30 अग॰ 2009

भूल गए फिराक को


आनंद राय, गोरखपुर,

इसी शुक्रवार को मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी की १२३वी जयन्ती थी। चित्रगुप्त मंदिर में उन्हें याद किया गया. चित्रगुप्त सभा गोरखपुर के अग्रणी कायस्थों की संस्था है. इस सभा के अलावा अगर किसी ने उन्हें याद किया हो तो उसकी कोई खबर नहीं मिली. इतने महान शायर को लोग भूल गए. फिराक गोरखपुरी को वे सभी लोग भूल गए जो साहित्य के नाम पर अपना सीना चौड़ा करते हैं. उसकी रोटी खाते हैं. देश भर में पुरस्कार बटोरते हैं और कहीं बोलने का मौका मिला तो कहते हैं कि हमने फिराक को देखा था. मैंने कुछ लोगों से बातचीत की और सवाल उठाया कि क्या अब महापुरुषों को उनकी जातियाँ ही याद करेंगी. अब लोगों का इतना सामाजिक पतन हो गया है कि अपने उन पूर्वजों को भी भूल रहे हैं जिनके दम पर देश दुनिया में पूरे इलाके का नाम रोशन है. भारत भारती से सम्मानित विख्यात आलोचक प्रोफेसर परमानन्द को मैंने फोन किया. अपनी पीडा बतायी. छूटते ही बोले कि मैं तो लखनऊ में हूँ. मैंने कहा आज फिराक की जयंती है और शहर उन्हें भूल गया. परमानन्द जी उदास हो गए. उन्होंने कहा कि जब गुले नगमा पर फिराक साहब को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था तब गोरखपुर में उनका सम्मान हुआ था. उन्होंने कहा था कि मैं गुमनाम रहना चाहता हूँ. शायद फिराक को अपने आने वाली नस्लों का अंदाज था तभी तो उन्होंने ऐसी बात कही थी. दिसम्बर १९७४ में जुगानी भाई ने आकाशवाणी में गोरखपुर शहर को लेकर एक इंटरव्यू किया था. उस इंटरव्यू में फिराक साहब ने कहा था कि गोरखपुर शहर भुतहा होता जा रहा है. आज तो इतने साल बाद बिलकुल उनकी बात सच लगती है., फिराक को यहाँ लोग याद करे न करे, यहाँ के लोगों की खुशी, पर दुनिया उन्हें याद कर रही है. परमानंद जी ने ही बताया कि उन पर पाकिस्तान में कार्यक्रम आयोजित है. फिराक ने खुद १९२६ में लिखा-, वो एक लम्हा हूँ जिसका कभी कटना नहीं मुमकिन, वो दिन हूँ आके जो शहर- ए- खमोशां को जगा जाये., मैं ऐसा वक्त हूँ जिसका कभी कटना नहीं मुमकिन, वो शब् हूँ मैं सितारों को जिसमें नीद आ जाए., फिराक को लेकर कभी गोरखपुर में कोई सरकारी प्रयास नहीं हुआ. बन्वार्पार में जहां उनका जन्म हुआ अब खंडहर है. गोरखपुर में न तो उनके नाम पर कोई पीठ है और न ही विश्वविद्यालय में कोई चेयर. शहर में एक प्रतिमा है जिस पर रस्म अदायगी में कभी कभी फूल चढ़ जाते हैं. लिखने पढने वाले लोग भी उनके नाम पर बस कुछ करके खुद गौरवान्वित होते हैं. फिराक साहब को लेकर पिछले साल प्रेस क्लब के अध्यक्ष अरविन्द और मंत्री नवनीत ने एक पहल की और कार्यक्रम आयोजित किया लेकिन इस बार पत्रकार भी उन्हें भूल गए. धुरियापार के एक ग्रामीण संवाददाता नंदकिशोर जायसवाल ने अपनी लेखनी से उन्हें याद किया. ऊर्दू के माथे के सिन्दूर थे फिराक. इसी हेडिंग से उनकी खबर छपी थी. हालांकि हमें तो लगता है कि फिराक साहब ने हिन्दी और ऊर्दू को एक दूसरे में पिरो दिया. उन्होंने हिन्दी और ऊर्दू को बाँध कर एक ऐसा पुल बना दिया जिससे जब जब आने वाली नस्लें गुजरेंगी फिराक पर नाज करेंगी. गोरखपुर शहर अब दंगा फसाद और बलवे का शहर हो गया है. यहाँ तो जुम्मन और अलगू की दोस्ती को भी नजर लग गयी है. ऐसे में फिराक साहब ही वो सबसे बड़ी दवा हैं जो यहाँ के जख्म पर मरहम बन सकते हैं. उन्हें याद करने की जरूरत है. उन्होंने तो अपने वसूल जिंदा रखे. गोरखपुर से मजनू गोरखपुरी पाकिस्तान चले गए तब भी अपनी दोस्ती जिंदा रखी. उन्हें याद करके भी कोई क्या देगा. उनके लिए तो बस उन्ही के शब्दों में कहें-, जमीं हैं आसमां हैं दहर हम हैं लामकां हम हैं, जहां जाओ, जिधर देखो निहां हम हैं अयाँ हम हैं.,

सफ़र दुनिया के मशहूर शायर का

फिराक गोरखपुरी एक जीवंत ,अद्वितीय व कालजयी नाम है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक गुले नगमा की गजलें, नज्म और रूबाइयां भुलायी नहीं जा सकतीं। स्व. रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, ग्राम बनवारपार, तहसील गोला बाजार जनपद गोरखपुर में 28 अगस्त 1896 में प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे। उनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद इबरत अपने समय के प्रसिद्ध शायर तथा पेशे से वकील थे। 1918 में फिराक ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। 1930 में उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए. अंग्रेजी की परीक्षा पास की। एम.ए. करने के बाद इसी वर्ष उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में लेक्चररशिप मिल गयी। 1958 में रिटायर हुए। जुलाई 1918 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर उनका चयन हुआ। फिराक ने यह पद कबूल तो किया मगर ओहदा संभालने से पूर्व ही महात्मा गांधी व पं.जवाहर लाल नेहरु के सम्पर्क में आ कर जंगे आजादी की लड़ाई में शरीक हो गये। तब उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पन्द्रह वर्ष की उम्र तक पहुंचते पहुंचते वह उर्दू साहित्य से पूरी तरह परिचित हो चुके थे। सन 1921 में गोरखपुर की उर्दू पत्रिकाओं में फिराक साहब की कुछ गजलें प्रकाशित हुई। फिराक का विवाह 29 जून 1917 को सहजनवां के करीब ग्राम बेलाबाड़ी के एक जमींदार विंदेश्र्वरी प्रसाद की पुत्री किशोरी देवी से हुई। मगर पत्‍‌नी की शिक्षा ज्यादा नहीं थी। फिराक जीवन भर अपनी शादी को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा कहते रहे। फिराक इलाहाबाद विश्र्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में कार्य करते रहे। मगर उनकी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति उर्दू के कारण ही हुई। उन्होंने अपने सभी रचनात्मक कार्य उर्दू में ही किये। मिशाअल्ल, शोल-ए-साज, गुल-ए-नमगा, धरती की करवट, चेरांगा, पिछली रात, गुल-ए-बाग, रूप, हजार दास्तां, शेरिस्तान, गजलिस्तां उनके जिन गजल व नजमों का संग्रह है। फिराक ने हिन्दी में उर्दू साहित्य का इतिहास भी लिखा जिसे बहुत पसंद किया गया। फिराक की जिंदगी में बहुत इनामात और एजाजात मिले। सन 1961 में उन्हें साहित्य एकेडमी का इनाम मिला। 1967 में वह पद्मभूषण से नवाजे गये। 1968 में सोवियत देश नेहरु पुरस्कार, 1970 में ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यूं तो फिराक को जिंदगी में बहुत से बड़े-बड़े इनाम मिले मगर उन्होंने फिराक पसंदी और फिराक फहमी को अपने लिये सबसे बड़ा इनाम समझा। तीन मार्च 1982 को दिल्ली में फिराक का देहांत हो गया, जहां वह अपनी आंखों का आपरेशन कराने गये थे। उनके शव को स्पेशल ट्रेन से इलाहाबाद लाया गया और संगम पर उनकी अंत्येष्टी हुई।

28 अग॰ 2009

सी.बी.आई. तो हमेशा सत्ता की कठ्पुतली ही रही मनमोहन जी


आनंद राय , गोरखपुर

सीबीआई पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान बुधवार से ही बहस के केंद्र में है. सी.बी.आई. को लेकर उनका कथन- आम धारणा यही है कि छोटे छोटे अपराधी के खिलाफ कारगर कार्रवाई होती है लेकिन भ्रष्टाचार के तालाब की बड़ी मछलियाँ सजा पाने से साफ़ बच निकलती हैं. इसे बदलना होगा.इस बयान से मीडिया उत्साहित दिखी और लगा कि मनमोहन सिंह के ये विचार सी.बी.आई. की कार्यशैली को बदलने में अहम् भूमिका निभाएंगे. पर ऐसा कुछ संभव नहीं है. मैं मनमोहन सिंह की नीयत पर कोई टीका टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ लेकिन लम्बे समय से सी.बी. आई. को सत्ता की कठपुतली बनते देख सुन रहा हूँ. जब जिसकी सरकार बनी उसने सी.बी.आई. का अपने हित में खूब इस्तेमाल किया. वैसे हिन्दुस्तान की भोली जनता और उसके रहबरों की याददाश्त इतनी कमजोर है कि कुछ याद ही नहीं रहता. वरना आपात काल के पहले से ही सी.बी.आई. की जो थुक्का फजीहत हुई वह अपने देश के हुक्मरानों ने ही तो करवाई. जनता पार्टी की जब सरकार बनी तब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया था. उसी समय सी.बी.आई. के निदेशक रहे देवेन्द्र सेन भी गिरफतार किये गए. उन्हें शाह कमीशन ने सजा दी और संसद ने उन्हें कृष्ण स्वामी मामले में जेल भेजा था. सेन के बारे में यह आम धारणा थी कि वे कड़क और ईमानदार अफसर थे. पर उन्हें ६० की उमर पार करने के बाद सेवा विस्तार मिल गया था. सेवा विस्तार पाने वाले वे पहले सी.बी.आई. अफसर थे और उसके बाद ही उनकी ख्याति दागदार हो गयी थी. वे अगर सेवा विस्तार नहीं पाते तो शायद एक बड़े महत्वपूर्ण अफसर पीवी हिंगोरानी को निदेशक बनने का मौका मिल जाता. हिंगोरानी अपने काम से मशहूर हुए और यह तो किवदंती है कि जब भारत सरकार के मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या हुई तो बाद के दिनों में मामले की जांच कर रहे हिंगोरानी ने बिहार के समस्तीपुर में छः माह तक सुरागरसी की और उनके प्रयास से ही मामले का खुलासा हुआ. खैर सी.बी.आई तो सत्ता का सबसे बड़ा हथियार है और कोई राजनीतिक दल किसी पर तोहमत लगाने की हैसियत में नहीं है. जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने भी सी.बी.आई. का इस्रेमाल शुरू किया. आपातकाल के दौरान सी.बी.आई के शिकंजे में फंसे कई अफसर बाद में छूट गए. दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर बालेश्वर प्रसाद पर कार्यकाल के दौरान कई संगीन आरोप लगे. उनका मामला सी.बी.आई॥ के पास था लेकिन अफसरों की गवाही और नेताओं के दबाव से वे बच गए. सबसे रोचक मामला तो सी.बीआई. अफसर निर्मल कुमार सिंह का है. उन्होंने ही इंदिरा गांधी को गिरफतार किया था. पर बाद में उन्हें भी जेल जाना पडा. जिन लोगों ने उनके दिलेरी की खूब सराहना की थी वही लोग फिर उनसे कन्नी काट लिए. उनसे जुडी एक कहानी है जिसके मूल में फिल्म निर्माता अमृत लाल नाहटा थे. दरअसल नाहटा ने किस्सा कुर्सी का नाम की एक फिल्म बनायी थी. यह फिल्म एक राजनीतिक व्यंग थी. यह फिल्म जब्त कर ली गयी थी. बाद में नाहटा राजस्थान से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लडे और चुनाव के बाद संसद में यह मामला उठा. फिल्म के प्रिंट को हासिल करने के लिए लम्बी कवायद हुई. यह मामला भी सी.बी.आई. के पास आया था. निर्मल कुमार सिंह ने इस मामले की जांच की और उन्होंने संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ भी इस मामले में मुकदमा दर्ज करवाया. बाद में इस मामले में नाहटा ही बदल गए और उन्होंने रात दिन एक करने वाले अफसरों के ही खिलाफ झूठा बयान दे दिया. चीनी सौदे में सुखराम के खिलाफ भी एक बड़ा मामला आया. खाद्य और आपूर्ति मंत्री के रूप में सुखराम ने १९८९ में राजकोष को लगभग ३० लाख डालर का नुकसान पहुचाया था. सी.बी.आई की शाख पर बट्टा लगाने के लिए फोन टेपिंग काण्ड और सेंत किट्स काण्ड भी नोटिस लेने योग्य है. पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने अपने कार्यकाल से पूर्व वी.पी.सिंह के कार्यकाल में अपना फोन टेप करवाए जाने का आरोप लगाया था. चन्द्रा स्वामी और बबलू के अन्तर्सम्बन्धों के खुलासे के बाद तत्कालीन मंत्री राजेश पायलट का मामला हो या फिर मुम्बई के जे जे हास्पीटल में दाऊद के इशारे पर हुई गोलीबारी में केन्द्रीय मंत्री कल्पनाथ राय और सांसद ब्रजभूषण शरण पर अपराधियों को संरक्षण देने का मामला हो हर जगह तो सी.बी.आई पर सत्ता की नकेल कसी रही. भले कुछ हेर फेर के साथ नतीजे बदल गए हों. मीडिया के लिए सबसे बड़ा संकट यही है कि वह आजजीवी है. उसकी दौड़ आज के हिसाब से हो गयी है. मनमोहन सिंह ने सी.बी.आई को आईना दिखाकर बेहतर सन्देश जरूर दिया है लेकिन उन्हें सी.बी.आई. ही नहीं बल्कि उस हर संस्था को मजबूत ताकत देनी चाहिए जो किसी के इशारों का गुलाम होकर काम न करें. जब भी राज्यों में सरकारें बदलती हैं तब यह विपक्षी दल यह आरोप लगाते हैं कि पुलिस सरकार का हारर दस्ता बन गयी है. पर सरकार बदलते ही पुलिस के बल पर सियासत का खेल शुरू हो जाता है. तंत्र का इस्तेमाल सत्ता में बने रहने के लिए हो रहा है और इसके लिए सभी राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं. कोई दूध का धुला नहीं है. सी.बी.आई. तो आकंठ भ्रष्टाचार में डूब गयी है. उसके छोटे छोटे अफसर भी सिर्फ पैसे के खेल में शामिल हो गए हैं. सियासत के हाथों की कठपुतली बन गए हैं. इस पर अंकुश लगाए बिना बेहतर परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है. और जिसकी धमनियों में भ्रष्टाचार का लहू दौड़ रहा हो वह छोटी मछलिया ही पकड़ सकता है. बड़ी मछलियों को पकड़ने की हिम्मत उसमे नहीं आ सकती.

सी.बी.आई का समय समय पर खूब इस्तेमाल हुआ है। अब तो सियासत में अपने दुश्मनों की अकड़ ढीली करने के लिए भी इसका प्रयोग हो रहा है। कभी अमर सिंह और कभी मायावती के बयान इस बात को पुष्ट करते हैं।

26 अग॰ 2009

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है


आनन्द राय, गोरखपुर

बेरोजगारों की अंधेरी दुनिया में नरेगा उम्मीद का चिराग बन कर आया। पर कुप्रबंधन की हवाओं से इसकी लौ बुझने लगी है। अनीति और शोषण की बरसती हुई शिलाओं ने गरीबों की उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया है। सौ दिन रोजगार का वादा तो अब सपने जैसा है। अगर कुछ सच है तो यही कि नरेगा जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना भी आंकड़ों की बाजीगरी का शिकार हो गयी है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम(नरेगा)की शुरूआत ने बेरोजगारों को बा-रोजगार होने का सपना दिखाया। दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, कलकत्ता और मुम्बई जैसे महानगरों में कौडि़यों के भाव अपना श्रम बेचने वाले मजदूरों के मन में यह आस बंधी कि अब घर के करीब काम करेंगे और बीवी बच्चों के पास रहेंगे। बहुतेरों ने परदेस को टाटा-बाय-बाय कहा और गांव लौट आये। गांव में प्रधान जी की बेगारी और चिरौरी मिनती करने के बाद कार्ड बना और लगा कि घर का चूल्हा आबाद रहेगा। पर दो चार दिन के बाद काम का अकाल। कमोवेश सभी गांवों में प्रधानों का यही कहना कि काम आयेगा तो मिलेगा.। कुछ की उम्मीदें टूटी और कुछ का परदेस में चलता पुर्जा रोजगार। कुछ फिर से दिल्ली, मुम्बई और पंजाब की राह पकड़ लिये पर कुछ नियति का लेखा मान अपनी तकदीर से जूझने के लिए यहीं रह गये। ऐसे लोग कहीं के नहीं हैं। गांव में काम नहीं है और बाहर का काम छूट गया है। नून तेल की किल्लत और महंगाई की मार ने उनकी कमर दोहरी कर दी है। भूख और बेबसी की परिधि में जकड़ी हुई बदहाल जिंदगी जीने को बेबस ऐसे लोगों की दास्तां सुनने वाला भी कोई नहीं है। खजनी ब्लाक पर नरेगा की जमीनी सच्चाई पता करने आये मिडल पास राजधारी ने मुम्बई के एक कम्पनी में डेढ़ सौ रुपये दिहाड़ी का काम छोड़ दिया और गांव में जाब कार्ड भी बनवा लिया लेकिन अब उसे काम ही नहीं मिलता है। उरुवा विकास खण्ड के ग्राम पंचायत रसेत के तीस वर्षीय रामबचन, 35 साल के महेन्द्र, छोटेलाल, बाबूलाल, रामसमुझ और योगेन्द्र प्रधान से काम मांगते हैं लेकिन किसी को काम नहीं मिला। इसी विकास खण्ड के भिटहा पाण्डेय के बीस युवाओं ने हमारे धुरियापार संवाददाता को बताया कि जाब कार्ड रहते हुये उन्हें काम नहीं मिल रहा है। यह हाल केवल इन गिने चुने लोगों का ही नहीं है बल्कि हर गांव में यह कड़वी सच्चाई बेरोजगारों के चेहरों पर चस्पा है। छताई के प्रधान रामपाल सिंह और जरलही के प्रधान देवेन्द्र यादव का दावा है कि हमारे यहां सभी कार्ड धारकों को काम मिल रहा है। अब जरा आंकड़ों पर गौर करें तो गोरखपुर-बस्ती मण्डल के सात जिलों में 536867 जाब कार्ड धारक परिवारों के 668973 लोग काम के लिए अधिकृत हैं। इनमें सिर्फ 22209 लोग ही काम पर लगे हैं। और इस पर हालत यह है कि दोनों मण्डलों के लिए इस वित्तीय वर्ष में नरेगा के लिए आये 285.84 करोड़ रुपये में से 175.48 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। जाहिर है कि घोटालों के कीड़े इस परियोजना में भी लग चुके हैं। गोरखपुर के मण्डलायुक्त पी.के. महान्ति ने तो इस पर अफसरों की नकेल भी कसी और उनके निर्देश पर गोरखपुर के सीडीओ ने कई गांवों में नरेगा का घोटाला भी उजागर किया। पर हर जगह मानीटरिंग नहीं हो पा रही है। ग्राम प्रधान और अफसर आंकड़ों का खेल खेल कर बेरोजगारों को छल रहे हैं। शायद इन्हीं हालातों पर जनकवि अदम गोण्डवी ने लिखा- तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है। तुम्हारे आंकड़ें झूठे, बातें किताबी हैं।

24 अग॰ 2009

हमारी और आपकी साझा आवाज को जरूर समझेंगे


नजीर भाई ने मुझे मेल से एक पत्र भेजा है। दरअसल हमारी एक पोस्ट पर सिद्धार्थ भाई ने एक टिप्पणी दी और नजीर भाई और भावुक हो गए। उन्होंने वसीम वरेलावी की गजल भी भेजी है। मैं उसे पोस्ट कर रहा हूँ ।

भाई आनंद राय,

सिटी की आवाज के लोकार्पण अवसर पर आप आये। आपने बहुत कुछ कहा, बाद में लिखा भी। आपके ब्‍लाग पर सिटी की आवाज के हवाले से बहुत कुछ कहा गया है। जवाब देने का मन हुआ तो लगा शायद हम उन नाकारा पत्रकारांे की जमात में शामिल हैं, जो खुद को वक्‍त के साथ अपडेट नहीं कर पाये। वरना यह बातें कहने के लिए ई'मल क्‍यांे करता। सीधे आर्टिकिल पर टिप्‍पणी भेज देता। बहरहाल हमारे आप जैसे लोग समाज के उस प्रोगेसिव तबके का हिस्‍सा हैं, जो जहां भी जाते हैं, उनके साथ बदनामियों और रुसवाइयों के साये चला करते हैं। यही वजह है कि कभी मुझे मजहब के नाम पर दुखी होना पडता है तो आनंद राय जैसे लोगों को जाति के नाम पर बदनामियों के बोझ उठाने पडते हैं। अच्‍छी बात यही है कि हम मुद़दो और मूल्‍यांे को लेकर जमकर संघर्ष कर रहे हैं। एक दिन हमारा ही होगा। हम रहे न रहें हमारी पी‍ढियां हमें जरूर समझेंगी। जितेन्‍द्र पाण्‍डेय व अजीत सिंह जैसे तमाम अनुज इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं, अधिकांश हमारी राह पर हैं, फिर भी तमाम भाई दिग्‍भ्रमित हैं, मगर यकींन है एक दिन वह हमारी और आपकी साझा आवाज को जरूर समझेंगे।

आते हैं असली बात पर आपकी भावनाओं को पढकर लगा कि आप मेरे बारे मंे लिखते हुए कुछ बेइमानी कर गये हैं। मुझे बहुत आदर दे दिया है। सच्‍चाई यह है कि मेरी उम्र बडी है, मगर कद तो आप ही का बडा है। एकाउंट अफसर व छोटे भाई सिद्धार्थशंकर त्रिपाठी ने जो मेरे बारे मे लिखा है, उन्‍हंे वह सब कुछ आपके बारे में लिखना चाहिए था। आपने बडे भाई वसीम बरेलवी की जिस गजल की पेशकश की है, दरअसल वह हिन्‍दुस्‍तान की वाहिद ( अकेली) गजल है जो हमारे आप जैसे लोगों के जज्‍बातों की तरजुमानी ( प्रतिनिधित्‍व) करती है। यह गजल योगी ही नहीं रोगी और भोगी को भी आगाह करती है, यह अलग बात है कि इस गजल को हिन्‍दुस्‍तान के 118 करोड लोगांे को पढा दी जाये तो भी जो योगी है, रोगी है, भोगी है, वह नही सुधरेगा, मगर कोशिश तो जारी रहनी ही चाहिए। पेश है आपकी मांगी गजल

' अपने चेहरे से जो जाहिर है, छुपाएं कैसे,

तेरी मर्जी के मुताबिक नजर आएं कैसे।

घर सजाने का सलीका तो बहुत बाद का है

पहले तो यह तय हो इस घर को बचाएं कैसे।

लाख तलवारे बढी आती हैं, गरदन की तरफ,

सर झुकाना नहीं आता, तो झुकाएं कैसे।

कहकहा आंख का बरताव बदल देता है,

हंसने वाले तुझे आंसू नजर आएं कैसे।

फूल से रंग जुदा होना हंसी खेल नहीं,

अपनी मिटटी को भला छोडकर जायें कैसे।





नजीर मलिक

22 अग॰ 2009

बुद्ध की धरती से एक नया अखबार



आनंद राय , गोरखपुर

चार पाँच दिन पहले नजीर भाई का फोन आया। बोले एक अनुरोध है। हमने छूटते ही कहा आदेश करें साहब। कहने लगे एक अखबार का आपको लोकार्पण करना है। मेरी तो साँस टंग गयी। पर उनका जोर ऐसा कि मेरा कुछ बस नही चला। बस मैंने यही कहा आउंगा लेकिन मुझे आप कोई जिम्मेदारी न दे तो ही बेहतर है। निर्धारित समय पर मैं पहुंचा तो मुझे पता चला कि मुझे ही समारोह की अध्यक्षता करनी है। सिद्धार्थ नगर जिले में बुद्धा की धरती से एक अखबार सिटी की आवाज का प्रकाशन, मुझे कुछ अच्छा भी लगा और कुछ सोचने पर मजबूर करने जैसा भी। नजीर मलिक दैनिक जागरण के जिले के ब्यूरो प्रमुख हैं और दो दशक पुराने मित्र भी। ब्यूरो के साथी संतोष श्रीवास्तव ने भी हर हाल में पहुचने पर जोर दिया था। अखबार के प्रकाशन की जिम्मेदारी मनोज श्रीवास्तव ने उठायी। वे ही सम्पादक हैं । उन्हें शुभकामनाओं के साथ अखबार का लोकार्पण हो गया। जिलाधिकारी शशिकांत शर्मा मुख्य अतिथि थे और कई अधिकारी मौके पर उपस्थित थे। जिला पंचायत के सभागार में संपन्न हुए इस समारोह में मुझे लगा कि सिद्धार्थ नगर की धरती तो बहुत ही उर्वरा है। साप्ताहिक अखबार सिटी की आवाज को लेकर मेरे मन में जो कुछ संशय था वह मेरे उद्बोधन के दौरान ख़त्म हो गया। अखबार का भविष्य क्या होगा मैं कुछ कह नही सकता। मैंने तो अपनी भरपूर शुभकामना दी है। अखबार जनता की आवाज बने यही मेरी कामना भी है।पर जिन लोगों ने अपने संसाधन और छोटी जगह का रोना रोया उनके लिए हमने यह जरूर कहा कि तथागत इसी धरती पर पैदा हुए। उन्हें राजपाट अपने से बाँध नही पाया। अनोमा के तट पर उन्होंने राजसी वस्त्रों का परित्याग किया और शान्ति की तलाश में चल पड़े। उन्होंने तो अपने विचारों की ताकत से पूरी दुनिया को अपना अनुयायी बना लिया। सिटी की आवाज विचारों की ताकत पैदा करे तो कौन कहेगा कि उसकी सरहद छोटी है। दैनिक जागरण अखबार में काम करते हुए मुझे १४ साल गुजर गए। इसके पहले कई अखबारों में रहा लेकिन यह तो मैं बड़ी साफगोई से स्वीकार कर रहा हूँ कि हमें अपने को जमाने की रफ़्तार से बदलना पड़ता है। मैं हाथ से कम्पोज होने वाले पूर्वांचल संदेश में काम करता था और उन दिनों उस अखबार की एक ताकत थी/ आज भले सूचना क्रांति ने हर आदमी को जागरूक कर दिया और सबके पास पल प्की ख़बर रहती है लेकिन जिस किसी भी अखबार में अच्छी ख़बर छप जाती उसे लोग खोज कर पढ़ते हैं। हमारे एक साथी जीतेन्द्र ने सुबह फोन करके कुछ चिंता जतायी और मूल्यों की बात कही। हमने उन्हें निराश नही किया। नजीर भाई के साथ भी अपने पुराने संघर्ष पर ही हम लोग चर्चा करते रहे। हमारे साथ शिवमूर्ति भैया भी गए थे। छुट्टी लेकर गया था इसलिए शान्ति की धरती पर खूब शांत चित्त से नजीर भाई की गजलें सुनता रहा। लिखने पढने से बावस्ता नजीर भाई जब ख़ुद की लिखी गजलों को अपनी आवाज देते हैं तो पूरी तरह बाँध लेते हैं। मैं अपनी असली भावना पर आ रहा हूँ । किसी ने उनका मन यह कह कर दुखा दिया था कि हिन्दू और मुसलमान की सरहद बनाते हैं। उनकी आँखे भर आयी थी। मैं बहुर देर तक उन्हें यह कहता रहा कि आपको किसी के प्रमाण पत्र की क्या जरूरत है। उन्हें मैंने राही मासूम राजा के आधा गाँव की भुमिका से लेकर टोपी शुक्ला के कई प्रसंगों को सुनाता रहा। उन्होंने मुझे वसीम वरेल्वी की एक रचना सुनाई और मैंने यही कहा कि नजीर भाई हर संशय वाले के लिए आपके पास सबसे बड़ा जवाब यही है। मैंने उनसे वसीम साहब की गजल नही ली इसलिए उसे पोस्ट नही कर रहा हूँ। पर जल्द ही नजीर भाई की और से वह रचना आपके सामने होगी।

17 अग॰ 2009

वर्तिका- नयी पारी और पुरानी कविता


एक दिन भडास ४ पढा। वर्तिका नंदा एक कालेज में पत्रकारिता पढाने लगी। मुझे उनकी एक पुरानी कविता ध्यान में आयी। कविता कोष पर मैंने पढी थी। लगा जैसे इस नयी पारी के लिए बहुत पहले ही उनका एक संकेत था।

किसने कहा था तुमसे किपंजाब के गांव में पैदा होसाहित्य में एम ए करोसूट पहनोऔर नाक में गवेली सी नथ भी लगा लोबाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाएऔर आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहोऔर आडिशन देने बस में बैठी चली आओकिसने कहा थाबिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओकिसने कहा थाहिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दोकिसने कहा था कि ये बताओ कितुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं हैकिसने कहा था बोल दो किपिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई हैक्यों कहा तुमने कितुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती होक्यों कहा कितुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती होक्यों कहा कि तुम' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना chahtee हों अब कह ही दिया है तुमने यह सबतो सुन लोतुम नहीं बन सकती एंकर।तुम कहीं और ही तलाशो नौकरीकिसी कस्बे मेंया फिर पंजाब के उसी गांव मेंजहां तुम पैदा हुई थी।ये खबरों की दुनिया हैयहां जो बिकता है, वही दिखता हैऔर अब टीवी पर गांव नहीं बिकताइसलिए तुम ढूंढो अपना ठोरकहीं और।

खता क्या है खुदा जाने

आनंद राय , गोरखपुर
अभी इसी शुक्रवार को मनोज राय ने मुझे फोन किया. भैया एस. पी. राय नहीं रहे. सुनकर स्तब्ध रह गया. पूर्व मंत्री कल्पनाथ राय के निजी सचिव रहे एस. पी. राय के निधन की खबर वाकई मेरे लिए दुखद थी. जब मैंने होश सम्भाला तबसे एस.पी राय को देख रहा हूँ. पहले बहुत ही सामान्य थे और बाद में बेहद ख़ास हो गए. कल्पनाथ राय की सत्ता में बढ़ती दखल के साथ ही एस.पी.राय का भी खूब प्रभाव बढ़ा. मुझे याद है कि जब वे अपने इलाके में आते थे तब उनके पीछे लम्बी कतार लग जाती थी. बेहद लोकप्रिय थे. उनकी एक चिट्ठी भी आजकल के मंत्रियों के रुतबे पर भारी थी. वे सबकी सुन लेते थे. कोई भी बात सुनने पर मंद मंद मुस्कराते थे. कभी इस बात का उन्हें गुमान भी नहीं था कि कल्पनाथ राय की सत्ता उनके ही इर्द गिर्द घूमती है. उनका गाँव ठाकुरगांव मेरे गाँव कोरौली से थोड़ी दूर है. वे मेरे चाचा के सबसे ख़ास दोस्त थे. उनका बडप्प्पन यही कि जब उनका जीवन सफलता के शीर्ष पर था तब जिन्दगी की जंग में बहुत पीछे रह गए मेरे चाचा से वे अपनी दोस्ती का निर्वाह करते थे. वे जब भी आते हमारे घर जरूर आते. मेरे चाचा के जीवन को बेहतर बनाने के लिए हमेशा उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया. खैर एस.पी. राय और हमारे बीच पारिवारिक रिश्ता रहते हुए भी एक लिहाज था. मैं उनका बहुत सम्मान करता था. उन दिनों जब कल्पनाथ राय से जुड़ा तो मैं एक महत्वपूर्ण कार्यकर्ता बन गया. एस.पी. राय ने मुझे कभी कुछ कहा नहीं लेकिन वे जानते थे कि छोटी उम्र में मुझे राय साहब के यहाँ जो महत्व मिल रहा है उसकी उम्र लम्बी नहीं है. सच भी यही हुआ. कल्पनाथ राय से मेरा वैचारिक मतभेद हो गया. उनके कुछ करीबी लोगों को मैं पसंद नहीं था और वे लोग मेरी बेबाकी पर जल भुन जाते थे. बहरहाल कलप्नाथ राय की वजह से ही मैं अखबार में आया. कुछ खबरों के छपने से कल्पनाथ राय के लोग परेशान होने लगे. उन दिनों पहली बार एस.पी. राय ने मुझ पर अपना हक़ समझते हुए कल्पनाथ राय से मिलाने की कोशिश की. मैं उनका स्वभाव समझ चुका था लिहाजा मैं मिलने नहीं गया. एस.पी. राय को मैं चाचा कहता था. और उनकी बात अनसुनी कर दी तो वे मुझसे थोडा नाराज भी हुए. कहीं मिलने पर मैं उनका अभिवादन करता और वे मुझे जवाब देकर नजर घुमा लेते. इस दौरान भी मेरे प्रति कभी उनके मन में दुर्भावना नहीं आयी. नरसिंह राव से जब कल्पनाथ राय का पंगा हुआ तभी जनसत्ता में कुमार संजय सिंह की एक रपट- वाकपटु नेता की चुप्पी के दिन, छपी. इस रिपोर्ट से मुझे अहसास हुआ कि अब कल्पनाथ राय के बुरे दिन आ रहे हैं. संजय सिंह कल्पनाथ राय के करीबी लोगों में से एक थे. कल्पनाथ राय का कांग्रेस के निकलना, मंत्रीमंडल से हटाना और फिर उन पर टाडा के तहत मुकदमा दर्ज होना. सब कुछ जल्दी जल्दी हो गया. एस.पी.राय भी टाडा के तहत फंस गए. दरअसल मुमबई के जे जे हास्पीटल में दाऊद के इशारे पर शैलेश हल्दारकर की गोली मारकर ह्त्या कर दी गयी. इसी मामले में ब्रिजेश सिंह का नाम आया. आरोप लगा कि एस.पी.राय ने कल्पनाथ राय के कहने पर गेस्ट हाउस बुक करवाया. एस.पी. राय भी तिहाड़ जेल में बंद हो गए. कल्पनाथ राय भी उसी जेल में थे. मैं दोनों लोगों से मिलने कई बार गया. मुलाक़ात कक्ष में जाली के उस पार से मुझे देखते हुए उनकी आँखे भर आयी थी. टाडा कोर्ट में भी पेशी के दौरान उनसे मिला. जेल में रहते हुए कल्पनाथ राय ने चुनाव लड़ा. उस समय एस.पी.राय और कल्पनाथ राय के बीच मतभेद की बात चल रही थी. पर एस.पी. राय ने इस बात को खारिज किया. उन्होंने अपने कई ख़ास लोगों को पत्र लिखा. मेरे एक मित्र घुन्नू एस.पी. राय की परछाई थे. एस.पी. राय जेल से रिहा हुए तो उनके घर पर आये और बहुत सी बातें हुई. रात में जब उन्होंने दो पैग लिया तो उनकी भाउकता चरम पर थी. उनसे मैंने सच जाने की कोशिश की. यही पूछा कि क्या वाकई आपने गेस्ट हाउस बुक कराया था. एस.पी. राय ने कोई सफाई देने जैसी बात नहीं की. उन्होंने एक शेर पढा- गुनहगारों में शामिल हूँ गुनाहों से नहीं वाकिफ, सजा को जानते है हम खता क्या है खुदा जाने. बस उनके इस जज्बात को मैंने एक रपट के रूप में दिया. यह रपट १३ अक्टूबर १९९६ को मेरे अखबार के लगभग सभी संस्करणों में छपी. एस.पी. राय से लोग सवाल करने लगे कि क्या वे चुनाव लडेंगे. उन्होंने बड़ी साफगोई से इनकार कर दिया. सियासत को उन्होंने बहुत करीब से देखा था और उन्हें लगता था कि यह किसी की नहीं है. उस जमाने में जब कल्पनाथ राय से उनके मतभेद हुए तो कल्पनाथ राय अपनी पत्नी समेत जिले की सभी विधान सभा सीटों पर प्रत्याशी लड़ा रहे थे. उनके सभी प्रत्याशी चुनाव हार गए. यहाँ तक कि उनकी पत्नी भी हार गयी. तब एस.पी. राय पर यह भी आरोप लगा कि उन्होंने ही चुनाव प्रभावित किया. इस पर उन्होंने बेबाक बयान दिया. एस.पी. राय अपने प्रति बहुत ही सजग थे और खुली किताब की तरह थे. घुन्नू के घर पर ही उन्होंने खुद मुझे बताया कि आरोप तो उनकी जिन्दगी के साथी हैं. एक बार उन पर आरोप लगा के जनरल बैद्य के हत्यारों को अपने पासोर्ट पर उन्होंने लन्दन भगा दिया. एस.पी. राय ने बताया था कि मेरा पासपोर्ट कहीं खो गया था और जिंदा और सुख्खा के हाथ लग गया. इसका उन लोगों ने प्रयोग किया लेकिन लन्दन में पकडे गए. बाद में पूना में एक अदालत लगी और वहां एस.पी. राय को भी पेश किया गया. अदालत ने सुनवाई के दौरान दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया. एस.पी राय निर्दोष साबित हुए. उनसे बातचीत में और भी कई बातें छन कर आयी थी. बाद के दिनों में मैं जब भी दिल्ली गया एस.पी. राय से जरूर मिला. उन्होंने बहुत सी बातें मुझे बतायी. कनाट प्लेस में अपने मित्र विनोद जैन के यहाँ वे बैठते थे. उनके बेटे की शादी हुई तो मुझे बहुत सी जिम्मेदारी सौप दिए. उनके दिल्ली से आये कई मेहमानों की मैंने मेजबानी की और सबने यही कहा एस.पी राय जैसा आदमी मिलना मुश्किल है. पूर्वांचल से बाहर वे नकारात्मक घटनाओं की वजह से ज्यादा सुर्खियों में आये लेकिन वे कल्पनाथ राय की असली राजनीतिक ताकत थे. पर उन्होंने कभी उसका इस्तेमाल अपने लिए नहीं किया. कल्पनाथ राय के मरने के बाद भी उनके एकमात्र पुत्र सिद्धार्थ के लिए ही उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगाई. शायद उन जैसों के लिए ही किसी ने लिखा- हम नींव के पत्थर हैं दिखाई न पड़ ये अपनी शराफत है कि मीनार खड़ी है.
महज ५४ साल की उम्र में तमाम सुख और दुःख सहते हुए एस.पी राय ने दुनिया को अलविदा कह दिया है। भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति दे और उनके परिवार को इस अपार दुःख को सहने की शक्ति।

15 अग॰ 2009

अदम गोंडवी

आज हम आजादी की ६२वी वर्ष गाँठ मना कर हर्ष में डूबे हैं. पर कुछ यक्ष प्रश्न आज भी हमारे सामने हैं. अदम गोंडवी की यह पुरानी रचना मायावती की इस सरकार में भी सवाल की तरह चुभ रही है.
आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप कोमैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपकोजिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब करमर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब करहै सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरीआ रही है सामने से हरखुआ की छोकरीचल रही है छंद के आयाम को देती दिशामैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसाकैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुईलग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुईकल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन हैजानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन हैथे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट कोसो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट कोडूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत सेघास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत सेआ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात मेंक्या पता उसको कि कोई भेिड़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थीमोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थीचीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गईछटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गईदिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गयावासना की आग में कौमार्य उसका जल गयाऔर उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज मेंहोश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद मेंजुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब थाजो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब थाबढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन हैपूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन हैकोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहींकच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहींकैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करेंऔर ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करेंबोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध सेबच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध सेपड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान मेंवे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान मेंदृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक परदेखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गयाकल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गयाकहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहोसुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहोदेखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहांपड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहांजैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर हैहाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर हैभेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआफिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआआज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गईजाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गईवो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गईवरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रहीजानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार हैहरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार हैकल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप कीगांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्रगी आपकी´बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया थाक्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर थाहां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर थारात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर थाभोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और थासिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ मेंएक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ मेंघेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकरएक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ करगिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गयासुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहाएक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहाहोश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार परठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -`मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो´और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगीबेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगीदुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में थावह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में थाघर को जलते देखकर वे होश को खोने लगेकुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहींहुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं ´´यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल सेआ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल सेफिर दहाड़े ``इनको डंडों से सुधारा जाएगाठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगाइक सिपाही ने कहा ``साइकिल किधर को मोड़ देंहोश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें´´बोला थानेदार ``मुर्गे की तरह मत बांग दोहोश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लोये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल हैऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है´´पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल ´उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार कोसड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार कोधर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार कोप्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार कोमैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव मेंतट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव मेंगांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रहीया अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रहीहैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिएबेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

14 अग॰ 2009

अब जेलों में भी होगी पढ़ाई और परीक्षा


आनन्द राय, गोरखपुर

मण्डलीय और जिला कारागारों में भी अब पढ़ाई और परीक्षा होगी। कारागार और शिक्षा विभाग ने इसके लिए समन्वय स्थापित कर लिया है और इस योजना को इसी सत्र से अमली जामा पहनाया जायेगा। जेलों में अक्षरों और शब्दों की गूंज से एक नये तरह के माहौल का विकास होगा और निरक्षर कैदियों को साक्षर बनाने की दिशा में कारगर पहल होगी। कारागार महानिरीक्षक और सचिव बेसिक शिक्षा परिषद की कई चक्रों की वार्ता और बैठक के बाद यह तय हुआ है कि कारागार में निरूद्ध बंदियों को कक्षा 5 व 8 की परीक्षा में सम्मिलित किया जायेगा और उन्हें प्रमाण पत्र भी दिया जायेगा। कैदियों को साक्षर बनाये जाने की कार्रवाई के संदर्भ में सचिव बेसिक शिक्षा परिषद ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों को भेजे गये पत्र में परीक्षा की व्यवस्था कराये जाने का निर्देश दिया है। ध्यान रहे कि जेल में तो शिक्षक की तैनाती रहती है लेकिन अब तक परीक्षा प्रणाली की कोई व्यवस्था नहीं रही। नयी व्यवस्था के मुताबिक जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी जेल के बंदियों को कक्षा 5 से 8 तक का पाठ्यक्रम उपलब्ध करायेंगे। यदि किताबें बची रहेंगी तो अनुरोध करने पर नि:शुल्क पुस्तक भी उपलब्ध करायेंगे। इस संदर्भ में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी सर्वदानन्द ने बताया कि कारागार के निकटवर्ती विद्यालय के प्रधानाध्यापक अपने एक शिक्षक को भेजकर परीक्षा सम्पन्न करायेंगे जबकि नामांकन का दायित्व जेल के शिक्षक का होगा। कैदियों की अ‌र्द्धवार्षिक और वार्षिक परीक्षा होगी। बीएसए को उत्तर पुस्तिका और सत्र पुस्तिका उपलब्ध कराने की भी जिम्मेदारी दी गयी है। उन्हें ही कापियों के मूल्यांकन और परीक्षाफल घोषित करने का दायित्व दिया गया है। श्री सर्वदानन्द के मुताबिक यह व्यवस्था इसी सत्र से शुरू होगी। बीएसए ने बताया कि यह व्यवस्था दोनों विभागों के आपसी समन्वय के बाद शुरू की गयी है।

पचपन साल से फाइलों में दबी है जलकुण्डी परियोजना


आनन्द राय, गोरखपुर

पूर्वाचल के 17-18 जिलों में कहीं सूखा है तो कहीं बाढ़ का खौफ सिर चढ़ कर बोल रहा है। सिद्धार्थनगर और महराजगंज जैसे जिले बाढ़ से प्रभावित हो गये हैं। इन दिनों अफवाहों की उड़ान बहुत ऊंची हो गयी है। जनप्रतिनिधियों से लेकर अभियंताओं तक को पड़ोसी देश नेपाल की याद आ रही है। अक्सर यह बात सुनायी देती कि नेपाल ने अपने यहां उफनायी नदियों का पानी भारत में छोड़ दिया। ऐसी सूचना से लोग सावधान रहते हैं। फिर तो जलकुण्डी परियोजना की चर्चा जरूर होती है। वाकई यह परियोजना वजूद में होती तो कम से कम पूर्वाचल के लाखों लोग हर साल बाढ़ से बेघर नहीं होते। जल कुण्डी परियोजना भारत और नेपाल के अस्तित्व और विकास से जुड़ी है। पर बेहतर समाधान न निकलने की वजह से यह अधर में पड़ी है। 1954 में भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू और नेपाल के राजा त्रिभुवन वीर विक्रम शाह देव के बीच वार्ता के बाद इस परियोजना के प्रस्ताव पर मुहर लगी। उन दिनों इसका परिव्यय 34 करोड़ रुपये अनुमोदित किया गया। 55 साल बीत गये मगर सियासी उपेक्षा के चलते इस परियोजना को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। तकनीकी विशेषज्ञों की दलील है कि अब पांच अरब खर्च करके भी इसको पूरा नहीं किया जा सकता। अस्तित्व में आने पर जलकुण्डी परियोजना पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए वरदान साबित हो सकती है। प्रस्ताव के मुताबिक नेपाल के भालू बांध नामक स्थान के निकट सिलिम पर 56 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाना है। इसके अलावा नेपाल से निकली राप्ती नदी एवं उसकी सहायक झिरमुख, खोला आदि नदियों के संगम पर नागौरी के निकट 163 मीटर ऊंचा बांध बनाये जाने का प्रस्ताव है। इन दोनों तटबंधों को अस्तित्व में लाकर दो बड़े जलाशय बनाये जाने हैं। योजना के मुताबिक इन दोनों जलाशयों में राप्ती और उसकी सहायक नदियों का पानी भण्डारण किया जाना है। इन जलाशयों की क्षमता 0.16 और 0.37 ए.एम.एफ. होगी। इस परियोजना के अस्तित्व में आने से बलिया, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर, महराजगंज, बस्ती, सिद्धार्थनगर, संत कबीर नगर, बहराइच, गोण्डा, श्रावस्ती और बलरामपुर जैसे जिलों में प्रतिवर्ष होने वाले व्यापक सैलाब पर अंकुश लगेगा और इन जलाशयों से सौ एवं पचास मेगावाट बिजली उत्पादन होगा। इसके तिरिक्त नेपाल के 76 हजार 400 हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई भी प्रस्तावित है। बिजली का उपभोग दोनों देशों को बराबर बराबर करने की सहमति बनी है। यह महत्वाकांक्षी परियोजना 55 साल से वजूद में आने को तरस रही है। प्रस्ताव बनने के बाद 1974 में इस परियोजना को लेकर इण्डो-नेपाल डच कमीशन की एक बैठक हुई लेकिन कोई कारगर नतीजा नहीं निकला। फिर 1982 में नेपाल सरकार ने इस पर एक आलेख प्रस्तुत किया। उसमें कई तकनीकी बिन्दु उठाये गये। फिर दोनों देशों के बीच संयुक्त तकनीकी समिति बनी। 1991 में फिर बैठक हुई फिर भी कोई कारगर नतीजा नहीं निकला। बाद में प्रदेश सरकार के मंत्री स्व. धनराज यादव ने इसके लिए सरकार में पहल की। तब तत्कालीन प्रमुख सचिव सिंचाई को वार्ता के लिए काठमाण्डू भेजा गया लेकिन तब भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। अब सब कुछ ठण्डे बस्ते के हवाले हो गया है।
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