8 मई 2009

नंदन जी का बड़प्पन


आनंद राय, गोरखपुर

वैसे तो नंदन जी को बहुतों बार सुना और देखा लेकिन जब उन्हें सीधे देखना था यानि ख़ुद अपनी बात करनी थी तब हिम्मत नही पडी। उन दिनों मैं सन्डे मेल अखबार से जुड़ा था। लखनऊ में मुरली भवन में आफिस था। राम दत्त त्रिपाठी जी ने कहा दिल्ली जा रहे हो तो नंदन जी से मिल लेना। मैं आज भी रामदत्त जी की चिट्ठी रखा हूँ क्योंकि नंदन जी से मिल नही पाया। रामदत्त जी अब बी बी सी में आ गए हैं और मैं अपनी रोजी में उलझ गया हूँ लेकिन सच कहूं तो कुछ पैसो के लिए लिखे गए एक बड़े मजमून को मैंने वक्त के लिए रख लिया। नंदन जी ने पता नही किस भाव में अर्जुन सिंह पर एक किताब लिखी और वह विवादित हो गयी वरना उन्होंने ठोंक बजा कर लिखने की नसीहत दी है- मैं उनका आभारी हूँ और जीवन भर रहूँगा। जीवन की जिस बेला में मेरी बातें भी स्तम्भ बनेगीं मैं उन दिनों उनका बड़प्पन लिखूंगा ताकि लोग उसे याद रखें। यहाँ विज्ञान का एक लेख प्रस्तुत है-

वरिष्ठ कवि, सिद्धहस्त लेखक और विख्यात पत्रकार कन्हैयालाल नंदन की जीवन यात्रा फतेहपुर [उत्तर प्रदेश] जिले के छोटे से गांव से शुरू होकर कानपुर, इलाहाबाद और मुंबई से गुजरती हुई अब दिल्ली में आकर ठहरी है। आत्मकथा लेखन की बनी बनाई परंपरा का उल्लंघन करते हुए नंदन जी ने अपनी आत्मकथा कहां कहां से गुजर गया में तारीखों से पूरी तरह बेखबर रहकर अपनी जिंदगी की रहगुजर को बयान किया है। उससे उपजे सवालों को लेकर पिछले दिनों विज्ञान भूषण ने उनसे मुलाकात की, प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश-
[अपनी आत्मकथा में आपने किस वजह से घटनाओं और संस्मरणों को अधिक महत्व दिया है जबकि घटना से जुडी तारीखों का जिक्र नहीं है?]
मेरे जीवन में घटित सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र मैंने इस पुस्तक में किया है। किस तारीख को यह घटना घटित हुई इससे पाठकों को क्या फर्क पडेगा? मैंने इसमें स्वीकार किया है कि मुझे अपनी जन्मतिथि, दिन और नक्षत्र के बारे में ठीक से नहीं मालूम है, इसीलिए मेरी कुंडली भी नहीं है। अब इसका ये मतलब तो नहीं है कि मेरा जन्म ही नहीं हुआ। किसी भी घटना का मेरे मन पर क्या प्रभाव पडा, उसकी क्या प्रतिक्रिया हुई, पाठकों के लिए यह अधिक महत्वपूर्ण है।
[आपने इसी पुस्तक में लिखा है कि प्रेम कभी-कभी स्वयं को उग्र और हिंसक रूप में भी प्रकट करता है तो क्या भारती जी का प्रेम भी आपके प्रति कुछ इसी तरह का था?]
हां, ये हो सकता है। पर उनका व्यवहार कभी-कभी इतना निष्करुण हो जाता कि मैं सहन नहीं कर पाता था। दरअसल, वे प्रेम भी सतर्कता के साथ करते थे। एक बार उन्होंने लक्ष्मीचंद्र जैन को पत्र में लिखा कि- नंदन, अब विश्वास के काबिल नहीं रह गया है। तो दूसरी तरफ जब मैं धर्मयुग छोडकर संडेमेल से जुडा तो उसके अंकों की भरपूर प्रशंसा करते हुए कहते थे- नंदन, जो कुछ भी करता है उसे देखकर मेरी छाती गर्व से फूल जाती है। उनका ये दोहरा प्रेम और रहस्यमयी प्रेमाभिव्यक्ति को मैं कभी नहीं समझ पाया। उनके लिए बस यही कहना चाहूंगा- जब कभी धूप की शिद्दत ने सताया मुझको, याद आया बहुत इक पेड का साया मुझको।
[क्या किशोरावस्था में जिस लडकी को आपने गांव की नदी में तैरना सिखाया उसके प्रति या गांव में ही रहने वाली रूपजीवी की बेटी मानकुंवर के प्रति उत्पन्न लगाव को ही आप अपने जीवन का प्रथम प्रेमानुभव मानते हैं?]
प्रेम का अनुभव हर किसी को नया सबक सिखाता है। हालांकि गांव की उस लडकी या फिर मानकुंवर के प्रति मेरे मन में जो हुआ उसे मैं प्रेम नहीं मानता, लेकिन उस अनुभव से यह सबक मिला कि मेरा दरिया तो कहीं और है, जहां डूबकर मुझे आगे जाना है। मुझे डूबना तो कबूल है पर उथले पानी में डूबना नाकाबिल ए बर्दाश्त रहा है।
[बगैर प्रेम किया गया विवाह कहां तक उचित है? जिसके संग आपका विवाह हुआ क्या उनके प्रति आपके मन में पहले से ही कोई प्रेम भाव था?]
जिसके संग विवाह हो उसके प्रति प्रेम का होना सबसे आवश्यक है। रामावतार चेतन जी से मेरे घनिष्ठ संबंध थे। मेरी पत्नी उन्ही की बहन हैं। दरअसल, उनके घर में सभी के साथ मेरा जुडाव हो गया था। और धीरे-धीरे मन में उनके प्रति प्रेम घना होता गया। चेतन जी से विवाह की अनुमति मांगने पर पहले तो उन्होंने धैर्य रखने को कहा और विचार करते रहे, बाद में विवाह की अनुमति दे दी।
[आत्मकथा लेखन में सच्चाई, पूरी ईमानदारी और साहित्यिक मर्यादा का पालन करना किसी लेखक के लिए कितना आवश्यक है?]
आत्मकथा लेखन में ईमानदारी तो बुनियादी चीज है। एक ही घटना के बारे में सच के स्वरूप अलग-अलग कोणों से भिन्न नजर आते हैं। अपने जीवन में शामिल किन प्रसंगों को देना है किसे नहीं, यह पूरी तरह लेखक पर निर्भर करता है। मैं समझता हूं कि लेखक के जीवन में घटित किसी घटना या संस्मरण का अगर कोई सामाजिक महत्व न हो तो उसे लिखना व्यर्थ है।
[व्यक्ति को किसी न किसी स्तर पर समझौता करना पडता है। ऐसे किसी अनुभव से क्या आप भी रूबरू हुए?]
मेरा मानना है कि जिंदगी का दूसरा नाम ही समझौता है। अगर किसी बडे उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आपको कुछ समझौते करने पडते हैं तो उसमें कोई बुराई नहीं है। हां ये जरूर है कि समझौता करने की सीमारेखा आपको स्वयं निर्धारित करनी पडती है। आपका विवेक हमेशा आपके साथ रहना चाहिए।
[आजकल मीडिया ने भाषा [विशेषकर हिंदी] के व्याकरण को तहस नहस करने का जो दुष्चक्र रचा है उससे बचने के लिए क्या करना चाहिए?]
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया ने ही पहले ऐसी व्याकरणहीन [कहना चाहिए आत्माहीन] भाषा को ईजाद किया। अब ये भी आरोप लगाया जाता है कि लोग ऐसी ही भाषा चाहते हैं। लोगों के मन में भाषा के प्रति जागरुकता समाप्त होती जा रही है। कुछ हद तक इसके लिए हमारी शिक्षा प्रणाली भी दोषी है। त्रिभाषा फार्मूला कारगर हो सकता है। अंग्रेजी का दखल हर भाषा के लिए खतरनाक है।
[क्या आप मानते हैं कि साहित्यिक विमर्शो से स्त्री या फिर दलितों की सामाजिक स्थिति में कुछ सुधार हो सकता है?]
साहित्य में ऐसे विमर्शो से लोगों का ध्यान उपेक्षित वर्ग की तरफ जाता है। जागरुकता भी बढती है यानी इस तरह के विमर्श समाज में दलितों और स्त्रियों की स्थिति को समझने में सहायक हो सकते हैं। लेकिन विमर्श के मूल उद्देश्य को भूलकर मात्र नारेबाजी या झंडाबरदारी करना या इनकी आड में अपने निजी हित को साधने के लिए आपस में द्वंद्व करना पूरी तरह से दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित है साथ ही इससे साहित्यिक गरिमा को भी आघात पहुंचता है।
[विज्ञान भूषण]

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