15 मई 2009

शहीदे-आजम भगत सिंह

साभार दैनिक जागरण
देश की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देने वाले क्रंातिकारियों में अग्रणी हैं शहीदे-आजम भगत सिंह। एक कृतज्ञ राष्ट्र अपने सपूतों की स्मृति से ज्योतित होता रहता है। भगतसिंह के जीवन और विचारों पर केन्द्रित दो पुस्तकों के महत्व को इस आलेख में रेखांकित किया है केशव तिवारी ने। इधर सुधीर विद्यार्थी के संपादन में दो किताबें शहीद भगत सिंह क्रांति का साक्ष्य और जब ज्योति जगी [सुखदेव राज के संस्मरण] आई हैं। सुखदेव राज क्रान्तिकर्म में रत थे और शहीद चंद्रशेखर की शहादत के वक्त उनके साथ रहे। पहली किताब में भगत सिंह जी के साथियों और उनसे जुडे लोगों के संस्मरण हैं। इन संस्मरणों से गुजरते हुए शहीदे आजम का जो एक चरित्र उभरता है वो बताता है कि एक क्रांतिकारी अपने लोगों के बीच किस सहजता से उस अतिमानवीयता को जीता है जिसका उद्देश्य ही विश्व को उत्पीडन मुक्त करना है। पूरी किताब एक दस्तावेज है कि तेइस साल का एक युवा अपनी जातीयता से प्रभावित होकर विश्व की राजनीति से किस तरह जुडा। उसका स्वप्न साम्राज्यवाद के नाश तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसका विस्तार एक क्रांतिकारी समाज के निर्माण तक था। शहीद करतार सिंह सराबा से प्रेरणा लेने वाला यह शहीद कितने ही देश के युवाओं को वह सपना दिखा चुका था। उनके फांसी पर चढते वक्त जयदेव कपूर ने पूछा, सरदार तुम मरने जा रहे हो मैं जानता हूं तुम्हें इसका अफसोस नहीं है। सुनकर ठहाका मारकर हंसे फिर गंभीर होकर बोले, क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया..। फिर रुककर कहा, इस छोटी सी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य भी क्या हो सकता है। आगे शिववर्मा लिखते हैं कि वह बहुत ही सौंदर्यप्रिय थे। संगीत और कला से उन्हें बहुत प्रेम था। हिंदी, उर्दू, पंजाबी से गहरा लगाव था। कामरेड सोहन सिंह की गुरुमुखी और उर्दू से निकलने वाली पत्रिका कीर्ति में लेख लिखते थे। वास्तव में यह पुस्तक शहीदे आजम पर संस्मरणों का लहराता समुद्र है, जिसमें उन्हें सतह से जानने वालों के लिये एक सम्पूर्ण क्रांतिकारी का चरित्र खुलता है। मथुरादास थापर लिखते हैं कि काकोरी केस के क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनकर लौटे तो पूछा, मथुरा तू इंस्टीट्यूट से क्यों लौट आया?-यह सुनकर सारा देश रो रहा है। मैं कैसे पढता? बोले तू ये सब छोड हम ही काफी हैं यह गम उठाने के लिये। पूरी किताब बार-बार यह सोचने पर मजबूर करती है कि एक युवा सिख किस नजर से देख रहा था अपनी दुनिया के एक मुक्कम्मल क्रांतिवीर और एक मुक्कम्मल स्वप्नदर्शी को। यह ताकत उसने अपनी जनता और दर्शन से हासिल की। इस पुस्तक की सबसे बडी खूबी यह है कि सुधीर विद्यार्थी ने जो चयन किया है उसमें हर लेखक भगत सिंह के चरित्र के एक नये आयाम ही खोलता है। उनका राजनैतिक चिंतन, उनका जीवन, अपनी मिट्टी-बोली-बानी से प्रेम, उनकी कलाप्रियता और अपनी जमीन पर खडे होकर विश्व को देखना जैसा की बटुकेश्वरदत्त कहते हैं, सन् 1927- 28 में क्रांति के साथ राष्ट्रीय संकट का भी काल था। जहां आर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषण विहीन समाज भगत सिंह का लक्ष्य था। वहीं ट्रेड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था। लाखों लाखों लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रयास हडताल से भी वंचित कर दिये गये। पब्लिक सेफ्टी बिल, ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध के चलते लाला लाजपतराय की हत्या का उन पर गहरा प्रभाव पडा, वो समझते थे कि इन नंगे-भूखों की लडाई लडे बिना इन्हें राष्ट्र की आजादी कभी पूरी नहीं मिलेगी। राजनीति के साथ-साथ आर्थिक लडाई भी एक बडा मुद्दा था। एक संस्मरण विरेन्द्र सिन्धु का है- स्वभाव के आइने से। इससे हमें उनके मूल स्वभाव का पता चलता है कि वे अति संवेदनशील और हंसमुख व्यक्तित्व के स्वामी थे। चीजों को समझने-समझाने की कोशिश करते थे। जिद्दी और कट्टर बिल्कुल नहीं। बहुमत से अपने खिलाफ निर्णय को भी प्रजातांत्रिक ढंग से स्वीकार कर लेते थे। यह दिखाता है कि जीवन के इन मूल्यों को धारण करके ही वो शहीदे आजम हो पाये। अंत में जितेन्द्र सान्याल ने भगत सिंह को फांसी पर कांग्रेसी नेताओं की राय उनकी निरीहता और उनके मुकदमे की कार्यवाही और उनकी दलीलों का जिक्र किया है। दूसरी किताब जब ज्योति जगी सुधीर विद्यार्थी के संपादन में क्रांतिकारी सुखदेव राज का संस्मरण है। यूं तो यह भी संस्मरण ही है परन्तु यह इस मामले में भिन्न है कि एक व्यक्ति जो आजाद की शहादत के वक्त उनके साथ तथा तमाम क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त था वह इस समूचे परिदृश्य को कैसे देख रहा था। पूरे संस्मरणों में विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं को बहुत सा सीधे- सादे ढंग से बिना किसी लागलपेट के दिया गया है। यशपाल पर लेखक की राय एक नई बात खोलती है जो शायद इस पुस्तक के पहले लोगों को मालूम न हो पाती कि कैसे व्यक्तिवाद क्रांतिकारी पार्टियों में पनप जाता है और आजाद को अन्तत: अपने लोगों की ही हुकुमउदूली और रूमानी कमजोरियों से लडना पडा। सुखदेव राज ने बाद के जीवन का एक हिस्सा छत्तीसगढ दुर्ग के अंडा गांव में कुष्ठ रोगियों की सेवा में बिताया, यह बताता है कि क्रांति से विरत होकर भी वह मानवता से कभी विरत नहीं हुए। पुस्तक भगवतीचरण वर्मा और दुर्गा भाभी को लेकर पैदा की गई गलतफहमी पर भी खुलकर चर्चा करती है। अपने संस्मरण में लेखक ने अपने साथियों की शहादत को बहुत ही शिद्दत से याद किया है। इसमें भगवती भाई और सालिग राम का बलिदान, पृथ्वी सिंह को खोजकर क्रांतिकारियों का मिलना, इस संघर्ष का ही नया मोड है। आजाद और पं. जवाहरलाल के बीच एक वार्ता का जिक्र है जिसमें गांधी इरविन समझौते में आजाद वह शर्त शामिल नहीं करवा सके जिसमें क्रांतिकारियों को छोडने और उनके विरुद्ध वारंट वापस लेने की बात थी। यह पुस्तक एक पूरे के पूरे परिदृश्य का खाका खींचती है। यह वस्तुत: एक समूचे काल खण्ड का दस्तावेज है जिसमें क्रांति और व्यक्ति के अंतर्सबंधों की गहरी पडताल है।

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