31 अक्तू॰ 2009

बजरंगी की गिरफ्तारी का सूत्रधार बबलू तो नहीं !

आनन्द राय , गोरखपुर।



      प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी की गिरफ्तारी सुनियोजित है या दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की विशेष रणनीति का हिस्सा? यह बहस जरायम की गलियों में गरम है। अंदेशा है कि ओमप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू ही मुन्ना बजरंगी की गिरफ्तारी का सूत्रधार है। पहले भी उसने पुलिस और अपने हक में ऐसे कई कारनामे अंजाम दिये हैं। फजलुर्रहमान की गिरफ्तारी इसका उदाहरण है।



दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने मुम्बई में बहुत ही आराम से मुन्ना बजरंगी को गिरफ्तार किया तो लोग विस्मित रह गये। इतने बड़े अपराधी की गिरफ्तारी में न कहीं धुआं उठा और न कहीं बारूदी गंध आयी। पहले भी ऐसा हुआ जब भुवनेश्वर में माफिया ब्रजेश सिंह की गिरफ्तारी हुई तो सिर्फ हाथापाई हुई। फजलुर्रहमान की गिरफ्तारी में भी इसी तरह की नौटंकी निकली। फजलुर्रहमान की गिरफ्तारी में तो साफ-साफ बात उठी कि वह ओमप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू के ताने बाने में उलझ गया।




बरेली जेल में बंद डॉन बबलू ने अपने करीबी फजलुर्रहमान को इसलिए गिरफ्तार कराया क्योंकि वह दाऊद के कहने पर बबलू की हत्या के लिए प्रयासरत था। बबलू को यह खबर तब मिली जब लखनऊ पुलिस ने 24 नवंबर 2005 को बैंकाक में छोटा राजन पर हमला करने वाले नूरबख्श को पकड़ा। नूरबख्श लखनऊ जेल पहुंचा तो बबलू से डरा हुआ था। बबलू ने उसे अभयदान का ड्रामा किया। बदले में नूरबख्श ने बबलू के सामने कुछ राज उगल दिये। उसी ने बबलू को फजलू के प्रति आगाह किया था। सूत्र बताते हैं कि बबलू ने बरेली जेल में रहते हुए दिल्ली पुलिस के एक अफसर तक सूचना भेजी और फजलुर्रहमान की गिरफ्तारी का ताना बाना बुना। बबलू ने एक बड़े कारोबारी के अपहरण के लिए फजलू को सूचना भेजी और उसे काठमाण्डू से सोनौली बुलवाया जहां से उसे पुलिस ने उठा लिया।
ध्यान रहे, दिल्ली पुलिस के एसीपी संजीव यादव ने ही फजलुर्रहमान को गिरफ्तार किया था। उन्होंने ही मुन्ना बजरंगी को भी गिरफ्तार किया। मुन्ना बजरंगी के तार पहले से ही बबलू से जुड़े हैं। संजीव की ही टीम ने ब्रजेश सिंह को भी गिरफ्तार किया।



मुन्ना की गिरफ्तारी से माननीयों की नींद उड़ी




मुन्ना बजरंगी की गिरफ्तारी से उसके दुश्मनों और सताये गये बड़े कारोबारियों ने भले ही राहत की सांस ली है लेकिन कुछ माननीयों की नींद उड़ गयी है। यूपी पुलिस उसे रिमाण्ड पर लेगी, यह सोच कर वे परेशान हैं। 11 सितंबर 1998 को जब दिल्ली में मुठभेड़ के बाद मुन्ना बच निकला, तब गोलियां लगने की वजह से उससे बहुत पूछताछ नहीं हो पाई। 28 मई 2001 को वह जमानत पर रिहा हुआ और फिर पुलिस की पकड़ में नहीं आया। इस दौरान नेपाल के एक पूर्व मंत्री से लेकर पूर्वाचल के कई प्रमुख लोगों से उसके अच्छे रिश्ते बने। जाहिर है कि पुलिस उससे इस सच को उगलवाने की कोशिश करेगी।

30 अक्तू॰ 2009

मुन्ना बजरंगी ने दे दी थी यमराज को भी मात

आनन्द राय , गोरखपुर  29 अक्टूबर।




 देश भर की पुलिस के लिए सिरदर्द बने मुन्ना बजरंगी की गिरफ्तारी ने अण्डरव‌र्ल्ड की हलचल तेज कर दी है। सवालों का सिलसिला चल पड़ा है। अण्डरव‌र्ल्ड में अपनी मजबूत पकड़ बना चुके इस अपराधी के बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि महज 15 साल की उम्र में उसने अपराध की राह पकड़ ली थी। यही नहीं मुठभेड़ में गोली खाने के बाद भी वह जिंदा बच गया।  उसने यमराज को भी मात दे दी .

     जौनपुर जिले के सुरेरी थाना क्षेत्र के पूरे दयाल कसेरू गांव के पारसनाथ सिंह के बेटे मुन्ना बजरंगी और उसके साथियों ने 29 नवम्बर 2005 को गाजीपुर जिले में मोहम्मदाबाद क्षेत्र के विधायक कृष्णानन्द राय की हत्या की तो उसका नाम सुर्खियों में आ गया। इसके बाद उसने नेपाल में एक पूर्व मंत्री के घर शरण ली। इस दौरान कई बार उसके गोरखपुर में होने की खबर मिली। एक बार सहजनवा में वह पुलिस के हाथ से बच निकला। आपराधिक सफर में मुन्ना के इतने किस्से हैं जिनके लिए पन्ने कम पड़ जायेंगे। एक बार तो यमराज को भी धता बताकर वह वापस लौट आया। इण्टरस्टेट गैंग नम्बर 233 के सरगना और पांच लाख रुपये के इस इनामी अपराधी को दिल्ली पुलिस ने समय बादली थाना क्षेत्र में 11 सितम्बर 1998 को एक मुठभेड़ में मार गिराने का दावा किया था। मुन्ना की मौत की खबर भी प्रसारित हो गयी। पर अस्पताल पहुंचा तो उसकी सांसें चलती मिली।



जौनपुर जिले के सुरेरी थाने में पहली बार 1 जनवरी 1982 को उस पर मुकदमा दर्ज हुआ। यह मारपीट का मुकदमा था और तब वह महज 15 साल का था। बेहद गरीबी में अपनी जिंदगी की शुरूआत करने वाले मुन्ना ने भदोही के कालीन व्यापारियों के यहां मजदूरी की। जब अपराध में उसका दबदबा बढ़ा तो वही व्यापारी के उसके फाइनेंसर और संरक्षण दाता हो गये। मुन्ना ने क्षेत्र के टपोरियों के साथ मिलकर गैंग बनाया और बाद में माफिया विधायक मुख्तार अंसारी तक पहुंच गया। 1984 में जौनपुर जिले के रामपुर थाना क्षेत्र में मुन्ना ने एक व्यक्ति की हत्या कर लूटपाट की। फिर वह लापता रहा। मिर्जापुर से लेकर बनारस तक घूमता रहा। 1993 में उसने ब्लाक प्रमुख रामचन्द्र सिंह की हत्या कर दी और उनके असलहे लेकर भाग गया। 1995 में मुन्ना ने वाराणसी के कैण्ट थाना क्षेत्र में दो लोगों की हत्या कर सनसनी फैला दी। 24 जनवरी 1995 को उसने अपने जिले के जमलापुर गांव में ब्लाक प्रमुख कैलाश दुबे की हत्या कर दी। इसके बाद उसका सिक्का जम गया। वाराणसी के लंका थाना क्षेत्र में काशी विद्यापीठ छात्रसंघ के अध्यक्ष रामप्रकाश पाण्डेय और पूर्व अध्यक्ष सुनील राय समेत चार लोगों की हत्या के बाद तो उसके दहशत की तूती बोलने लगी।



गौर करें तो पूर्वाचल की जड़े मुम्बई में बहुत गहरी हैं। मुन्ना ने भी इन जड़ों से जुड़कर मुम्बई की राह पकड़ ली। वह मुम्बई में गुजरात के ड्रग माफिया अनिरूद्ध जडेजा के सम्पर्क में आया। इसके बाद तो मामूली पढ़ा लिखा मुन्ना हाईटेक हो गया। विदेशी असलहों के साथ दिल्ली, मुम्बई, गुजरात, कर्नाटक, मंगलौर, इंदौर, भोपाल जैसे इलाकों को उसने अपनी आपराधिक गतिविधियों का केन्द्र बना लिया। ठेके पर हत्या करना उसका सबसे बड़ा कारोबार बन गया। 1998 में जब पुलिस मुठभेड़ में उसके मारे जाने की खबर आयी तो लोगों ने राहत की सांस ली लेकिन राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंच कर जब उसने आंखें खोल दी तब उसके शातिर होने का लोगों को अहसास हुआ। फिर वह कई साल जेल में रहा। 28 मई 2001 को मुन्ना जमानत पर रिहा हुआ। तबसे फिर कभी पुलिस की पकड़ में नहीं आया। वर्ष 2002 के जनवरी माह में उसने रंगदारी वसूलने के लिए वाराणसी जिले के दशाश्वमेध थाना क्षेत्र के केसरी रेस्टोरेंट के मालिक सुरेश शाहू समेत दो लोगों को भून दिया। फिर 29 नवम्बर 2005 को उसने विधायक कृष्णानन्द राय को मारा।


बजरंगी को मिली थी सलेम की सुपारी


गोरखपुर। अबू सलेम की जब पुर्तगाल में गिरफ्तारी हुई और उसे भारत लाया गया तब डी कम्पनी ने उसे रास्ते से हटाने की ठान ली। पूर्वाचल के शूटरों के बल पर अपना सब काम कराने वाले दाऊद इब्राहीम ने मुन्ना बजरंगी को आपरेशन सलेम का ठेका सौंपा। बजरंगी ने सलेम को रास्ते से हटाने की योजना बनायी तब तक उसे दूसरी चुनौती मिल गयी।



कृष्णानन्द का कत्ल आपरेशन सलेम का पूर्वाभ्यास था


गोरखपुर। विधायक कृष्णानन्द राय का कत्ल आपरेशन सलेम का पूर्वाभ्यास था। कड़ी सुरक्षा के बीच बड़ी वारदात को अंजाम देने के लिए मुन्ना ने अपने साथियों संजीव माहेश्वरी उर्फ जीवा, कृपा , नौशाद, फिरदौस जैसे कई अपराधियों का गठजोड़ किया और एक कार्यक्रम से लौट रहे कृष्णानन्द राय पर गोलियों की बौंछार कर दी।


पुलिस की आंखों में झोंकता रहा धूल

गोरखपुर। मुन्ना बजरंगी ने कई बार पुलिस की आंखों में धूल झोंका। अपनी पहली पत्नी को छोड़ चुके मुन्ना ने सुल्तानपुर जिले में एक बड़े अपराधी की बहन से शादी की। उसकी स्मार्ट पत्‍‌नी भी उसके धंधे को चमकाने में सक्रिय रहती है। उसने अपने एक साले की शादी लखनऊ में धूमधाम से की। पहले उसने पुलिस को खुद गलत सूचना दिलवायी और जिस होटल का पता दिया वहां पुलिस झक मारती रही। मुन्ना ने शादी का इंतजाम दूसरी जगह करा दिया।

ब्रजेश गैंग के समानांतर खड़ा हो गया मुन्ना

गोरखपुर। उत्तर प्रदेश में जरायम के सबसे बड़े बादशाह ब्रजेश सिंह को मुन्ना ने हमेशा चुनौती दी। मुन्ना ने जिन पर निशाना साधा उनमें ज्यादातर लोग ब्रजेश के मददगार थे। ब्रजेश के जेल में जाकर सुरक्षित होने के बाद से ही इस बात के कयास लग रहे थे कि अब मुन्ना भी खुद को सुरक्षित करेगा।



बबलू ने भी मुन्ना की जान बचाने में की मदद

गोरखपुर। माफिया डान ओमप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू ने भी मुन्ना की जान बचाने में मदद की। तब जब 11 सितम्बर 1998 को मुन्ना को मारा गया था तब ब्रजेश दाऊद गैंग से जुड़ा था और मुन्ना ने छोटा राजन का काम संभाल लिया था। छोटा राजन के कहने पर नैनी जेल में बंद बबलू ने दिल्ली में अपने लोगों को मुन्ना की मदद के लिए लगाया था। यह बात बहुत लोग जानते हैं कि नैनी जेल में बबलू फोन का खूब दुरुपयोग करता था। इसी आरोप में एक जेल अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई भी हुई।

27 अक्तू॰ 2009

आमी तट पर मिली थी आईएनए के खुफिया चीफ को पनाह

आनन्द राय, गोरखपुर




आमी तट के नगरी कालिका में आजाद हिन्द फौज के खुफिया चीफ एस.एन. चोपड़ा की याद गूंजती है। आजादी की लड़ाई में फरारी के दिनों में इस तट पर उन्हें पनाह मिली थी। यहां रहते हुये डेढ़ साल बाद वे पकड़ लिये गये। उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी। तब तक देश आजाद हो गया। छूटकर लौटे तो पुन: यहीं आये और आठ साल रहे। इस दौरान उन्होंने विकास के नये मार्ग प्रशस्त किये और किसानों को श्रमदान के लिए prerit   किया।

   आमी बचाओ मंच ने एस.एन. चोपड़ा की यादों को सजीव करने का निर्णय लिया है। इलाके के पुराने लोगों को नवरात्र के इस मौसम में एस.एन. चोपड़ा की खूब याद आती है। इस सीजन में हर साल वे एक बड़ा भोज करते थे और उनके द्वारा स्थापित रमण आश्रम में भारी संख्या में लोग जुटते थे। रमण आश्रम तो अब भी मौजूद है लेकिन वहां गायत्री परिवार के लोग रहते हैं। उनकी याद में अब कोई आयोजन नहीं होता पर उनके बारे में किस्से तो खूब गूंजते हैं। यहां उनका खड़ाऊं, उनकी तस्वीर और उनके हाथ का लिखा अंतिम पत्र उनकी स्मृतियों का गवाह है।

           आमी बचाओ मंच के अध्यक्ष विश्र्वविजय सिंह का कहना है कि हम एस.एन. चोपड़ा की याद में एक समारोह आयोजित करेंगे और उनके कृत्यों से आमजन को अवगत कराकर आमी के प्रति संवेदनशील बनायेंगे। औद्योगिक इकाइयों के अपजल से प्रदूषित हो चुकी आमी नदी की मुक्ति के लिए चल रहे इस संघर्ष को बल देने के लिए आमी से जुड़ी महत्वपूर्ण यादों को मूर्त रूप दिया जायेगा। इसकी पहली कड़ी में चोपड़ा के कृत्यों पर नाटक और विमर्श आयोजित किये जायेंगे।
      
        बताते हैं कि एस.एन. चोपड़ा आजाद हिन्द फौज की खुफिया शाखा के चीफ थे। उनको अंग्रेजी हुकूमत तलाश रही थी। एक दिन वे हवाई मार्ग से पैराशूट के जरिये आमी नदी में कूद गये। आमी तट पर उन्हें पनाह मिली। लगभग डेढ़ साल तक वे ताल अमियार के नगरी कालिका भदेसर बाबा की छावनी में रहने लगे। तभी अंग्रेजों को उनकी भनक लग गयी। 1946 में श्री चोपड़ा गिरफ्तार कर लिये गये। उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी। इस दौरान देश आजाद हो गया। चोपड़ा छूट गये। फिर आमी के तट पर ही लौटे। आमी की अमृत धारा ने उन्हें बांध लिया।


          तुलसिहवा पोखरा पर 1948-49 में उन्होंने रमण आश्रम की स्थापना की। किसानों को जागरूक किया। बांसगांव-कुसमौल मार्ग श्रमदान से बनवा दिया। आठ साल तक वे यहां रहे और इस दौरान किसानों के लिए कृषि रक्षा समिति जैसे कई संगठन भी बनाये। सत्तर साल से अधिक उम्र के पूर्व ब्लाक प्रमुख चतुर्भुज सिंह को एस.एन. चोपड़ा बहुत याद आते हैं। श्री सिंह बताते हैं कि चोपड़ा जी जब यहां से गये तो भी बहुत दिनों तक सम्पर्क बना रहा। कांगड़ा के रहने वाले थे और वहां जाकर जल समाधि ले लिये। भदेसर बाबा की छावनी से जब गिरफ्तार किये गये तब इलाके के लोग खूब रोये। छूटकर आये तो एक बड़ा जुलूस निकला और जिन लोगों पर अंग्रेजों से मुखबिरी करने का शक था उनके घरों तक जाकर नारे लगाये गये। श्री सिंह बताते हैं कि चोपड़ा जी देश स्तर का दंगल कराते थे और हाकी, बालीबाल जैसे खेलों का भी आयोजन करते थे।

23 अक्तू॰ 2009

अभी तक कुंवारे हैं सुशील राजपाल

आनन्द राय, गोरखपुर
  


      

अंतर्द्वंद को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला तो रातो रात सुशील राजपाल सुर्खियों में आ गए. इस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर, निर्माता, निर्देशक और कहानीकार सब कुछ वही हैं.  इसके पहले उन्होंने अपने कैमरे में यश चोपडा की <लागा चुनरी में दाग> कैद की. यश चोपडा ने ही नहीं बल्कि बहुत से लोगों ने कहा कि इस फिल्म में बनारस को जितनी खूबसूरती से सुशील ने कैद किया उतना खूबसूरत बनारस कभी भी फिल्माया नहीं गया. अंतर्द्वंद बिहार की एक ख़ास विषय वस्तु को लेकर बनायी गयी फिल्म है. यह फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई है. असल में बिहार में जो लड़के पढ़ लिख कर कुछ बन जाते उन्हें बन्दूक के जोर पर पकड़ लिया जाता और उनसे बेटी व्याह दी जाती. कुछ लोग हालत के चलते इसे स्वीकार कर लेते. कुछ संघर्ष करते हैं. बहुतों की उम्र कोर्ट कचहरी के चक्कर में निकल जाती है. सुशील ने इसे देखा है. करीब से महसूस किया तो  खुद उसकी कहानी लिख बैठे. पर आप सब जानिए कि ९ अगस्त १९६२ को जन्मे सुशील अभी तक कुंवारे हैं. जब हमने उनसे इसका राज पूछा तो कहने लगे कि बहुत समय तक हास्टल में रहा इसलिए बैचलर रहने की आदत पड़ गयी. वे अपने इस निजी मामले को समाज से भी जोड़ते और कहते हैं कि मैं गृहस्थी के जाल में न उलझ कर  समाज के लिए कुछ करना चाहता हूँ. पर अपने माँ बाप और भाई के प्रति बेहद संवेदनशील हैं. कहते हैं कि परिवार के  उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता.
                      सुशील राजपाल बहुत समय तक रांची और फिर दिल्ली के हंसराज कालेज में पढ़े और हास्टल में रहे. गोरखपुर के होने की वजह से बिहार के लोगों से उनकी खूब दोस्ती हो गयी. वैसे भी उनके हास्टल में अस्सी फीसदी बिहार के ही लोग थे. बिहार में उनके एक दोस्त के भाई को पकड़ कर जबरन शादी कर दी गयी. इस विषय को उठाते हुए उन्होंने कानूनी दांव पेंच का अध्ययन किया.अंतर्द्वंद फिल्म में कई ऐसे कलाकार हैं जो बिहार की पृष्ठभूमि के हैं और सुशील से उनकी दोस्ती है इसलिए उन लोगों ने पैसे नहीं लिए. सुशील इस फिल्म को पहले गोरखपुर में शूट करना चाहते थे मगर उन्हें जो लोकेशन चाहिए उसके लिए काफी पैसा लगता. सरकारी सेवा छोड़कर समाज के लिए कुछ ख़ास कर रहे बिहार के उनके मित्र राजीव द्विवेदी ने शूटिंग के लिए अपना घर दे दिया. सुशील के लिए बिहार में शूटिंग करना किसी अंतर्द्वंद से कम नहीं था. बिहार के प्रति उनका अपना नजरिया तो बेहद साफ़ था लेकिन उनकी टीम में जो लोग बिहार के बाहर के थे, थोडा हिचकिचा रहे थे. गोरखपुर में डाक्टर रजनीकांत के घर पर ही इस फिल्म के निर्माण का निर्णय हुआ था सो उन्ही के घर नवाब काटेज का नाम बैनर पर दिया गया. वहीं पक्का निर्णय हुआ कि हर हाल में शूटिंग बिहार में होगी और कलाकारों को बिहार जाने के लिए आश्वस्त किया गया. अखिलेन्द्र मिश्रा, स्वाती सिंह जैसे  कलाकारों को लेकर फिल्म शुरू हुई तो महंगे कलाकार विनय पाठक भी सुशील की दोस्ती में इससे जुड़ गए. उन्हें उनके बहुत से दोस्तों ने सपोर्ट किया.
            सुशील यह फिल्म बना रहे थे तो उनके पास पैसा नहीं था लेकिन पैसे की कमी आड़े नहीं आयी. इस मसले को अपनी जिन्दगी में वे उतना अहम् मानते भी नहीं हैं. उन्होंने पूछने पर कहा कि पैसे लेकर तो बहुत से लोग दौड़ रहे हैं और मेरे साथ काम करना चाहते हैं लेकिन मैं खुद की लिखी हुई कहानी पर ही कुछ बेहतर करने की सोचता हूँ. उनके पास चार पांच ऐसे विषय हैं जिनको अभी किसी ने छुआ नहीं है. इसे वे एक मुकम्मल रूप देने का इरादा रखते हैं. मैंने पूछा कि आपकी जिन्दगी में सबसे बड़ी चुनौती क्या लगती है. कहने लगे कि यार शुरुआत में ही इतना बड़ा सम्मान मिल गया तो अब चुनौती तो ज्यादा बढ़ गयी है. मुझसे लोगों की उम्मीद बढ़ गयी है. पहले से बेहतर काम करने पर ही मुझे और मेरे प्रशंसकों को संतोष मिलेगा. सुशील अभी जमीन पर हैं. यह मेरा निजी ख्याल है क्योंकि कई लोगों को मैंने सफलता मिलने के बाद आसमान में उड़ते और फिर गिरते देखा है. इस विषय को टच करने पर वे सीधे कहते हैं कि हमें वही लोग पसंद हैं जिनके साथ काम करते हुए मुझे कोई असुविधा न हो. मतलब बिलकुल साफ़ है- वे फिल्मी दुनिया के नाज नखरे उठाने को तैयार नहीं है. वे सहज भाव में अपने काम को गति देना चाहते हैं. इसीलिये साफ़ कहते हैं कि कला मेरा शौक है और यही मेरी जिन्दगी है. अपनी कला के जरिये समाज की उस खामोशी को तोड़ना चाहते हैं जो ठहरी हुई है. जो सडांध बन गयी है. एक हलचल पैदा करके जागृति लाने का उनका इरादा है. उन्हें कोई आकर्षित नहीं करता है. पर सबकी कोई न कोई चीज अच्छी लगती है. मैंने उसे कुरेदते हुए कई बार पूछा कि आपके माडल कौन हैं. उन्होंने एक बार हंसते हुए कहा मैं तो रजनीकांत को भी कई मामलों में माडल मानता हूँ. रजनीकांत माने उनके बचपन के दोस्त. गोरखपुर में पेशे से चिकित्सक हैं लेकिन कला में गहरी रूचि है. सुशील को अवार्ड मिला तो दिल्ली गए थे. जिस शाम लौटे तो एयर पोर्ट से सीधे आकर क्लीनिक में बैठ गए. सुशील से मेरी बात उनकी क्लीनिक से बजरिये दूरभाष हो रही थी.

   सुशील के लिए गोरखपुर के बहुत से लोगों में बेचैनी है. उनके करीबी लोगों में दैनिक जागरण के मुख्य छायाकार डाक्टर राजीव केतन हैं. राजीव ने हमसे उनके गुणों के बारे में बताया. उनके घर पर पिता हंसराज राजपाल, माँ परमेश्वरी राजपाल, भाई सुरेन्द्र राजपाल, भाई की पत्नी स्नेहा राजपाल और सात साल की बेटी ताशा राजपाल और तीन साल का बेटा वीर राजपाल रहते हैं. परमेश्वरी राजपाल और और उनके पति उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं. उनकी देख रेख में कोई कमी नहीं है लेकिन सुशील हर तीसरे माह आते हैं. उनके आने के साथ ही सिंधी कालोनी गुलजार हो जाती. पुराने सभी दोस्त खूब मस्ती करते हैं. तीन साल का वीर मोहल्ले के  साथियों में अपने बड़े पापा का नाम लेकर रोब  गालिब करता तो ताशा भी स्कूल में सुशील की चर्चा करना नहीं भूलती. असल में सुशील मानवीय मूल्यों को सहेजने में लगे हैं और इसकी हिफाजत के लिए अपने घर- परिवार से शुरू होकर दोस्तों और समाज के बीच आदर्श प्रस्तुत करने में लगे हैं. मैंने उनके दोस्तों से पूछा कि कया ऐसा तो नहीं कि कभी इश्क में उनका दिल टूटा हो और फिर उन्होंने शादी का इरादा ही त्याग दिया हो. कोई साफ़ उत्तर नहीं मिला. एक ने कहा कि यह हो सकता है लेकिन सुशील उसमें का इंसान है जो  अपना दर्द हंसकर पी जाएगा लेकिन अपनी किसी हरकत से दूसरे को बेपर्दा नहीं करेगा. मैं फिर कभी यह बात सुशील से पूछूंगा क्योंकि बहुत से लोगों की जिज्ञासा इसमें है. अब सुशील सेलिब्रेटी हो गए हैं इसलिए उनके बारे में लोग अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. मैं उनके अप्रोच से प्रभावित हूँ. समाज के प्रति कुछ अलग करने की उनकी सोच से प्रभावित हूँ. इसलिए यह भी सोचता  हूँ कि कभी कुछ ऐसा न कह दूं जो उनके मन को तकलीफ दे.
           अंतर्द्वंद बनाने में कितनी लागत आयी. यह सवाल सबके मन में कौंधता है. मुझे भी जिज्ञासा हुई. उनसे पूछा भी. उन्होंने डेढ़ करोड़ के आस पास बताया. डाक्टर रजनीकांत कहने लगे कि इसे कैसे आप लिख सकते हैं. कोई डेढ़ करोड़ का कलाकार अगर किसी के लिए मुफ्त काम कर दे तो फिल्म की लागत तो कम हो नहीं जाती. जो हो लेकिन अगर सुशील ने सीमित संसाधनों में एक बेहतर फिल्म बनायी तो उनके इस जज्बे को सलाम करना ही होगा. तीसरी कसम फिल्म बिहार की पृष्ठभूमि पर ही बनी. उस फिल्म में गीतकार शैलेन्द्र अपने मूल काम से अलग होकर निर्माता के रूप में सामने आये. फणीश्वर नाथ रेणु की रचना मारे गए गुलफाम पर बनी इस फिल्म में राजकपूर ने अपने अभिनय से लोगों को युगों युगों तक के लिए बाँध लिया है. अंतर्द्वंद रिलीज होने से पहले पुरस्कार पा गयी. पर जब तीसरी कसम रिलीज हुई तो उसे दर्शकों के लाले थे. पुरस्कार मिला तो दर्शकों की भीड़ उमड़ आयी. अंतर्द्वंद बॉक्स आफिस पर सुपर हिट हो और उसे पायरेसी का रोग न लगे यही मेरी शुभकामना है.

साइकिल यात्रा निकाल बताया आमी का दर्द


गोरखपुर: आमी की शुद्धीकरण के लिए चलाए जा रहे आन्दोलन को और तेज करने के आमी बचाओ मंच के कार्यकर्ताओं ने मंगलवार को सायकिल यात्रा निकाली। मालूम हो कि आमी के मुद्दे पर मंच के कार्यकर्ताओं ने 4-6 नवम्बर तक मण्डलायुक्त कार्यालय पर घेरा डालो डेरा डालो आन्दोलन का निर्णय लिया है। आंदोलन के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए उक्त यात्रा का आयोजन किया गया था। यात्रा को बांसगांव को पूर्व ब्लाक प्रमुख एवं मंच के संरक्षक चतुर्भुज सिंह झण्डी दिखा कर रवाना किया। अपने संबोधन में श्री सिंह ने कहा कि मंडलायुक्त कार्यालय पर घेरा डालो डेरा डालो आन्दोलन के मध्यम से आमी तट पर रहने वालों की ताकत का आजमाईश होना है। यह आंदोलन हम सबकी अस्मिता से जुड़ा है। लिहाजा इसको सफल बनाना हम सबका फर्ज है। मंच के अध्यक्ष विश्र्व विजय सिंह ने कहा कि आमी के प्रदूषण के खिलाफ चल रहा आन्दोलन अपने निर्णायक मोड़ पर है। इसे अंजाम तक पहुंचाए बिना हमें चैन नहीं। साईकिल यात्रा का नेतृत्व जनसम्पर्क अधिकारी संजय सिंह, महामंत्री बलबीर सिंह, पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष किसान सिंह, अरुण सिंह ने किया। साइकिल रैली बांसगांव-डांड़ी, सरसोपार-भुसवल, भैरोपुर-कुचैरा, देवडार बाबू-करहल, धनईपुर बेदौली से होता हुआ भटवली बाजार में सभा के रूप में परिवर्तित हो गयी। साइकिल रैली में प्रमुख रूप से कमला सिंह, धर्मेन्द्र साहनी, मुन्ना साहनी, हरीशचन्द्र साहनी, रविभूषण मौर्य, विरेन्द्र साहनी, देवेन्द्र सिंह, चन्दन साहनी, मनोज सिंह, दुर्गेश, कोईल, रणजीत सिंह, उमेश गौड़, साहब सिंह, विनोद सिंह, हिन्दू युवा वाहिनी के मंत्री मृत्युंजय सिंह, अनिरुद्ध सिंह, बम बहादुर सिंह आदि लोग शामिल हुए। जन जागरण के क्रम में 22 अक्टूबर को उनवल से जन जारगण साइकिल यात्रा निकाली जायेगी।

श्रीश पाठक के लिए विशेष
श्रीश जी कबीर भूमि के रहने वाले हैं इसलिए जाहिर है कि आमी के प्रति उनकी अपनी निजी भावना है. वे जे एन यू में हैं पर आमी की मुक्ति यात्रा में आना चाहते थे. आमी के लिए हर दिन कार्यक्रम है और इसमें सबको खुला निमंत्रण है. ४,५ और ६ नवम्बर को मंडलायुक्त कार्यालय पर डेरा डालो घेरा डालो आन्दोलन है. तब तक किसी न  किसी इलाके से आमी बचाओ मंच की साइकिल यात्रा निकलती रहेगी. आमी बचाओ मंच के अध्यक्ष विश्वविजय सिंह का मोबाइल ०9935316888  है. आप सभी दोस्त उनसे संपर्क करके आमी बचाओ अभियान को गति दे तो यह प्रकृति के साथ ही अपनी जन्मभूमि के लिए भी उपकार होगा.

22 अक्तू॰ 2009

सुशील राजपाल ने बढ़ाया गोरखपुर का मान

आनन्द राय, गोरखपुर, 21 अक्टूबर।




'अंत‌र्द्वन्द' को 55वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार

      बिहार की एक खास पृष्ठभूमि पर 'नवाब काटेज' के बैनर तले बनी फिल्म 'अंत‌र्द्वन्द' को 55वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला तो गोरखपुर गुलजार हो गया। यहां गोरखनाथ के सिंधी कालोनी से खुशियों की लहर उठी और पूरे शहर में फैल गयी। इस फिल्म के निदेशक और छायाकार सुशील राजपाल के घर से लेकर नवाब काटेज तक कलाप्रेमियों की भीड़ लग गयी। एक दूसरे को बधाई देने का सिलसिला शुरू हुआ तो गर्व के दर्प से चेहरे चमक उठे।
             'अंतर्द्वंद' फिल्म के निदेशक सुशील राजपाल का जन्म 9 अगस्त 1962 को गोरखपुर की सिंधी कालोनी में हुआ। पिता हंसराज राजपाल और मां परमेश्वरी राजपाल ने शुरू में ही बच्चे की हुनर पहचान ली। यहां सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ते हुये कला की ओर सुशील का झुकाव हुआ। फिर वे हंसराज कालेज दिल्ली चले गये। पूना फिल्म इंस्टीट्यूट से प्रशिक्षण लिया और एड फिल्मों से कैरियर की शुरूआत की। यश चोपड़ा की 'लागा चुनरी में दाग' फिल्म से उन्होंने इस क्षेत्र में कदम रखा। हर तीसरे माह गोरखपुर आने वाले सुशील राजपाल एक बार यहां नवाब काटेज में अपने मित्र डा. रजनीकांत श्रीवास्तव से बातचीत कर रहे थे। बिहार में अपहरण करके युवाओं की जबरन शादी कराने की बात चल पड़ी तो उन्होंने इस विषय पर फिल्म बनाने की ठानी। डा. रजनीकांत के घर 'नवाब काटेज' के नाम से ही फिल्म का बैनर तैयार किया गया और फिर बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक गांव में इसकी शूटिंग हुई। सुशील राजपाल की इस फिल्म को 55वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला तो फिर यह खुशी गोरखपुर के गली गली में फैल गयी.
         बुधवार को सुशील राजपाल के बुलावे पर उनके छोटे भाई सुरेन्द्र राजपाल और डा. रजनीकांत समेत बहुत से दोस्त दिल्ली चले गये लेकिन घर पर मां-बाप के अलावा छोटे भाई की पत्नी स्नेहा राजपाल रह गयीं। पिता हंसराज राजपाल और मां परमेश्वरी राजपाल बीमार हैं। दोनों की कूल्हे की हड्डी टूट गयी है। हंसराज तो वाकर से चल पाते हैं। पर इस असीम खुशी ने उनमें अतिरेक उत्साह भर दिया है। बुधवार की सुबह से ही बधाईयों का तांता लग गया। शाम को सवा पांच बजे पूरे परिवार और शुभचिंतकों की निगाह डी.डी. वन पर चिपक गयी। मोबाइल और बेसिक फोन पर बधाई का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा। स्नेहा बधाई कबूल करती और सबकी ओर से जवाब देतीं। जब टी.वी. पर सुशील दिखे तो मां-बाप की आंखों में खुशी के आंसू छलक आये। उधर डा. रजनीकांत के नवाब काटेज में भी खुशियों की बहार थी। सुशील की भतीजी सात साल की पाशा राजपाल ने पटाखे छोड़ छोड़कर धूम मचा दिया। उसके तीन साल के भाई वीर राजपाल को भी इस बात का अहसास था कि घर में कुछ नया हुआ है और उसकी खुशी भी देखने लायक थी। पूरी कालोनी, महानगर की कला संस्थायें और सभी लोग खुशहाल थे।


अपने परिवार के प्रति समर्पित हैं सुशील
सुशील राजपाल के बारे में अब बहुत से लोग जान गए हैं लेकिन पिछले कई वर्षों से उनकी हैसियत बड़ी है. पर उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वे जमीन से जुड़े हैं. उनके पुराने साथी डाक्टर राजीव केतन बताते हैं कि हर तीसरे माह वे अपने पिता और माँ से मिलने आते हैं. जब गोरखपुर आते तो अपने सभी पुराने दोस्तों को खोजते हैं. उनके भाई की पत्नी स्नेहा राजपाल कहती हैं कि मेरा तीन साल का बेटा वीर राजपाल उनसे इतना घुला मिला है हर पल उन्ही की रट लगाए रहता है. लागा चुनरी में दाग फिल्म बॉक्स आफिस पर हिट थी. पूर्वांचल से जुडी होने के नाते यहाँ दर्शकों की भीड़ लगी थी पर तब बहुत कम लोग जानते थे कि इस फिल्म को सुशील ने अपने कैमरे में कैद किया है. राजीव बताते हैं कि फिल्म को देखकर यश चोपडा बोल पड़े कि- अब तक बनारस को इतने ख़ूबसूरत ढंग से किसी ने अपने कैमरे में कैद नहीं किया.

21 अक्तू॰ 2009

मत छीनों मासूमों की हंसी

आनन्द राय, गोरखपुर.



 यह कहानी मटुकनाथ-जूली की है. यह कहानी चाँद और फिजा की है. यह कहानी आख़िरी छोर पर पड़े रहने वाले कुछ कमजोर और गरीबों की है. यह कहानी दुनिया और देश के हर गली-मुहल्ले के किसी कोने की है. यह कहानी अपने आपमें बेशुमार लोंगों के दिलों का हाल लिए है.यह कहानी उन लोगों की है जो प्रेम और वासना के साथ साथ अपनी रफ़्तार बनाए हुए हैं. पर इस कहानी में कुछ मोड़ हैं. कुछ जलते हुए सवाल हैं. समाज के उन लोगों से जो मासूम बच्चों के दिलों में घाव भर देते हैं. उनसे उनकी हंसी छीन लेते हैं. यह कहानी मासूमियत की है. यह एक सच्ची कहानी है. बस इस कहानी के पात्र बदले हैं.


                            उस दिन मैं दफ्तर से जल्दी घर आ गया. घर के बिलकुल पास मोड़ पर चीख और शोर सुनकर मेरे कदम ठिठक गए. कुछ लोग पंचायत में जुटे थे और कुछ पेंच फंसा रहे थे. पर कुछ ऐसे भी थे जो बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ना चाह रहे थे. थोड़ी देर तक तो मेरी समझ में कोई बात नहीं घुसी पर जब बात समझा तो हर किरदार मेरे लिए पहेली बन गया. मैंने मटुकनाथ और जूली को सोचा. चाँद और फिजा को सोचा. और भी कई गुमनाम किरदार मेरी आँखों के सामने आ गए. मुझे लगा कि दलितों की इस बस्ती में आख़िरी छोर पर खड़े ये बेबस सबसे महान हैं. सब एक दूसरे के प्रति जवाबदेह थे. सबको अपनी भूल का अहसास था. अब उनके बीच के झगडे ख़त्म हैं. बस एक मासूम बच्चे की हंसी छिन गयी है.


कहानी में दो परिवार है. दोनों की बसी बसाई जिन्दगी में कुछ बिखराव और कुछ ऐसे मसले हैं जो समाज के बड़े बड़े धुरंधरों के लिए भी आईना है. अभई और नंदू साथ साथ पले बढे. एक दूसरे के पडोसी रहते हुए भी बिलकुल घर परिवार की तरह रहे. अभई मंद बुद्धि का बदसूरत आदमी और नंदू पूरा छः फूटा गबरू जवान. पर दोनों के बीच आपसी तालमेल इतना कि पूछिए मत. बड़े होने पर कुछ दिनों के हेर फेर में दोनों की शादी भी हुई. नंदू अपनी माँ और बीवी के साथ मेहनत मजूरी करके जीवन बिता रहा था. उसकी पत्नी सोनमती ने भी घर की जिम्मेदारी संभाल ली. उधर अभई की शादी फूला से हुई तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. फूला की कसी हुई देह और लटकती झटकती अदा पूरे मुहल्ले को आकर्षित करने लगी. नंदू और अभई की दोस्ती पहले की तरह चलती रही. दोनों के घर में नन्हे मुन्ने फूल खिलते रहे. नंदू को तीन और अभई को दो बच्चे हो गए. नंदू और अभई साथ साथ कच्ची पीते. किसी के घर साफ़ सफाई का मौका मिलता तो साथ काम पर जाते. नंदू तो बाहर जाकर कुछ काम भी कर लेता पर अभई दिन भर घर में पडा रहता या पानी की टंकी के पास बैठा रहता. कुछ लोग उससे अपनी टहल भी कराते लेकिन घर के लिए तो वह बिलकुल निठल्ला ही साबित हुआ. उसके प्रति नंदू मेहरबान रहता और कमा कर लौटता तो उसका भी ध्यान रखता.

कहते हैं कि ठहरे हुए पानी में कब उबाल आ जाए कोई नहीं जानता. वैसे तो नंदू और अभई दोस्त थे पर नंदू और फूला की कसक एक जैसी थी. नंदू को दुःख यह कि उसकी बीवी उसके सामने छोटी और काली कलूटी थी. फूला जब गज भर छाती वाले नंदू को देखती तो उसकी आह निकल जाती. अभई तो उसकी भावनाओं को भी नहीं समझ पाता. जब राहगीरों की कामुक नजरें फूला पर टिकने लगती तब उसकी रखवाली का भाव लिए नंदू सामने खडा हो जाता. पता नहीं कैसे दोनों के दिल पिघलने लगे. एक होने लगे. धुंआ उड़कर बादल बनने लगा.. एक दोपहर जब फूला घर में अकेले थी तो नंदू जा पंहुंचा. वर्षों से उमड़ता-घुमड़ता बादल बरस गया. फिर तो नंदू अवसर की तलाश में रहने लगा. दस बरस तक जिस बदसूरत बीवी को सहेज कर रखा उससे उबकाई आने लगी. पल पल फूला के आगोश में जाने को जिद होने लगी. मौका तलाशने लगा. अपने घर वालों और अभई की आँखों में धूल झोंकने लगा. फि़र भी मन नहीं भरा. वर्षों की सुलगती हुई चिंगारी शोला बन गयी थी. एक दूसरे के बिन दोनों का रहना दूभर हो गया. मौका देखकर दोनों भाग निकले. मुहल्ले में कोहराम मच गया. खूब किस्से गढे गए. जितने मुंह उतनी बातें हुई. दोनों को लेकर जितनी कल्पनाएँ हो सकती उतनी कहानियां वजूद में आ गयी. इस बीच दोनों घरों के छोटे छोटे बच्चों की जिन्दगी और परवरिश का हवाला दिया जाने लगा. फिर कुछ लोगों ने उन्हें तलाशने का बीडा उठा लिया.

नंदू और फूला भाग कर थोड़ी दूर की एक बस्ती में किराए का घर लेकर रहने लगे. सब्जी खरीदते समय मुहल्ले के एक आदमी ने दोनों को देख लिया. फिर उसने सधे क़दमों से उनका ठिकाना ढूंढा और उसी शाम मुहल्ले के ढेर सारे लोग जाकर दोनों को पकड़ लाये. मैं दफतर से लौटा तो इनकी पंचायत चल रही थी. बहुत देर तक कोई नतीजा नहीं निकला. बात बढ़ती ही जा रही थी. एक बुजुर्ग ने दोनों परिवार के सभी लोगों की राय जानने का प्रस्ताव रखा. सबसे पहले फूला की राय माँगी गयी. फूला अपनी जिद पर अड़ी थी. कहने लगी कि बीस दिन मैं इसके साथ रही हूँ. अपना सब कुछ नंदू के हवाले कर दिया है और मैं इसी के साथ रहूँगी. अपने बच्चों का भी पेट भर लूंगी. फिर लोग बीच में घुस आये. कहने लगे कि दो बच्चे तुम्हारे और तीन उसके कैसे खर्च चलेगा. फूला तो सिर्फ अपने लिए उसका छत मांग रही थी. अपने बच्चों के लिए तो वह अपने जांगर के दम पर इतनी बड़ी चुनौती स्वीकार करने को तैयार थी. फिर नंदू से पूछा गया. तुम क्या चाहते हो! नंदू बोला कि मैं इसे लेकर भागा था इसलिए मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं इसे रखूँ. नंदू ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के साथ इसको भी रखने को तैयार हूँ. अभई की ओर भी कुछ लोगों की नजरें उठी. उसकी राय माँगी गयी. तो वह सीधे अपनी पत्नी के पास चला गया. कहने लगा क्यों हमको छोड़ कर चली गयी. उस बौउके की आँख भर आयी. पर फूला का दिल नहीं पसीजा. पूछने लगी कि आज तक आखिर हमको क्या दिए. तुम किस काम लायक हो. तुम्हारे साथ कैसे मैंने इतना दिन काटा मैं ही जानती हूँ. पर अब नहीं रह पाउंगी. यह सुनकर वह रोने लगा.

पञ्च असमंजस में थे. नंदू की माँ बुलाई गयी. उससे लोग पूछते रह गए पर उसने अपनी जुबान नहीं खोली. एक चुप हजार चुप. बस वह घूरती रही. कभी पंचों को , कभी नंदू को और कभी फूलवा को. इस बीच नंदू की पत्नी की माँ भी पंहुच आयी थी. आते ही उसने गालियों की चौपाई पढ़नी शुरू की तो कई लोग राह पकड़ने लगे. उसने फूलवा का झोंटा पकडा और गालियों की बौछार करते हुए कहने लगी अरे कलमुंही तुमको मेरा ही दामाद मुंह काला करने को मिला था. उसका बखेडा पंचायत पर भारी पड़ने लगा. कुछ दबंगों ने अपनी त्योरी चढा कर उस पर लगाम कसी. अब तक सोनमती की भी जबान चल पडी. पहले तो फूट फूट कर रोई और फिर फूलवा पर ऐसे टूट पडी जैसे मटुकनाथ की व्याहता जूली पर टूट पडी थी. फूलवा बिना कुछ बोले मार खाती रही. फूलवा की पिटाई से कुछ औरतों का दिल पसीज गया. औरतों ने कहा- तुम्हारा खसम उसके साथ गया तभी तो वह गयी. सोनमती कहने लगी वह तो आदमी है. दस घाट का पानी पिएगा. उसका कोई गुनाह मैं बर्दाश्त कर लूंगी. वह अपने पति का हाथ पकड़ कर उसे दुलराने लगी. उसने अपना फैसला सुना दिया- फूलवा किसी कीमत पर हमारे घर में नहीं आयेगी. अब फूलवा के बच्चों की बारी थी. छोटे मासूम बच्चे पंचायत के सामने थे. उसके बड़े बेटे से पूछा गया- किसके साथ रहोगे. चेहरे पर मासूमियत. कभी अपनी माँ को देखे और कभी अपने बाप को.. अचानक किसी ने डांटा, बोलते क्यों नहीं हो. रोनी सूरत बनाकर बोला. क्या बोलूँ ये मेरा बाप रहे तब न ..मैं तो धोबी का लड़का हूँ. पंचायत में खुसुर फुसुर होने लगी. छोटे बच्चे से पूछा गया तो उसने पूरी तरह खामोशी ओढ़ ली. पर उसकी आँखों से लगातार गंगा- यमुना बहती रही.


        कोई फैसला नहीं हुआ. अगले दिन भी लोग जुटे. इस बीच फूलवा के हमदर्द बढ़ गए. वह अपने मंदबुद्धि पति की ओर लौटने लगी. उस बेचारे के चेहरे पर तो जमाने भर की खुशी थी. पर मुहल्ले के कुछ बिगडैल उससे पूछने लगे कि नंदू के पहले तुम्हारे घर में कौन धोबी आता था. इस सवाल के बहाने ने बहुतों ने फूलवा की देह के करीब जाने का अवसर तलाशा. अभई ने फूलवा को खुश करने के लिए काम मांगना शुरू कर दिया है. पर उससे कोई काम भी तो नहीं कराता है. लोग कहते हैं कि यह जो काम करेगा वही बिगाड़ देगा. अपनी बीवी तो संभाल नहीं पाता तो काम क्या करेगा. कभी कभी राह चलते देखता हूँ कि शाम को कच्ची के सुरूर में कुछ मनबढ़ फूलवा के करीब होने को आस पास मंडराते रहते हैं. नंदू तो अब भी उसे देखकर आह भरता है लेकिन उसकी लुगाई नकेल कसे रहती है. हर पल पहरा लगाती है. सबकी गाडी पटरी पर लौट रही है लेकिन फूलवा का छोटा बेटा खामोश हो गया है. उसकी हंसी छीन ली गयी है. काश मासूम बचपन को भी कोई समझ पाता.

20 अक्तू॰ 2009

जातियों की राजनीति में सामाजिक जरूरत थे सोनेलाल

आनन्द  राय, गोरखपुर.






 दीपावली के दिन अपना दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाक्टर सोनेलाल पटेल की मार्ग दुर्घटना में निधन की खबर आयी तो सहसा यकीन नहीं हुआ. उनमें गजब का तेवर था और खुद के प्रति आत्मविश्वास. वर्ष १९९० में मेरी उनकी पहली मुलाकात हुई थी. तब वे मेरे गाँव के बगल में हरिपरा में एक समारोह में आये थे. आयोजन में मैं भी था और  जब मंच से मैंने उनका स्वागत किया तो वे अभिभूत थे. अपना नंबर दिए और मिलते रहने को कहा. पर मेरी राह बदल गयी और बहुत सालों तक मुलाक़ात नहीं हुई. फिर अखबार में रहते हुए एक बार मुझे उनकी प्रेस कांफ्रेंस में जाने का मौका मिला. मैंने उन्हें अपनी पहली मुलाक़ात की याद दिलाई. वे कुछ देर तक सोचते रहे और फिर मेरी सेहत में आये परिवर्तन की ओर इशारा किया. असल में जब मैं उनसे पहली बार मिला था तो २०-२२ साल का था. खैर इसके बाद उनसे मिलने जुलने का सिलसिला बना रहा.
  मुझे उनकी कुछ चीजे पसंद थी. जो कहते थे खुलकर कहते थे. एक बार कहने लगे कि ताकत का मतलब होता है. हमने पूछा कि आप कहना क्या चाहते हैं तो बोले कि पहले जब मैं निकलता था तो सब कहते थे कि कुर्मी का बच्चा जा रहा है लेकिन जब मैंने अपनी हैसियत दिखाई तो लोग मेरे आगे पीछे घूमने लगे. सोनेलाल की एक और बात मुझे अच्छी लगती. वे कहते थे कि मैं उसी आदमी की मदद करना चाहता जो अपनी मदद खुद करता है. मैं किसी को अपाहिज और लाचार बनाने का पक्षधर नहीं हूँ. लोहिया के समाजवाद को अपनाते हुए उन्होंने खासकर पिछडों को एक जुट किया. उनकी वकालत की और उनके लिए लड़े. जातीय वयवस्था में उनका घोर तर्क कभी कभी मुझे विचलित भी करता. कभी कभी लगता कि ये कितने कट्टर हैं पर जब मैं सोचता कि यह सब तो सामाजिक बदलाव का संकेत है तब मेरा मन खुद शांत हो जाता. यद्यपि यह बात मुझे हमेशा चुभती है कि इस देश में सियासत की धुरी जातियाँ हो गयी हैं. मुलायम सिंह यादव अहीरों के कंधे पर बैठ कर राजनीति कर रहे हैं तो मायावती दलितों कि भावनाओं से कारोबार कर रही हैं. सोनेपटेल की राह भी इन सबसे अलग नहीं रही. पर यह भी तो सोचिये कि एक दशक के अन्दर सभी जातियों के शूरमाओं ने अपनी अपनी पार्टी बना ली. एक और बात यह कि इनमें से अधिकाँश की राजनीतिक ट्रेनिंग बहुजन समाज पार्टी में हुई. अभी कुछ साल से भारतीय समाज पार्टी खूब चर्चा में है. इस पार्टी के नेता ओमप्रकाश राजभर हैं. शायद कोई ऐसा दल नहीं होगा जिसके दर पर राजभर ने समझौते का चारा न फेंका हो और ऐन मौके पर उन्हें झटका न दिया हो. इन दलों के पास वोट भी है. पर इनकी संख्या जितनी बढ़ रही है उतना ही संतोष भी बढ़ रहा है. लोग अपने अपने खेमों और कुनबों में सिमट कर क्या कर लेंगे. इस बार लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उखड चुकी कांग्रेस लौटी तो उसके पीछे एक वजह यह भी थी. वरना सच तो यही है कि जातियों की खेप बांटने का काम अपने फायदे के लिए कांग्रेस ने ही तो शुरू किया.
                बहरहाल राजनीति में अब मूल्यों की बात तो बेमानी है. सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं. सोनेलाल पटेल अन्दर से बहुत ताकतवर आदमी थे. उन्होंने अतीक जैसे माफिया से राजनीतिक फायदे के लिए हाथ बढाया लेकिन जब अतीक ने भरोसे का खून किया तो उनसे रिश्ता तोड़ने में भी देर नहीं लगाई. उनका निधन बेहद दुखद है. इसलिए भी कि जातियों की मौजूदा राजनीति में वे सामाजिक जरूरत थे. वे वैलेंस करने की ताकत रखते थे. अब उनकी पार्टी कैसे चलेगी और नयी अध्यक्ष उनकी पत्नी कृष्णा पटेल संगठन को कितना मजबूती से चला पाएंगी यह तो वक्त बताएगा. इस दुःख भरे मौके पर भी मैं उन्हें यह शुभकामना जरूर दूंगा कि वे समाज को जोड़ने के लिए कुछ काम करें और अपने पति का नाम जिंदा रखें.

     मार्ग दुर्घटना या साजिश
जागरण संवाददाता

     मार्ग दुर्घटना में सोनेलाल पटेल के निधन के बाद पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने उनकी पत्नी कृष्णा पटेल को अपना दल का अध्यक्ष चुन लिया। वहीं कृष्णा पटेल व उनकी पुत्री अनुप्रिया ने मार्ग दुर्घटना को साजिश बताते हुए घटना की सीबीआई जांच की मांग की। उनके मुताबिक सोनेलाल पटेल की मात्र 17 दिन में दो बार मार्ग दुर्घटना हुई थी। परिवार ने जान का खतरा बताते हुए सुरक्षा की मांग की है। 1989 में बसपा के टिकट पर चौबेपुर से विधानसभा चुनाव लड़ने वाले सोने लाल पटेल ने चार नवंबर 1994 को बसपा छोड़कर अपना दल बनाया था। वह खुद पार्टी अध्यक्ष थे। दीपावली वाले दिन मार्ग दुर्घटना में उनका निधन हो गया था।
       उनके आवास पर बैठक में राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने कृष्णा पटेल को राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया। कृष्णा पटेल इस समय अपना दल की महिला इकाई की भी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। अध्यक्ष के चयन के लिए हुई बैठक में राष्ट्रीय महासचिव प्रेमचंद्र, कोषाध्यक्ष आरबी सिंह, प्रभारी शीला, संत राम सरोज, लखन राज सिंह समेत कई राष्ट्रीय पदाधिकारी थे। अध्यक्ष चुने जाने के बाद पत्रकार वार्ता में कृष्णा पटेल व उनकी बेटी अनुप्रिया ने सड़क हादसे को साजिश बताया। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व मुख्यमंत्री मायावती से घटना की सीबीआई जांच कराने की मांग की। उन्होंने आरोप लगाया कि सोनेलाल पटेल की बढ़ती लोकप्रियता से उनके विरोधी परेशान थे। इससे पहले एक अक्टूबर को लखनऊ जाते समय बंथरा के पास उनकी कार को ट्रक ने टक्कर मार दी थी। उस दुर्घटना में सोनेलाल पटेल बाल-बाल बच गये थे।
            17 दिन बाद 17 अक्टूबर को फिर मार्ग दुर्घटना होना सामन्य नहीं है। उनकी सुरक्षा 2007 के विधानसभा चुनाव के बाद वापस ले ली गयी थी। इसके लिए मुख्यमंत्री से लेकर आला अफसरों तक को पत्र लिखे लेकिन कुछ न हुआ। 2008 में लखनऊ हाईकोर्ट में याचिका दायर की गयी थी। उन्होंने पूरे परिवार को सुरक्षा देने की मांग की। उनकी पुत्री अनुप्रिया ने बताया कि 25 अक्टूबर को लखनऊ में शोक सभा होगी।

19 अक्तू॰ 2009

दीपों से जगमग हो गयी आमी

 आनन्द राय  गोरखपुर:





औद्योगिक इकाइयों के अपजल से प्रदूषित हो चुकी आमी नदी की मुक्ति के लिए अब आस्था के अस्त्र का प्रयोग हो रहा है। आमी बचाओ मंच के आह्वान पर दीपावली की पूर्व संध्या पर तटवर्ती गांवों से एक एक दीप नदी के तट पर जलाये गये। दीपावली के दिन भी यह सिलसिला जारी रहा। अपनों से आहत बिसुरती आमी को फिर से अपनापन मिला और हर तट से आमी की मुक्ति की आवाज उठी।
                दीपावली के पर्व पर घर-घर से दीप आये। सबने आमी नदी के तट पर दीप सजाया और गंगा मइया की जयकारा लगायी। आमी बचाओ मंच के केन्द्रीय अध्यक्ष विश्र्वविजय सिंह के आह्वान पर दीपावली की पूर्व संध्या से ही यह सिलसिला शुरू हुआ। ऐसा नहीं है कि आमी तट पर घरों से दीप आने का यह पहला वाकया है। पहले देवी देवताओं के दर पर दीप जलाने के बाद लोग आमी के तट पर ही दीप जलाते थे। पर जैसे जैसे आमी गंदी होती गयी यह क्रम बंद हो गया। पिछली मकर संक्रांति से आमी नदी से लोगों की आस्था को जोड़ते हुये इस बार आमी बचाओ मंच ने वर्षो पुराने टूटे हुये रिश्ते को नया आयाम दे दिया। इस आश में कि शायद कभी आमी का पुराना गौरव लौट आए।
                  दीपावली पर गाड़र के पूर्व प्रधान प्रभाकर सिंह, प्रभुनाथ निषाद, विश्र्वनाथ निषाद जैसे कई लोगों ने दीप जलाकर पुरानी रवायत को नये सिरे से शुरू किया तो धनईपुर में अरुण सिंह और विकास सिंह ने भी नदी के तट को दीपों से सजा दिया। भैरोपुर में छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष बलवीर सिंह, लाट पहलवान, हरपुर में प्रधान मदनमुरारी गुप्ता, सरसोपार में सत्यवान सिंह, सुरेश सिंह, लालपुर में राजेन्द्र राय, भुसवल में संजय सिंह समेत कई प्रमुख लोगों ने नदी तट पर दीप जलाये। बकौल विश्र्वविजय सिंह यह दीप अंधेरों से लड़ने का प्रतीक है। आस्था से जुड़ा यह दीप आमी की मुक्ति की लौ है। नदी से हमारी आध्यात्मिक और भौतिक दोनों सत्ता जुड़ी हुई है। इसके बिना विकास संभव नहीं है। क्षेत्र और हम सबके विकास के लिए इसकी मुक्ति अनिवार्य है। हमारी लड़ाई परवान चढ़ रही है क्योंकि अब जनता जाग उठी है। गौर करें तो आमी के लिए निरंतर संघर्ष हो रहा है। 4,5 और 6 नवम्बर को कमिश्नर कार्यालय पर आमी तट के लोग डेरा डालो- घेरा डालो आंदोलन करेंगे। इसके लिए 20 अक्टूबर से ही साइकिल यात्रा निकलेगी। इस यात्रा से जो वातावरण बनेगा वह आमी मुक्ति संग्राम का एक अध्याय बनेगा।

11 अक्तू॰ 2009

मनोज तिवारी मृदुल को क्या अब गोरखपुर की याद आती है.



अभी कुछ दिन पहले मनोज तिवारी मृदुल ने कहा कि अब वे गोरखपुर की राजनीति से तौबा कर रहे हैं. बाकी और कहाँ उनकी नजर है, इसका तो कोई संकेत नहीं है लेकिन मनोज बबुआ वाकई सियासत के बाजीगरों के शिकार हो गए. वे गोरखपुर में लोकसभा का चुनाव लड़ने इस आश्वासन पर आ गए कि यहाँ फिल्म सिटी का निर्माण होगा. चुनावी सभा में वे खूब भीड़ जुटाते थे और यह वादा करते थे कि हर हाल में यहाँ फिल्म सिटी बनवायेंगे. चुनाव हार गए. हार क्या गए, बुरी तरह हार गए. दो लाख से ऊपर वोट पाने वाली समाजवादी पार्टी सिमट कर ७० हजार पर आ गयी. अब वे क्या करते. पंडाल में गए. योगी आदित्य नाथ से आर्शीवाद लिए और फिर चलते बने. तबसे वे कई बार यहाँ आये. एक दो बार गोरखपुर महोत्सव के ऐलान भी किये लेकिन हालत कुछ ऐसी हुई कि उन्होंने आपदा का हवाला देकर महोत्सव से भी पल्ला झाड़ लिया. अब बतौर कलाकार उन्हें गोरखपुर की सुधि आती है. लेकिन कितनी कहा नहीं जा सकता. वैसे यहाँ कलाकार भी बहुत हो गए हैं. मनोज की तो रफ़्तार बहुत तेज है पर उनके मुकाबले कई मनोज खड़े होने की कोशिश में हैं. मनोज कहते हैं कि फिल्म सिटी तो तब बनती जब मैं चुनाव जीत जाता.

    मनोज को अपने वादे याद नहीं हैं. उन्हें यह भी याद नहीं होगा कि गोरखपुर को लेकर क्या क्या बोले. वजह भी है. जबसे उनका यहाँ चुनाव लड़ना तय हुआ तबसे कुछ न कुछ ऐसा हुआ कि लोग उनके पार्टी गंभीर नहीं हो पाए. मनोज पहली बार टिकट मिलने पर अमर सिंह के साथ आ रहे थे. प्रशासन ने उन्हें आने नहीं दिया. एयर पोर्ट पर पुलिस और अमर सिंह के बीच विवाद हो गया. अमर सिंह ने कहा कि पुलिस ने उन्हें मारा है. मनोज ने कहा कि उन्होंने खुद अपना सर कार में दे मारा. बाद में मनोज ने कहा कि यह तो मीडिया वालों ने गलत तरीके से फुटेज दिखा दिया. खैर उन्हें दुबारा अमर सिंह लेकर आये. इस बार उत्साह खूब था. खुली जिप्सी पर वे चले तो गांधी प्रतिमा के पास उन्हें देखने के लिए हुजूम आ गया. पर इस बार कुदरती कहर हो गया. मनोज तिवारी का मंच टूट गया. अमर सिंह गुस्से से लाल पीले हुए और एयर पोर्ट चले गए. इसके बाद तो कोई न कोई ऐसा मामला जरूर हुआ जिससे थोड़ी किरकिरी हुई. एक बार तो हद यह हो गयी कि मनोज के खासमखास सपा नेता भानु प्रकाश मिश्रा ने चुनावी तैयारी की बैठक में कुछ कहा तो सपा महासचिव के के त्रिपाठी और नगर अध्यक्ष जियाउल इस्लाम से उनकी बात बढ़ गयी. भानु के आदमियों ने राइफल लगाकर दोनों सपा नेताओं की खूब लानत मलानत की. इसी तरह एक बार मनोज लगातार किसी न किसी बहाने विवादों में फंसे रहे. अब उनका मोह भंग है. उनसे सिर्फा यही पूछना है कि क्या अब गोरखपुर की याद आती है.

उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं

आनन्द  राय, गोरखपुर:





          स्वाइन फ्लू बीते दिनों सुर्खियों में था. अब भी है. पर पहले जैसी दहशत नहीं है. अखबार से लेकर चैनलों तक बस यही एक बीमारी थी. इससे मरने वालों की गणना करते मीडियाकर्मी कितने संवेदनशील थे मैं बता नहीं सकता. हां मन जरूर कचोटता था कि कोई भी, किसी माँ का बेटा है, किसी का भाई है, किसी का सुहाग है.......बस ऐसे ही. इस संवेदना का ख्याल आते हमारे दिल दिमाग में उत्तर प्रदेश के उस इलाके की तस्वीर ताजा हो जाती जहां के नौनिहाल पिछले ३१ वर्षों से हर साल मस्तिष्क ज्वर की चपेट में आकर काल कवलित हो रहे हैं . इस बीमारी से अब तक बीस हजार से अधिक बच्चे मौत की नींद सो चुके हैं. जो मस्तिष्क ज्वर के कहर से बच गए उनकी जिन्दगी तो दुखों का पहाड़ बन गयी है. पता नहीं क्यों सरकार या और भी तमाम जिम्मेदार लोग इस गंभीर बीमारी को लेकर गंभीर नहीं हो पाए हैं. बरसात के बाद हर साल गोरखपुर के मेडिकल कालेज में मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित बच्चों की कतार लगती है और हरदिन मरने वालों की संख्या गिनी जाती है. ३१ वर्षों से इस आंकडे का वजन बढ़ता जा रहा है. स्वाइन फ्लू पर सरकार जितनी गंभीर हुई, यहाँ से लेकर अमरीका तक जितनी तेजी दिखाई गयी, काश उसका एक अंश मस्तिष्क ज्वर के लिए भी सोचा गया होता.
           मेरे एक जानने वाले हैं. प्राथमिक विद्यालय में हेड मास्टर हैं. उनकी पत्नी एक सरकारी दफ्तर में कलर्क हैं. अब रात को उन्हें नींद नहीं आती है. सबसे बड़े बेटे को देखकर उन सबकी आँखे पल पल गंगा यमुना हो जाती हैं. १४ साल का बेटा है जो पिछले ६ साल से विस्तर पर पडा है. मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित वह बच्चा कंकाल बन चुका है. अपनी दैनिक क्रिया भी नहीं कर पाता. इस कहर से पता नहीं कितने बच्चे और उनके माँ बाप सिसक सिसक कर जी रहे हैं. इसके कुछ सरकारी आंकडे जरूर हैं लेकिन गोरखपुर मंडल से लेकर बिहार और नेपाल के कुछ हिस्सों में अनगिनत बच्चे हैं जिनके हाथों से पतंग की डोर छूट गयी है. जो अपनी उम्र के बच्चों के साथ खेलते हुए धमाचौकडी करना भूल गए हैं. अब उनकी किलकारियां नहीं गूंजती. अब उनके होठों की मुस्कान पर पहरा लग गया है. नियति के क्रूर मजाक और निजाम की लापरवाही से वे दया के पात्र हो गए हैं. दया भी गली मुहल्ले के उन लोगों की, जिनकी संवेदना बच्चे के ही नहीं माँ बाप के दर्द को भी बढ़ा देती  है.

                           मस्तिष्क ज्वर के कीटाणु खून में मच्छर काटने से  प्रवेश करते हैं. जलभराव मच्छरों को पलने बढ़ने का वातावरण देता है. पूर्वांचल का यह इलाका बरसात के पानी से, नहरों के पानी से और नाली नाबदान के पानी से हमेशा भरा रहता है. मस्तिष्क ज्वर के ज्यादातर शिकार छोटे बच्चे होते हैं. १४साल तक के बच्चों को ख़तरा ज्यादा रहता है. इस बीमारी से जो बच्चे बच जाते हैं उनका स्नायु तंत्र गडबडा जाता है. ये बच्चे जिन्दगी भर के लिए मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं. यकीनन काँटों का इतिहास भी उतना ही कदीम होगा जितना फूलों का, लेकिन इसके दर्द की शिद्दत किसी को तभी जान पड़ती है, जब कोई इसे अपने बदन पर झेलता है. वे बच्चे जो मानसिक विकलांग होकर विस्तर पर पड़े हैं, उनकी व्यथा जाननी हो तो उनके माँ बाप की आँखों में झांकिए. रात और दिन एक किये बेचैनी के आलम में वे सब उस मनहूस घड़ी को कोसते हैं जब उनके बेटे को जापानी बुखार ने दबोच लिया. जापनी बुखार यानी मस्तिष्क ज्वर का अंतहीन सिलसिला जारी है. बच्चे हर रात तड़पते रहते और उनकी माएं भी तड़प के साथ जागा करती. किसे ख्याल है कि पूर्वांचल के बहुतेरे घरों से रात को सिसकियों की गूँज आखिर क्यों सुनाई देती है. जिस लाल के  जन्म लेने पर सोहर गाती महिलायें खूब आशीष नवाजती थी, वही लाल दुनियावी जद्दोजहद में अपनी ही साँसों से जूझ रहा है. कई बच्चों को देखा उनकी चेतना काम नहीं करती पर उनकी आँखे कुछ टटोलती रहती हैं . मानो वे आँखों ही आँखों में पूछ रहे हों- हमसे का भूल हुई जो इ सजा हमका मिली.
              निदा फाजली ने अपने जीवन के किन लम्हों में अक्षर अक्षर जोड़ कर यह इबारत बनायी लेकिन दर्द के मारे इन बच्चों के लिए बहुत सटीक जान पड़ती है-

                                   देखा गया हूँ मैं, कभी सोचा गया हूँ मैं.
                                   अपनी नजर में आप तमाशा रहा हूँ मैं.
                                   मैं मौसमों के जाल में जकडा हुआ दरख्त.
                                  उगने के साथ-साथ बिखरता रहा हूँ मैं.

 रोज सुबह होती है, शाम हो जाती है और फिर दूसरा दिन शुरू हो जाता है. हम सब इस रोग से मरने वालों की संख्या गिन कर एक हल्की सांस लेकर रह जाते हैं. तीन दशकों से यूं ही वक्त गुजर रहा है. सियासी बाजीगर संजीदा नहीं हैं.  रिश्तों की आहट तो पता नहीं कबसे सुनाई देनी बंद हो गयी है. और रिश्ता भी कैसा. ये बच्चे तो उन घरों के हैं जहां सूरज की रोशनी भी नहीं जाती.

9 अक्तू॰ 2009

मुसाफिर सो गया क्या जाग उठी तकदीर मंजिल की

आनन्द राय, गोरखपुर:





फिराक गोरखपुरी साहित्य में अपना अलग स्थान रखते हैं. गोरखपुर के बन्वारपार में पैदा हुए और बचपन में यही रहे. पर बाद में गोरखपुर से उनका मोह भंग हो गया. इलाहाबद में बसे तो वही जम गए. एक बार वे यहाँ चुनाव लड़ने आये और जनता ने उन्हें हरा दिया. खूब गुस्से में लाल पीले हुए और वापस लौट गए. फिर जब भी कभी आये तो मुश्किल से आये और बहुत मनुहार के बाद ही आये. फिराक साहब ने आजादी की लड़ाई में अपनी खूब सक्रियता दिखाई. उन्होंने डिप्टी कलक्टरी छोड़ दी. यह बात  तो उनके चाहने वाले और न चाहने वाले सभी जानते हैं. पर उनके जीवन की बहुत सी बातें शोध के लिए मौजू हैं.  वे अपने जीवन की निजी बातों को कविता की शक्ल, ग़ज़ल की शक्ल में ढाल लेते थे. कुछ घटनाओं को उन्होंने लम्बी नज़्म का रूप दिया है. मसलन जब उनके छोटे भाई की युवावस्था में मौत हुई तो एक बहुत ही मार्मिक नज्म  लिखे. जवामर्ग छोटे भाई का नौहा. इस शीर्षक से उनकी लम्बी रचना है. १९२२ में उन दिनों फिराक साहब असहयोग आन्दोलन के जुर्म की सजा में अंग्रेजों की कैद काट रहे थे. तभी भाई के मरने की खबर मिली और उन्होंने  अपनी रचना की लेकिन १९३५ में उसे नया रूप दिया.

              मुसाफिर सो गया क्या जाग उठी तकदीर मंजिल की ..... उनकी एक यादगार रुबाई है. यह मुझे याद नहीं है. परमानंद जी से मैंने माँगा है और वे इस रचना को दें तो मैं पोस्ट भी कर दूंगा. बताते हैं कि १९१८ में फिराक साहब के पिता हजरत इबरत गोरखपुरी की मौत देहरादून में हुई जहां उन्हें इलाज के लिए ले जाया गया था. फिराक साहब ने लिखा है कि पौ फट रही थी. घर के सब लोग रो रो कर बेहाल थे. जब लोग रो रो कर कुछ चुप हुए तो उनकी अम्मा ने उन्हें बुलवाया. उनसे बोली कि बेटा पिताजी कितने निश्छल व्यक्ति थे. देखो उनके मरने से हम लोगों पर दुःख एवं कष्टों का पहाड़ टूट पडा लेकिन घर उदास मालूम नहीं होता. आकाश से मिली हुई पहाडियों पर बसे हुए मसूरी के मनोरम दृश्य पर सूर्य की पहली किरणे पड़ रही थी. आम आस्था है कि जब कोई पुन्य मन स्वच्छ निहित व्यक्ति मरता है तो वहां का वातावरण दूषित और करुनामय प्रतीत होने के विपरीत एवं विशुद्ध दिखाई देता है. जाग उठी तकदीर मंजिल की रचना इसी घटना के बाद अस्तित्व में आयी.
                        फिराक को यह शहर भूल रहा है. यहाँ के लोग भूल रहे हैं. यह बात दिल में चुभती है. फिराक देश की विरासत हैं. साहित्य की विरासत हैं. हिन्दुस्तान में ही नहीं पकिस्तान में भी उनके चाहने वाले हैं. पर क्या कहा जाय सब वक्त का तकाजा है. उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें चित्रगुप्त सभा सिर्फ इसलिए याद करती है कि वे कायस्थ थे. उनके लिए उन्ही के शब्दों में कहें तो बेहतर है-
                        तुझे भुलाएँ तो नीद आते आते रह जाए.
                       कोई अधूरी कहानी सी जैसे कह जाए .
                       निगाह ए मस्त तेरी थाह कोई पा न सका.
                       फिराक ही की नजर है जो तह-ब-तह जाए.


8 अक्तू॰ 2009

फिर कोई मिर्जा, कोई माजिद पैदा कर देंगी भारत विरोधी ताकतें

 आनन्द  राय, गोरखपुर




 माजिद मनिहार कौन है. यह सवाल बहुत से लोगों ने तब पूछा जब उसकी मौत हो गयी. नेपाल के एक होटल के कमरे में उसे मौत की नीद सुला दी गयी. माजिद नेपाल में रहकर जाली नोटों के कारोबार, अंडरवर्ल्ड के हथियार और आई एस आई के खिलौने के रूप में काम कर रहा था. उसके मरने के बाद यह भी पूछा जाने लगा कि उसे किसने मारा है. कुछ पत्रकार साथियों ने अटकलें भी लगाई. कुछ ने दावे भी किये. कुछ ने भरोसे का हवाला दिया. खैर अपराध की राह पर चलने वालों का जो हश्र आज तक होता आया है, उसका भी वही हश्र हुआ.
        माजिद के बारे में जहां तक मैं सोचता हूँ तो उसे सोचने के लिए माजिद के ही गुरू मिर्जा दिलशाद बेग की याद ताजी हो जाती है. मिर्जा दिलशाद बेग गैराज मिस्त्री था. उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक गाँव से उठकर वह नेपाल के कृष्णानगर तक पहुंचा. पहले चोरी की गाड़ियों की खरीद फरोख्त शुरू की और बाद में इस पेशे में वह छा गया. उसे राजनीतिक सरंक्षण भी मिले और देखते ही देखते एक दिन वह नेपाल की सियासत का अहम् शूरमा बन गया. नेपाल सरकार में मंत्री बनने का सौभाग्य भी मिला. मिर्जा १९९८ में एक दिन काठमांडू में मारा गया. मिर्जा के जिंदा रहते ही माजिद का नेपालगंज में ठीक ठीक प्रभाव होने लगा था. उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले के भिनगा इलाके के रहने वाले माजिद ने भी एक कपडे की दूकान में नौकर बनकर अपना कैरियर शुरू किया. नेपालगंज में दो दशक में उसकी तूती बोलने लगी. जब मिर्जा मारा गया तब यह सवाल उठा कि अब मिर्जा के बाद सरगना कौन! जाहिर है इसके लिए कोई ताजपोशी नहीं हुई लेकिन माजिद के हाथों में काले कारोबार का रिमोट आ गया. माजिद लोगों की निगाह में था. एक तरफ भारतीय खुफिया एजेंसियां उसे तलाश रही थी तो दूसरी तरफ कुछ पेशेगत दुश्मन उसकी फिराक में थे. मिर्जा की तरह वह भारतीय अपराधियों में लोकप्रिय बनने की जुगाड़ में हमेशा रहता था इसलिए माओवादी भी उस पर टेढी नजर रखते थे. हो सकता है वह इनमे से ही किसी की गोली का निशाना बना हो. यह भी हो सकता है कि कोई उसका ऐसा दुश्मन हो जो बहुत मामूली हो और अब उभर जाए. क्योंकि माजिद के एक साथी हारून खान को भी गोली लगी है. भारतीय मूल का हारून अगर बच जाए तो उसकी भी बंदूकें गर्जेगी. क्यूंकि वही जानता है कि हमलावर कौन हैं. जरायम की बादशाहत भी उसकी ही होनी है. इसलिए अभी से यह कह देना कि माजिद को किसने मारा, थोड़ी जल्दबाजी होगी.
        माजिद को लेकर जो सबसे ख़ास बात मेरे मन में गूँज रही है, वह यह कि क्या माजिद जैसे बेरोजगार ही नेपाल में जाकर अपराध की बादशाहत हासिल करेंगे. मिर्जा हो या माजिद, क्यों इन्हें दूसरी धरती पर वह ताकत मिल जाती है जो अपनी धरती पर नहीं मिलती. ऐसा कौन सा हुनर परवान चढ़ जाता है कि दूसरे मुल्क में इनकी दहशत चलने लगती है. इनका सिक्का चलने लगता है, इनकी तूती बोलने लगती है. असल में मिर्जा और माजिद जैसे शातिर, फुर्तीले और सुगठित लोगों के तेवर पर उनकी कद्र होती जो भारत विरोधी अभियान के लिए इन्हें इस्तेमाल करना चाहते हैं. कंधा इनका होता, बन्दूक कोई और रखता, निशाना कोई और लगाता है. मुझे याद है जनवरी १९९३ में गोरखपुर के मेनका टाकीज में नाना पाटकर की तिरंगा फिल्म लगी थी. उस दिन सिनेमा हाल में भीड़ भी खूब थी. २३ जनवरी को अचानक विस्फोट हुआ और दो लोग मारे गए. इस विस्फोट में मिर्जा और गोरखपुर के गामा का नाम आया. यह विस्फोट आई एस आई के इशारे पर हुआ था. तब देश में हिन्दू मुस्लिम राजनीति खूब हो रही थी और लोग जलते हुए देश में अपने हाथों से हवन कर रहे थे.
                 दरअसल मिर्जा को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया गया. उसके काम को यहीं के गामा ने दिया. गामा भी अचानक मारा गया. कुछ लोग कहते हैं कि मिर्जा को गामा से ख़तरा हो गया था. उसकी लोकप्रियता नेपाल में बढ़ रही थी. कुछ लोगों को अंदेशा है कि गामा अपने कुछ साथियों की गद्दारी का शिकार हो गया. बहरहाल मेनका बम काण्ड में गोरखपुर के जिलानी समेत कई अभियुक्त बनाए गए. इस मामले में मिर्जा को यहाँ की पुलिस तलाश रही थी. पर वह कभी हाथ नहीं आया. एक बार तो कुशीनगर में इंडो-नेपाल बार्डर के अधिकारियों की बैठक हो रही थी. तब वहां के एक अहम् पुलिस अधिकारी थापा से हमने पूछा कि एक तरफ आप लोग दोनों देशों की मित्रता के लिए बैठकें करते हैं और दूसरी तरफ मिर्जा दिलशाद बेग को सरंक्षण देकर भारत विरोधी गतिविधियों में सक्रीय करते हैं तो उनका कहना था कि यहाँ के लोगों ने कभी हमारे देश से मिर्जा को माँगा ही नहीं है.
                    मिर्जा, गामा या माजिद मनिहार जैसे बहुत से लोग हैं जो नेपाल में पनाह लिए हैं और उनमे कई उनकी तरह शूरमा बनने की राह पर हैं. निसंदेह इन पर किसी की ताकत लगती है. मीडिया का बड़ा नेटवर्क चलाने वाला नेपाल सरकार के एक पूर्व अफसर का बेटा, जो जाहिरा तौर पर दाऊद इब्राहिम का पार्टनर भी है. माजिद जैसों को ताकत मुहैया कराकर उन्हें डान के रूप में स्थापित करता है. नेपाल और भारत के बीच पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीमा पर ऐसे बहुत से गाँव हैं जो अपनी गरीबी और रोजमर्रा की जरूरतों में उलझे हैं. इन गाँवों में भले किसी की नजर न हो लेकिन माजिद और हारून जैसे लोगों का डेरा लगता और इन गरीबों के ईमान की परीक्षा लेकर उन्हें अपने मकसद का औंजार बनाया जाता है. बिडम्बना यह है कि भारत के सीमावर्ती गाँवों के विकास की योजनाये मूर्त रूप नहीं पा रही हैं. उनके पैसों की लूट खसोट होती है. माजिद जैसों के मर जाने के भारत की खुफिया एजेंसियां चाहे जितना खुश हो लें, पुलिस को चाहे जितनी राहत मिली हो, अर्थ व्यवस्था को लेकर भले लग रहा हो कि जाली नोटों के कारोबार पर अंकुश लगेगा लेकिन हमें तो यही लगता कि वे ताकतें जो रिमोट अपने हाथ में रखती, फिर कोई माजिद पैदा कर देंगी.

एक संस्मरण और जोड़ दूं, ओ मेरे इतिहास रुको तो


आनन्द राय  , गोरखपुर :



लालपुर गांव के 95 साल के किसान रामधनी राय की आंखों में अतीत के सभी सुहाने पल तैरते हैं लेकिन वर्तमान की कड़वी यादों ने उन्हें पीढि़यों समेत बेचैन कर दिया है। गांव के हर बुजुर्ग और युवा के मन में अपने गौरव को पाने की बेचैनी है। सभी कुछ बेहतर करना चाहते हैं लेकिन प्रदूषित आमी ने गांव में दुख का अलार्म बजा दिया है। पर यहां के वाशिन्दों से पूछिये तो सभी यही कहना चाहते हैं- एक संस्मरण और जोड़ दूं, ओ मेरे इतिहास रुको तो। गांव में इतिहास को रोकने का अर्थ आमी नदी को प्रदूषण से मुक्ति। आमी को पहले की तरह धवल, अविरल बनाना। नयी पीढ़ी के युवा खेतिहर जितेन्द्र यादव की आंखों में कुछ ऐसा ही आत्मविश्र्वास झलकता है। राजेन्द्र राय कहते हैं कि जिस दिन आमी प्रदूषण से मुक्त होगी उस दिन गांव की काया पलट जायेगी। इस समय गांव की कथा तो सिर्फ इतनी है कि यहां अथ पर इति की पहरेदारी हो रही है। सब कुछ सिमटने लगा है। पानी प्रदूषित हुआ तो खेती सूख गयी। डेढ़ दशक से सिंचाई के लिए यहां के लोगों ने खूब पापड़ बेले हैं। कई लोगों ने बोरिंग कराया और 500 से लेकर 600 मीटर तक पाइप लगाकर मशक्कत से सिंचाई कर रहे हैं। खेत में जितनी लागत लगती उतना मुनाफा नहीं हो पाता। पहले आमी का पानी खेतों को हरा भरा कर देता था। 1997-98 में ही इस गांव को अम्बेडकर ग्राम सभा में चयनित किया गया। पर यहां की यादव बस्ती और एक दलित बस्ती में अभी तक बिजली नहीं पहुंची। लगभग 4000 की आबादी वाले इस गांव के प्रधान राधाकृष्ण ने विकास का बेहतर खाका तैयार किया पर सरकारी तंत्रों की बेरूखी और आमी नदी के कहर ने अवरोध दर अवरोध खड़ा कर दिया। कई जगह ठीक से रास्ता नहीं है। विकास की मूलभूत सुविधाओं के बीच फंसे इस गांव के बिंद, मल्लाह जब आमी बेहतर थी तब मछली मारकर रोटी रोजी चलाते थे लेकिन अब तो आमी नदी में मछलियां मिलती ही नहीं हैं। इसीलिए भानु बिंद, रघुवंश बिन्द, परमहंस जैसे युवाओं ने मुम्बई जैसे महानगरों की राह पकड़ ली है। प्रधानाध्यापक पद से अवकाश प्राप्त गोरख और किसान राजेन्द्र राय कहते हैं कि नदी के प्रदूषण ने गांवों की रौनक छीन ली है। पहले यहां विजयादशमी के मेले के दिन लोग नदी तट तक जाते थे और आमी का आशीर्वाद लेते थे लेकिन अब तो नदी की ओर कोई नहीं जाता। विधिचंद यादव को इस बात का मलाल है कि गांव के कई पशु नदी का जहरीला पानी पीकर या तो मर गये या उन्हें खउरा रोग लग गया। इसीलिए न तो सुबह की गुनगुनी धूप अच्छी लगती है और न ही चढ़ता हुआ सूरज। गांव की संध्या धुंध की छांव जैसी लगती है। गांवों में तनाव, कुण्ठा, संत्रास और आपसी तनावों से कपट और छलावा भी बढ़ने लगा है। फिर भी लोग सम्बंधों की हथकड़ी में जुड़े हैं और यही चाहते हैं कि आमी नदी प्रदूषण से मुक्त हो जाये।

7 अक्तू॰ 2009

डाक टिकटों के संग्रह का जुनून

आनन्द राय, गोरखपुर


 दिल में कब कौन अरमान मचल जाये और कौन किसके लिए दीवाना हो जाये कहा नहीं जा सकता। 33 साल के एम.बी.ए. अश्रि्वनी दुबे के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। कक्षा छह में पढ़ते हुये उन्हें डाक टिकटों के संग्रह का शौक लगा तो अब वह जुनून की हद तक है। अश्रि्वनी इन दिनों ऐतिहासिक चौरीचौरा पर डाक टिकट जारी कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इसके लिए हर पखवारे चौरीचौरा डाकघर जाकर संग्रहकर्ताओं को तीन सौ पोस्टकार्ड पे्रषित करते हैं। गोरखपुर जिले के दक्षिणांचल स्थित मुकंुदवार निवासी अश्रि्वनी दुबे के परिजन शहर के आजादनगर मुहल्ले में रहते हैं। दवा और शिक्षा के पेशे में दुबे परिवार सक्रिय है और अश्विनी भी परिवार के व्यवसाय से ही जुड़े हैं। पर उनकी दिनचर्या में सबसे महत्वपूर्ण कार्य डाक टिकटों का आदान-प्रदान है।

1986 में अश्रि्वनी राजकीय जुबली इण्टर कालेज में कक्षा 6 के छात्र थे। तभी दोस्तों की देखादेखी उन्हें भी डाक टिकट जुटाने का शौक लगा। वे बैंक रोड पर आकर बैंकों में आयी चिट्ठियों से डाक टिकट जुटाते थे। सन 2000 में उन्होंने इण्टरनेट का इस्तेमाल शुरू किया। तब इण्टरनेट के जरिये अन्य देशों के डाक टिकट संग्रह कर्ताओं से सम्पर्क किये। उन्होंने इण्टरनेट के जरिये पूरी दुनिया में डाक टिकटों के शौकीन मित्रों की जमात खड़ी कर ली। अश्रि्वनी का दावा है कि उनके संग्रह में दुनिया के 95 फीसदी देशों का डाक टिकट है। अश्रि्वनी दुबे को इस प्रयास के चलते खास पहचान भी मिली है। मार्च 2009 में डाक विभाग की गोपैक्स में उन्हें सिल्वर मेडल मिला। इसके पूर्व 2006 में कुशीनगर में आयोजित डाक प्रदर्शनी में उन्हें गोल्ड मेडल दिया गया। अभी बिलासपुर में इस प्रयास के लिए उनको विशेष सम्मान दिया गया है।

भारत में डाक टिकट संग्रह करने वाले कुछ खास लोगों की सूची में भी उनका नाम शामिल है। अश्रि्वनी को इस बात का दुख है कि चौरीचौरा काण्ड की गूंज पूरी दुनिया में है, लेकिन भारत सरकार ने अभी तक चौरीचौरा पर कोई डाक टिकट जारी नहीं किया है। इसके लिए हर पन्द्रह दिन पर अश्रि्वनी चौरीचौरा डाक घर जाते हैं। 50 पैसे के तीन सौ पोस्टकार्ड विभिन्न संग्रह कर्ताओं को डाक से भेजते हैं। अब तक वे सात हजार से अधिक पोस्टकार्ड भेज चुके हैं। उनकी मंशा यह है कि देश भर के संग्रहकर्ताओं की लाट में उनका पोस्टकार्ड जरूर मिले। वे कहते हैं कि आजादी के संघर्ष का प्रतीक चौरीचौरा काण्ड इतना महत्वपूर्ण है लेकिन उसकी उपेक्षा उन्हें बेचैन करती है। इसीलिए वे अभियान के तौर पर कार्य कर रहे हैं। अश्रि्वनी की इस भावना से उनके दोस्त और परिचित पूरी तरह वाकिफ हैं। जब किसी को कोई खास टिकट या डाक सामग्री मिलती है तो उसे लोग अश्रि्वनी को भेंट करते हैं।

बदल गया दीक्षा का चेहरा


दीक्षा का चेहरा बदल गया है. जब मैंने इसे स्लेट का रूप दिया था तब मुझे यकीन नहीं था कि इस कैनवास पर मेरी जिन्दगी के इतने रंग चढ़ जायेंगे. फुर्सत रहे न रहे, दीक्षा का आमंत्रण ठुकरा नहीं पाता. न मैं कोई लिक्खाड़ हूँ और न ही इस बात का गुमान है कि जो लिख रहा हूँ उसे लोग पढेंगे ही. पर यह सोच कि - बात निकली है तो दूर तलक जायेगी, कुछ न कुछ लिखने को प्रेरित करती है. दैनिक जागरण में १५ साल से लगातार लिख रहा हूँ. उसमें अपना कुछ नहीं होता, सिर्फ शब्द भर और कई बार जगह के अभाव में या भाइयों कि ज्ञानगंगा में बात पूरी नहीं हो पाती. यहाँ जो कुछ लिख पाता उसमें कोई प्रतिबन्ध तो नहीं पर एक संकोच जरूर रहता है.
  खैर इसके बदले रूप के लिए मैं अपने भतीजे शुभम का आभारी हूँ जिसने दीक्षा को पूरी तरह बदल दिया है. शुभम की दो दिनों की मेहनत का नतीजा है. महज १८ साल की उम्र में उसने अपनी कला से इसके रूप- रंग को निखार दिया है. अब मैं चाहता हूँ मेरे शब्दों के चित्र लोगों को अपनी ओर खींचे और बाँध लें. दीक्षा समाज के सभी लोगों की आवाज बने, हमेशा मैंने यही कोशिश की. कई बार मेरी निपट भावना शब्दों के शक्ल में यहाँ जम गयी तो मन में उथल पुथल जैसा रहा. अपनी तो सभी गाते हैं. कुछ दूसरों की गाओ तो अच्छा. यह ब्लॉग मेरे फेसबुक पर भी है और मेरे दोस्तों ने इसे अपना स्नेह भी दिया है.
आप सबके स्नेह और सहयोग की आकांक्षा के साथ इकबाल की यह रचना -

" ख़िर्द के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं.

तेरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं.

हर मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा.

हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं.

रंगो में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल.

हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं.

उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझसे हिजाब.

कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं."



 उम्मीद है  कि यह नया बदलाव आपको पसंद आयेगा.


6 अक्तू॰ 2009

घर की राजनीति घर वालों को मुबारक.




आनन्द राय, गोरखपुर. 




एक बार राजबब्बर ने मुझसे कहा था- मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के आदर्शों को अपने परिवार के प्रेम में गिरवी रख दिया है. इस बात पर बहुत से लोगों ने बहुत तरह की बाते कहीं हैं. पर मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह वन्शवेली की पताका फहराई है उससे उनके असली समाजवादी साथियों को जरूर दुःख होगा. अब कोई यह तर्क दे कि छोटे लोहिया कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र जैसे लोग मुलायम के ध्वज वाहक बने हुए हैं तो फिर औरों की क्या बिसात ?

दरअसल राजनीति में जिस तरह परिवारवाद का उदय हुआ है उससे कोई दल अछूता नहीं रह गया है. भाजपा में भी परिवारवाद की जड़ें गहरी होती जा रही हैं. भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लेकर उनकी पांत में बैठे अधिकाँश नेताओं की यही स्थिति  है. एक दृश्य में मैं देख रहा हूँ मुलायम सिंह यादव अपनी बहू को लेकर चुनाव प्रचार में गए हैं. उनके साथ उनके सबसे असली दोस्त कल्याण सिंह भी हैं. खैर कल्याण सिंह भी बेटे और बहू से लेकर अपने ख़ास लोगों को स्थापित करने के सबसे बड़े उदाहरण हैं. अब तक नेहरू और मैडम गांधी को कोसने वाले नेताओं के सामने परिवारवाद के इतने भयंकर उदाहरण आ गए हैं कि लगता है कि अब यह मुद्दा गौण हो गया है. कभी कभार चैनलों पर या किसी के लेख में बहस तो सुनाई देती है लेकिन इस मसले पर राजनेता वैसे ही कोई बात नहीं कर रहे जैसे सांसदों और विधायकों का वेतन भत्ता बढाए जाने का बिल बिना किसी होर शराबे के पास हो जाता है. घर की राजनीति घर वालों को मुबारक.

अखिलेश नहीं चाहते थे डिम्पल लडें चुनाव





आनन्द राय,


समाजवादी  पार्टी  का प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने के बाद अखिलेश सिंह यादव जब पहली बार गोरखपुर आये उसी समय पार्टी ने उनकी पत्नी डिम्पल यादव को उप चुनाव के लिए उम्मीदवार घोषित किया था. यूं तो मुलायम के घर में परिवारवाद की बात कई दफे हमने उनके घर वालों से पूछी है लेकिन इस बार जब अखिलेश से पूछा तो बिलकुल नए अंदाज में बोले. कहने लगे कि मैं तो चाहता ही नहीं कि पत्नी चुनाव लडे. यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि मेरे तीन बच्चे हैं. इसमें दो जुड़वा हैं. माँ से बच्चों को बहुत लगाव है. चुनाव में और राजनीति में आने पर बच्चों को समय नहीं मिल पायेगा लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं और शीर्ष नेताओं के कहने पर मैं उनको चुनाव लड़ाने के लिए तैयार हुआ. 


अखिलेश ने कुछ तीखे सवालों को चतुराई से खारिज किया. उनका कहना था कि हमारी पार्टी में परिवारवाद नहीं है बल्कि सेवा भाव है. सब लोग जनता की सेवा के लिए आतुर हैं. यही सवाल उनसे कई साल पहले किया गया था. जब पूछा गया कि क्यों घर के ही लोगों को राज्य सभा और लोकसभा से लेकर विधानसभा और पंचायत तक भेजा जा रहा है! तो अखिलेश ने छूटते ही कहा अभी लोग परेशान क्यों हैं, अभी तो हमारे घर से एक और सांसद हो रहे हैं तब जलन और बढ़ जायेगी. उनके इस जवाब के कुछ समय बाद ही धर्मेन्द्र यादव को भी संसद में जाने का मौका मिल गया. धीरे धीरे राजनीति में परिपक्वता आती है. अखिलेश में भी आ रही है. अब वे सोच समझ कर बोलने लगे हैं. लोग उनकी तुलना मुलायम सिंह यादव से करते हैं. हमारे कुछ अखबारी दोस्त कहते हैं- यह मुलायम से तो अच्छा है. इसकी बात तो समझ में आती है. सच्ची मुलायम की कवरेज़ में उनकी आवाज को लेकर बहुत परेशानी होती है. बहरहाल अब अखिलेश की पत्नी डिम्पल यादव  अपने चुनाव क्षेत्र में डंका बजा रही हैं और उन्हें देखने के लिए भीड़ भी उमड़ रही है....

2 अक्तू॰ 2009

पुलिस के इस कृत्य के ख़िलाफ़ आवाज उठनी चाहिए




मीडिया स्कूल से मुझे झारखंड के पत्रकार विष्णु की मेल फारवर्ड की गयी। विष्णु ने एक बहुत ही ज्वलंत मुद्दा उठाया है। कैसे पुलिस खबरनवीस बनकर अपने शिकार तक पहुँची। इसमे एक स्थानीय पत्रकार की जान भी खतरे में पड़ गयी। इस मसले पर उनका प्रतिरोध मुझे जायज लग रहा है। मेरी आवाज उनकी आवाज में शामिल है। मैं चाहता हूँ पुलिस के इस कृत्य के ख़िलाफ़ आवाज उठनी चाहिए।


"बंगाल पुलिस ने मीडिया के नाम पर विश्वासघात किया आनलाइन हस्ताक्षर द्वारा विरोध अवश्य करें"
-विष्णु राजगढ़िया



पश्चिम बंगाल की सीआइडी पुलिस ने मीडिया के नाम पर विश्वासघात किया है। लालगढ़ आंदोलन के चर्चित नेता छत्रधर महतो को पकड़ने के लिए पुलिस ने पत्रकार का वेश बनाकर 26 सितंबर को ऐसा किया। यह मीडिया के प्रति लोगों के भरोसे की हत्या है। यह मीडिया की स्वायत्तता का अतिक्रमण है। यह बेहद शर्मनाक, आपत्तिजनक एवं अक्षम्य अपराध है। इसका पुरजोर विरोध होना चाहिए। इस संबंध में तत्काल एक स्पष्ट कानून बनना चाहिए। 

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