति ड्रेस 35 रुपये के हिसाब से आवंटित धनराशि में लगभग साढ़े 37 लाख रुपये साहबों की जेब में चले गये। नगर क्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय निजामपुर की बात हो या ग्रामीण क्षेत्र के गगहा विकास खण्ड के प्राथमिक विद्यालय बड़ैला की बात हो, यहां बेटियां नि:शुल्क ड्रेस पाने की उम्मीद में पूरा सत्र पार कर गयीं और उनकी हसरत उनके दिलों में ही रह गयी। सिर्फ इन्हीं दो विद्यालयों में नहीं बल्कि दोनों मण्डलों में ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जहां उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं। इसका अंदाज तो कक्षा पांच की दीपमाला, बबीता, कक्षा तीन की सुषमा और कक्षा दो की खुश्बू से बातचीत के बाद ही पता चलता है। मां-बाप की आर्थिक दुश्र्वारियों के बावजूद स्कूल की राह याद रखने वाली इन बेटियों के ख्वाबों को तिल तिल कर तोड़ा गया है। जिन स्कूलों में ड्रेस बंटे हैं उनकी हालत तो और बुरी है। पहली चीज तो यह कि अधिकांश विद्यालयों में दो तीन माह के अंदर ही ड्रेस वितरित किये गये हैं। कुछ जगह यह सिलसिला हाल तक चला है। पर जो कपड़े उन्हें दिये गये उनकी हालत खस्ता है। दो तीन धुलाई में कपड़े बदरंग हो गये हैं। सिलाई उघड़ने लगी है। बटन और हुक टूट रहे हैं। कपड़े की क्वालिटी तो पूछिये मत, स्कर्ट की सिलाई भी बेतरतीब हुई है। इसमें घेरे तक नहीं डाले गये हैं। प्राथमिक विद्यालयों के हेड मास्टर आहत हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि ड्रेस देने के नाम पर बालिकाओं को छला गया है। नगर क्षेत्र के एक प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका कहती हैं कि बीएसए दफ्तर का एक चपरासी ड्रेस देने वालों के साथ आ धमका और कहा कि बीएसए साहब का कहना है कि इन्हीं से ड्रेस लीजिये। ड्रेस खराब होने के बावजूद बीएसए दफ्तर के दबाव में ड्रेस लेना पड़ा। हर जगह यही हाल है। जहां ड्रेस लिये गये हैं वहां दबाव का असर है और जहां दबाव नहीं चला वहां अभी तक ड्रेस बंटे नहीं हैं। दरअसल ड्रेस वितरण के लिए निर्धारित शुल्क में ही सारा गोरखधंधा छिपा है। महंगाई के इस दौर में सौ रुपये में ड्रेस तैयार करना कठिन है। बालिकाओं के लिए डार्क ग्रे रंग की स्कर्ट और आसमानी रंग की टाप देने का निर्देश जारी हुआ। सौ रुपये में इनके कपड़े नहीं मिल सकते। पर जिन वितरकों से ड्रेस देने के लिए साहबों ने करार किया उनसे भारी कमीशन तय हुआ। सूत्र बताते हैं कि 65 रुपये प्रति ड्रेस के आधार पर यह सौदा तय हुआ और हर ड्रेस में साहबों ने 35 रुपये का कमीशन खा लिया। कमोवेश सभी जिलों का यही हाल रहा। बालिकाओं को ड्रेस देने के नाम पर इस तरह लगभग 37.66 हजार रुपये से अधिक साहबों के कमीशन के मद में चला गया। मतलब यहां एक तो करेला कड़वा दूजे नीम चढ़ा वाला मुहावरा चरितार्थ हो गया। ड्रेस के लिए पैसा कम मिला और ऊपर से उसमें भी कमीशनखोरी हो गयी।

गतिविधियों के जीवंत साक्षी परमानन्द


आनंद , gorakhpur

परमानंद जी गोरखपुर शहर के लिए गौरव की अनुभूति हैं। उनके बारे में कई तरह की बातें होती रहती हैं। दस फरवरी को उनका जन्म दिन है। गुजरे ९ फरवरी को जब देवेन्द्र आर्य ने दैनिक जागरण में उन पर एक ख़ास रपट लिखी तो ९ फरवरी को ही उनका जन्म दिन बता दिया। सुबह से ही परमानंद जी को बधाइयों का तांता लग गया। हमने भी फ़ोन किया तो फ़िर वे अपनी बात सुनाने लगे। उनके बारे कहते हैं कि बहुत आत्ममुग्ध रहते हैं लेकिन एक बात मैं महसूस करता हूँ कि वे दूसरों के लिए भी अच्छी भावना रखते हैं। उन पर देवेन्द्र आर्य ने जो रपट लिखी उसे हू हू प्रस्तुत कर रहा हूँ -

इसी 9 फरवरी को 75वें में प्रवेश करने वाले ख्यातिलब्ध आलोचक प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव जीवन के चौहत्तर वर्षो से लबालब भरे हैं। लगभग चार दशकों की कविता-कहानी-आलोचना की गहमागहमी; लेखन-सम्पादन; साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जीवंत साक्षी और नए रचनाकारों के संरक्षक-आलोचक, परमानन्द श्रीवास्तव से इस अवसर पर की गई बातचीत अपेक्षा के विरुद्ध देश में बढ रही आतंकवादी गतिविधियों से शुरू हुई। अभी मैं उन्हें कुछ कहता कि वे कहने लगे- साहित्य में बडा मुद्दा इस समय आतंकवाद है। होना चाहिए। आतंकवाद को वैश्विक परिघटना माना जा रहा है परन्तु वह जो हमारे भीतर है, साम्प्रदायिकता की तरह, उसका क्या होगा?.. उपभोक्ता संस्कृति; मोबाइल-कल्चर... स्वार्थ प्रबल हो गए हैं.. हमारे समय का एक वरिष्ठ साहित्यकार- आलोचक ऐक्टिविस्ट बुद्धिजीवी की तरह दौर-ए-हाजिर पर उद्वेलित था। मैंने अभी-अभी मन्नू भण्डारी को मिले व्यास सम्मान की ओर उनका ध्यान खींचा। [कृष्णा सोबती ने अस्वीकार किया, आपने स्वीकार किया और मन्नू जी ने अन्तत: मंजूरी दे दी व्यास सम्मान के लिए। आपकी प्रतिक्रिया?] अस्वीकार के पीछे कृष्णा सोबती की ठसक है। अपने से कम उम्र के लेखकों को मिल जाने के कारण उन्होंने पुरस्कार ठुकराया। उन्हें उनकी पुस्तक समय सरगम के लिए चुना गया था।.. लेखक को थोडा विनम्र भी होना चाहिए।.. मन्नू जी को बधाई! बात पुरस्कारों की इंटीग्रिटी पर छिडी तो परमानन्द जी कहने लगे- अब तो लेखक की इन्टीग्रिटी पर भी प्रश्नचिह्न है। सैनी अशेष के उपन्यास देवधरा का योगी के पात्रों और स्नोवा बार्नो के प्रकाशित उपन्यास अंश अंधकार के देहपर्व में आश्चर्यजनक रूप से समानता है। अनाशा, मध्या, उपांश, वे ही पात्र। स्नोवा ने मेरे पत्र के उत्तर में कहा कि वे सैनी के साथ सहलेखन कर रही हैं। पुरस्कारों में प्रविष्ट हो रही गुटबाजी और राजनीति से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु सबसे बावजूद अभी भी पाठक ही बडा है। वही किसी लेखक को बडा बनाता है। [परन्तु जनता के लिए लिखे गए साहित्य को जनता के बीच कितनी स्वीकृति मिल पा रही है?] देखो, यह सही है कि साहित्य में दिखावेबाजी बढ रही है और संवादधर्मिता लगातार कम होती जा रही है।.. मुझे लगता है बडे समारोहों से बचकर लेखकों की कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए। नए लेखकों से पुराने और पुरानों से नए सीखें-समझें।.. नएपन की उपेक्षा करना ठीक नहीं। [परमानन्द जी, क्या आपको नहीं लगता कि आलोचना की पाठ-प्रणाली और रचनाकार विशेष के लिए कसौटी विशेष की मांग साहित्यिक अराजकता का माहौल पैदा कर रही है। पैसा, पद, प्रतिष्ठा और पहुंच का साहित्यिक मूल्यांकनों में कितना हाथ होता है?] इस जलते प्रश्न ने परमानन्द जी को आलोचकीय-मूड में ला दिया।.. आलोचना पाठ केंद्रित ही हो यह मांग गलत है। पाठ से अधिक संदर्भ, परिवेश। पर्सनल इज पोलिटिकल के इस दौर में आलोचना को वैयक्तिक कर्म कह पाना कठिन है। प्रलोभनों से बचना होगा। आलोचना में नाम गिनाना व्यर्थ है। वह कैनन बनाती है तो प्रतिमानीकरण को चुनौती भी देती है। मा‌र्क्स ने सोशल सोल की बात कही थी.. तो आलोचना समाजशास्त्र हुए बिना भी सामाजिक संवेदनशून्य नहीं हो सकती। अब तक माहौल गरम हो चुका था और चाय ठण्डी। [कहीं यह कविता और आलोचना का सिम्बालिक फर्क तो नहीं है.. यदि छोडनी ही पडे तो कविता और आलोचना में कौन सी विधा बाद में छोडेंगे? .. छन्द तो आपने छोड ही दिए..] मैं बुनियादी तौर पर कवि हूं। कविता से ही आलोचना सर्जनात्मक बनी रह पाई है। कविता एक अनन्तकाल में विचरण करती है। वह विगत से भविष्य तक अनन्तयात्री बनी रहती है। कवि का अन्त:करण संक्षिप्त होगा तो वह न तो अच्छे गीत लिख सकेगा न श्रेष्ठ कविता। इन दिनों छन्द और छन्दहीन दोनों की अराजकता है। आज भी हम मायकोवस्की से, कबीर से, निराला से, सुकांत भट्टाचार्य से सीख सकते हैं। फिराक से भी। कुछ फिराक अपनी सुनाओ, कुछ जमाने की कहो।.. तो कविता आप बीती भी है और जगबीती भी। [डा. साहब, आप अपने पच्चासी के होने की कल्पना करें और बताएं कि आगामी दस वर्षो बाद कहानी-कविता की दुनिया में क्या-क्या संभावित है। आज के चर्चित हो रहे कवि-कथाकारों में से कितने अगले दशक में जा पाएंगे?] कविता का जहां तक सवाल है, गद्य के मुहावरे में लिखी जा रही कविता में ठहराव नजर आ रहा है। रघुवीर सहाय ने कहा था कि कविता में छंद आए मगर वर्तुल बनकर। कविता में ठहराव है, नकल है। मुझे लगता है कि असर जैदी की इधर लिखी कविताओं ने सादगी के सौन्दर्यशास्त्र को महत्व दिलाया है। दस वर्षो बाद प्रबंध भी लिखे जाएंगे शायद। वाजश्रवा के बहाने की तरह। विधाओं में लगातार तोड-फोड जरूरी है परन्तु तोड-फोड के बाद भी विन्यास जरूरी है। आप तोड के बना क्या रहे हैं, यह महत्व का है। लोक से जुडा कवि जिसमें अतीत और नवीनता में भेद नहीं होगा, वही दस वर्षो बाद ठहरेगा। लीलाधर जगूडी की तरह कविता को हमेशा जटिल बनाए रखने की प्रवृत्ति घातक है। कहानी में भी अल्पना मिश्र की तरह वे ही लोग आगे तक जा पाएंगे जिनमें भाषा को नई ऊंचाई और संस्कार देने का माद्दा होगा। कभी-कभी कृति अपने समय में गुम हो जाती है। जैसे संतोष चौबे का उपन्यास क्या पता कामरेड मोहन। इसे एक राजनैतिक उपन्यास की तरह देखा ही नहीं गया। रचनाकारों को वर्जित प्रदेश में प्रवेश करना होगा। चन्दन पाण्डे कल के मन्टो हो सकते हैं।.. .. हां, मैं बैठे ठाले भी बहुत कुछ पढ लेता हूं। महत्वपूर्ण संग्रह, किताबें एक बार में नहीं खुलतीं। कई बार पढता हूं। आस्वादपूर्वक। [हां, डा. साहब आपकी आलोचना का प्रस्थान बिन्दु ही रचना-आस्वाद है।.. आस्वाद, विश्लेषण और रेटिंग। कृति या कृतिकार अपने समय में कहां खडा है। आखिर क्यों अंशुल त्रिपाठी कवियों की गणना में नहीं हैं जबकि विवेक निराला को चर्चा मिली। तमाम बाते हैं।..] .. विषय-वैविध्य, भाषा का जादू और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति, यही कसौटी बनेगी, अगले दशक में जाने और ठहर पाने वाले कवियों-कथाकारों की। [और आलोचकों की कसौटी?] सब एक ही दिन क्या। [प्रमुख प्रकाशित कृतियां] [कविता संग्रह:] उजली हंसी के छोर पर (1960), अगली शताब्दी के बारे में (1981), चौथा शब्द (1993), एक अनायक का वृतांत (2004) [कहानी संग्रह:] रुका हुआ समय (2005), नींद में मृत्यु (यंत्रस्थ) [आलोचना:] नई कविता का परिप्रेक्ष्य (1965), हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया (1965), कवि कर्म और काव्यभाषा (1975), उपन्यास का यथार्थ, रचनात्मक भाषा (1976), जैनेन्द्र के उपन्यास (1976), समकालीन कविता का व्याकरण (1980), समकालीन कविता का यथार्थ (1980), शब्द और मनुष्य (1988), उपन्यास का पुनर्जन्म (1995), कविता का अर्थात (1999), कविता का उत्तरजीवन (2005) [डायरी:] एक विस्थापित की डायरी (2005) [निबंध:] अंधेरे कुएं से आवाज (2005) -[देवेन्द्र आर्य]
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