12 मई 2009

आमी : कुआवल को बेचैन कर रहीं स्मृतियां


आनंद राय , गोरखपुर :

स्मृतियां जीने नहीं देती। स्मृतियां मरने नहीं देती। स्मृतियों की पूंजी के साथ सौ बसंत पार कर चुके बुद्धु सरदार अपने गांव कुआवल को अब भी दिल में बसाये हुये हैं। इस गांव के सबसे बुजुर्ग बुद्धु आमी नदी के स्वर्णिम दौर के गवाह हैं। वे मौजूदा समय की विसंगतियों से भी जूझ रहे हैं। गरीबी और वक्त की मार सहकर उन्हें कोई दुख नहीं हुआ लेकिन आमी नदी से जब भी बदबूदार झोंके उठते हैं तो बुद्धु सरदार की बूढ़ी हड्डियां गुस्से से तन जाती हैं। पानी से जीवन की गति और लय तय होती है लेकिन आमी का चहेता कुआवल अब पानी के दुख से दुखी हो गया है। और यह दुख छोटे बड़े सबके चेहरे पर दिखता है। गोरखपुर मुख्यालय से 24 किलोमीटर दूरी पर स्थित कुआवल गांव की आबादी लगभग दो हजार है। 1997 में ही अम्बेडकर गांव हो जाने की वजह से यहां विकास की गति बढ़ी है। प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक विद्यालय और पक्की सड़क के साथ ही हैण्डपम्प और अन्य सुविधाएं दिखती हैं। पर इन सुविधाओं ने गांव के सुख चैन में कोई वृद्धि नहीं की है। सबसे बड़ा दुख तो आमी नदी का प्रदूषण है। गांव के पूरब सटकर बहती हुई आमी नदी कभी इनके सुखों की वजह थी। तब गरीबी थी लेकिन यहां के लोग अपने पौरुष से आमी के आंचल से अपने लिए रोटी ढूंढ लाते थे। गांव की प्रधान मंदरावती देवी के पति राममिलन यादव कहते हैं- साहब आमी तो हमारे लिए स्वर्ग थी और अब उद्यमियों ने उसे नरक बना दिया है। अपनी पत्नी से पहले राममिलन भी गांव के प्रधान थे। तबसे उनकी कोशिश है कि किसी तरह आमी का प्रदूषण दूर हो। इसी प्रदूषण ने गांव का विकास रोक दिया है। प्रदूषित आमी की दुर्गध से मच्छर, बदबू और वितृष्णा की वजह से युवा पीढ़ी का गांव से मोह कम हो रहा है। लोग पलायन कर रहे हैं। रोजगार और सुकुन की आस में सबके पैर दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता की ओर बढ़ रहे हैं। इससे गांव का वास्तविक विकास रूक गया है। गांव के फूलदेव, धनंजय, मुन्नुर, त्रिवेणी और रामनौकर कहते हैं कि पहले इस गांव की जो रौनक थी वह नहीं रही। सुबह शाम आमी का तट गांव के नौजवानों से गुलजार रहता था। मछली पकड़ते थे और पशुओं को इसी नदी में दिन भर छोड़ देते थे। इसी नदी के पानी से खेतों की सिंचाई होती थी। अब तो वे अच्छे दिन हवा हो गये हैं। सिर्फ त्रासदी और दुख बचा रह गया है। गांव के संकटा उपाध्याय आमी की व्यथा से व्यथित हैं। और गांव में रहने वाला हर व्यक्ति व्यथित है। बरसात के दिनों में यह गांव मैरुण्ड हो जाता है। तब आमी के अलावा बरसात का ठहरा हुआ पानी भी दुख का सबब बन जाता है। पूरब और दक्षिण तरफ से गांव को आमी नदी घेरे है और गांव से सटे पश्चिम तरफ एक तालाब है। जब भी बाढ़ आती तो पूरे संसार से यह गांव जुदा हो जाता है। डोंगी नांव से सफर करके लोग बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। साल के कई महीने पानी से जूझते हुये बीत जाता है। बाकी बचे दिनों में आमी का जहरीला पानी इनका दुश्मन बना रहता है। कभी उस पानी को पीकर पशु मर जाते तो कभी सिंचित फसल जल जाती। गाढ़े दुख में कभी कभी भाषा छलती है। गांव के समझदार लोग आमी के नाम पर जो भाषा बोलते उससे उनकी व्यथा को विस्तृत आकार मिलता है। उनके दुखों में सागर में जलती हुई अभिलाषाओं को साफ देखा जा सकता है।

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