18 अक्तू॰ 2008

नीरज का गुबार

गोपाल दास नीरज की यह रचना मन को छू जाती है
स्वप्न झरे फूल से,मीत चुभे शूल से,लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,पातपात झर गये कि शाख़शाख़ जल गई,चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,गीत अश्क बन गए,छंद हो दफन गए,साथ के सभी दिऐ धुआँधुआँ पहन गये,और हम झुकेझुके,मोड़ पर रुकेरुकेउम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।क्या शबाब था कि फूलफूल प्यार कर उठा,क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठाथाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,एक दिन मगर यहाँ,ऐसी कुछ हवा चली,लुट गयी कलीकली कि घुट गयी गलीगली,और हम लुटेलुटे,वक्त से पिटेपिटे,साँस की शराब का खुमार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,हो सका न कुछ मगर,शाम बन गई सहर,वह उठी लहर कि दह गये किले बिखरबिखर,और हम डरेडरे,नीर नयन में भरे,ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे!माँग भर चली कि एक, जब नई नई किरन,ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरनचरन,शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयननयन,पर तभी ज़हर भरी,गाज एक वह गिरी,पुँछ गया सिंदूर तारतार हुई चूनरी,और हम अजानसे,दूर के मकान से,पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।कारवाँ गुज़र गया, गुबार देखते रहे।

16 अक्तू॰ 2008

अरविन्द का बुकर

३३ साल के अरविन्द को बुकर अवार्ड मिला हैइसे लेकर हाय तौबा मची है मुझे लग रहा है कि यू पी और बिहार की गरीबी को शब्दों में पिरो कर और उसे बेचकर लोग बाग़ पुरस्कार जीत रहे हैं अक्सर देखा जा रहा है कि हम लोग सिर्फ़ किस्से और कहानियों की विषय वास्तु बन कर रह गए हैं कई फिल्में भी यहीं की जमीन से जुडी होती हैं और उसमें हमारे यहाँ की भाषा और बोली शामिल करके खूब पैसा कमाया जा रहा है वही फिल्में हिट भी होती हैं अमिताभ ने फिल्मों में यहाँ की बोली शामिल कर दी वह बाक्स आफिस पर हिट कर गयी दुनिया गिरमिटिया मजदूरों के इस इलाके की भूख, गरीबी और दर्द को अपने मजे का विषय समझ रही है अरविन्द के उपन्यास में जिस ट्रक ड्राइवर की जिंदगी को नायक और खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है वैसी जिंदगी तो बहुतेरों की है लेकिन उसमे मजा यह है कि आगे बढ़ने के लिए बिहार और यू पी के लोग कैसे होते हैं मुम्बई और दिल्ली में तो यू पी और बिहार के लोगों को किस नजर से देखा जाता है यह भी किसी से छिपा नही है

9 अक्तू॰ 2008

रावण की कथा सुनिए


एक चैनल पर रावण राम कथा सुना रहा था. देखा तो दिल बैठने लगा. अब अपना दर्द किससे कहें. रावण वैसे तो हर साल जलता है लेकिन उठकर खड़ा हों जाता है. पर चैनल वाले ने उससे अपनी जान पहचान कुछ ज्यादा ही बढा ली तभी तो वह तैयार हों गया अपने सबसे बडे दुश्मन की गौरवगाथा का बखान करने के लिये. राम वाकई राम हैं. रावण उनकी गाथा बखान कर रहा है तो कुछ गलत नही कह रहा है लेकिन टी वी वाले चैनल की महिमा मुझे कुछ ज्यादा ही न्यारी लगी. अब कोई पूछे कि ऐसा क्या हों गया उससे पहले ही मैं अपनी बात साफ कर दू. असल में एक चैनल ने एम्स के ऊपर एक स्टोरी चलायी. बताया कि जानवरो पर प्रयोग न करके बच्चो पर प्रयोग हो रहा है. बच्चे प्रयोग के चलते अपनी जान गवा रहे है. चैनल ने सलाह दी कि कोई अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए एम्स न जाये. पर दुनिया तो बहुत आगे है. आनन फानन में एक और चैनल खडा हों गया. यह एम्स के पक्ष में था. एक युवक जिसकी छाती की हड्डी टूट गयी थी और वह मौत के करीब था उसे एम्स ने बचा लिया. एक चैनल एम्स के साथ और दूसरा एम्स के विरोध में खडा था. मैं तो एक क्षण के लिए यह मान भी लिया कि रावण राम की कथा सुनाये तो क्या हर्ज है लेकिन असमंजस इस बात का था कि किस चैनल की बात मानू. यह मेरे लिए पहला असमन्जस नही था. ऐसा तो जब भी टी वी खोलते हैं असमंजस हों ही जाता है. कई बार जब दुर्घटनाएँ होती है तो मरने वालो की संख्या को लेकर असमंजस हों जाता है. सबकी संख्या अलग अलग होती है. सच तो कोई एक होगा लेकिन किस्से सबके अलग होते हैं. मीडिया का होने के नाते कई बार मुझसे लोग सवाल करते हैं पर क्या जवाब दूँ. कोई जवाब है भी तो नही.
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