9 जुल॰ 2009

वर्तिका की कवितायें

मशहूर टी वी जर्नलिस्ट वर्तिका नंदा की कवितायें मुझे दो दिन पहले मिली और बहुत ही अच्छी लगीं। एक सुखद अहसास और अपने अनुभवों को एक कड़ी में पिरोते हुए उन्होंने साहित्य की थाती को समृद्ध किया है। उनकी कविताओं को पोस्ट कर रहा हूँ ।
(1)
लगता है दिल का एक टुकडा
रानीखेत के उस बड़े मैदान के पास
पेड़ की छांव के नीचे ही रह गया।
उस टुकड़े ने प्यार देखा
था उसे वहीं रहने दो
वो कम से कम सुखी तो है।
(2)
पानी में जिस दिन कश्ती चली थी
तुम तब साथ थे
तब डूबते-डूबते भी लगा
था पानी क्या बिगाड़ लेगा।
(3)
लगता था
लेकिन खाली
था और जो असल में भरा
था उसे देखने की हिम्मत कहां थी।
(4)
लो, तुम्हें यह कविता दिखती
है ध्यान से देखो यह सिरहाना है
आंसू इनमें बसेरा डालते हैं
इन्हें ऊंची आवाज में न बांचना
कब्रगाह में वैसे ही काबिज है कंपन
(5)
पहले तो देर से ही आए
फिर जाने की लगी रही झड़ी
आने-जाने की फेहरिस्त में पता न चला
और वक्त आ गया
(6) ले चलो फिर से लेह के उस मठ के
पास जहां बच्चे कात रहे थे सूत
लगा था बार-बार मिल रहे थे वहां
बुद्ध मैं भी तब कहां थी सुध में उस दिन
समय गोद में आकर सो गया था
काश ! समय की नींद जरा लंबी होती।
(7)
ये अपनापे की ही ताकत
थी सन्नाटे में जो जुगनू
दिखे अपनापा गया बस डर रह गया
(8)
चाहत अब भी एक ही है
तुम से शुरू होती है
वहीं विराम लेती है
चाहत की डोर इतनी लंबी
जिंदगी क्या चीज है
(9)
चाहो तो बेवफा कह लो
या कह लो बेहया यह औरत ही थी
सिलवटों में भी उधड़-उधड़ कर खुद को बुनती रही।
(10)
धूप थी तो मन्नत थी
बरस जाए बदरा बदरा
आए तो मनन्त थी थम जाए
थमी तो मन्नत
थी सर्द हवा में छीलते मूंगफली
सब आता-जाता
रहा पर मन्नतें वहीं झूलती रहीं
हवा में बिगड़े नवाब सी।

6 जुल॰ 2009

विश्वनाथ मंदिर का स्वरूप वापस होगा


आचार्य हरिहर प्रसाद कृपालु त्रिपाठी जबसे काशी विश्वनाथ मन्दिर न्यास के अध्यक्ष हुए हैं तबसे मन्दिर का कायाकल्प शुरू हो गया है। भविष्य द्रष्टा आचार्य जी में रचनात्मकता कूट कूट कर भरी है। उनके प्रयास से बहुतों की जिन्दगी में सुख शान्ति आयी है। उनके भक्तों की लम्बी श्रृंख्ला है। वे भविष्य भूत और वर्तमान के ज्ञाता है।
डा. सीमा जावेद लखनऊ, 4 जुलाई : काशी विश्र्वनाथ मंदिर का पुराना स्वरूप फिर वापस होगा। मंदिर को अपने ऊपर चढ़े नकली एनेमल पेंट से जल्द मुक्ति मिलेगी। इसके लिए राष्ट्रीय संपदा संरक्षण प्रयोगशाला की टीम काशी पहुंच रही है, जो कई मर्तबा एनेमल पेंट के चढ़ने से मंदिर के पत्थरों को हुए नुकसान का आंकलन करेगी और पेंट हटाने की कार्ययोजना तैयार करेगी। बाबा भोले की नगरी के रूप में विख्यात काशी दुनिया का सबसे पुराना एकमात्र ऐसा शहर है, जिसका 3500 वर्ष पुराना लिखित इतिहास मौजूद है। यहां गंगा के पश्चिमी घाट पर भगवान शिव के बारह ज्योर्तिलिंग में से एक विश्र्वेश्र्वर लिंग पर काशी विश्र्वनाथ का मंदिर है। इसे इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होलकर ने 1780 में सैंड स्टोन पत्थरों से बनवाया था। 1785 में उस समय काशी के कलेक्टर इब्राहिम खान ने मंदिर के आगे नौबतखाना बनवाया। सन् 1839 पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह ने 1000 किलो सोना इसके दो गुम्बदों पर चढ़वाया। आदि शंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, स्वामी विवेकानंद आदि महापुरुष बाबा विश्र्वनाथ के दर्शन करके धन्य हुए। 28 जनवरी 1983 से प्रबंधन की कमान सरकार ने अपने हाथ में ले ली। सिटीजन फोरम के महासचिव शतरुद्ध प्रकाश ने बताया कि 2005 में वाराणसी के तत्कालीन कमिश्नर सीएम दुबे ने इन पुराने सैंड स्टोन पत्थरों पर एनेमल पेंट का मुलम्मा चढ़वा दिया। इस पर मची हाय तौबा के बावजूद उन्होने 2006 में दोबारा पेंट चढ़वा दिया। श्री काशी मंदिर न्यास परिषद द्वारा इस बारे में राज्य पुरातत्व विभाग से की गई पूछ-ताछ में विभाग के निदेशक डा. राकेश पांडे ने जानकारी दी कि सैंड स्टोन पत्थर पोरस होने से उनमें छिद्र होते हैं। इन छिद्रों के जरिये यह पत्थर सांस लेते हैं। एनेमल पेंट चढ़ने से यह छिद्र बंद हो गये, जो इस संरक्षित धरोहर के मूल स्वरूप के लिए खतरा है। इससे मंदिर का ढांचा क्षतिग्रस्त हो सकता है। इस मुलम्मे को उतरवाने के लिए श्री मंदिर न्यास परिषद के अध्यक्ष हरिहर कृपालु, काशी के डीएम एके उपाध्याय, एडीएम अनिल कुमार पांडे लगातार प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीय संपदा संरक्षण प्रयोगशाला के निदेशक एमवी नय्यर ने बताया कि वरिष्ठ तकनीकी पुर्नस्थापक विरेंद्र कुमार के नेतृत्व में टीम काशी जाकर इस एनेमल पेंट से सैंड स्टोन को हुए नुकसान का अध्ययन और फिर उसके नमूने लेकर प्रयोगशाला में उनका परीक्षण करेगी। इस परीक्षण से नुकसान का आंकलन करके आगे की कार्ययोजना तैयार होगी।

4 जुल॰ 2009

बेटे की शहादत ने नहीं सरकार ने रुला दिया


आनन्द राय, गोरखपुर

केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल में दरोगा रहे देव शरण पाण्डेय ने 1962 में एक गोली एक दुश्मन की ट्रेनिंग ली। मातृभूमि की रक्षा में उनके कितने साथियों की जान गयी और कितने दुश्मनों को उन्होंने निशाना बनाया, इसकी गिनती उन्हें याद नहीं है। इतना भर याद है कि जब इन्दिरा गांधी ने पाक के खिलाफ मोर्चा खोला तो अरगतला से ढाका तक उन्होंने पैदल मार्च किया। राजीव गांधी ने जब श्रीलंका में शांति सेना भेजी तो वे जाफना भी गये। 12 साल तक श्रीनगर में सरहद की हिफाजत करते रहे। जो काम वे नहीं कर पाये उनके बेटे संतोष ने कर दिखाया। 9 साल पहले श्रीनगर डलगेट पर आतंकवादियों से मुठभेड़ करते हुये उनके बेटे ने अपनी शहादत दे दी। बेटे की शहादत पर देवशरण नहीं रोये लेकिन सरकारी रवैये ने उन्हें रुला दिया है। इसके बावजूद वे अपने दूसरे बेटे को सेना में भेजना चाहते हैं ताकि उनका खून मातृभूमि के काम आ सके। गोरखपुर जिले का हरदिया गांव फौजी हनक से लबरेज है। इसी गांव में देवशरण पाण्डेय का घर है। शहीद बेटे की बहादुरी और सरकारी आश्र्वासनों के इंतजार में वे अपना दिन काट रहे हैं। कुछ भी कहने से पहले यह कहना नहीं भूलते कि अगर अब भी सरकार उन्हें सरहद पर भारत की रक्षा के लिए बुलाये तो हर गोली से एक दुश्मन मारेंगे। 18 सितम्बर 2000 को 92 बटालियन सीआपीएफ में तैनात उनके बड़े बेटे संतोष पाण्डेय की डलगेट पर आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान मौत हो गयी। उस समय देवशरण की तैनाती त्रिपुरा में थी। देश की रक्षा के लिए बेटे की शहादत ने उनका सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। बेटे की शहादत को सलामी देने अपने गांव लौटे तो पूरा प्रशासनिक अमला उनका इंतजार कर रहा था। प्रशासन ने उनका मान बढ़ाया और सरकार की ओर से वादों की झड़ी लगा दी। उन्हें पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी देने, घर तक सीसी रोड बनाने, शहीद के भाई को स्पोर्टस कालेज में नि:शुल्क पढ़ाई करवाने और शहीद के नाम पर स्कूल खोलने की घोषणा कर दी गयी। प्रशासन की ओर से जब यह बात कही गयी तब प्रदेश सरकार के मंत्रियों के साथ ही कई प्रमुख राजनीतिक लोग भी मौजूद थे। देवशरण पाण्डेय कहते हैं कि हमने एजेंसी के लिए सभी औपचारिकता पूरी करके फाइल भेजी लेकिन वह वापस लौट आयी। सड़क आज तक नहीं बनी। छोटे बेटे को स्पोर्टस कालेज भेजने के लिए कोई सहायता नहीं मिली। और सबसे दुख की बात यह कि गांव के प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालय की दीवारों पर शहीद बेटे का नाम लिखवा दिया गया लेकिन कागज में ये विद्यालय अभी भी उनके नाम पर नहीं है। देवशरण पाण्डेय कहते हैं कि मैं स्वार्थी नहीं हूं। मैं तो अपने दूसरे बेटे को भी भारत मां की हिफाजत के लिए सेना में भेजना चाहता हूं। पर दुख तो इस बात का है कि सरकार उन जवानों के साथ छल करती है जो सरहद की रखवाली के लिए अपने प्राणों की आहुति देते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्री समेत कई प्रमुख लोगों को पत्र भी लिखा है लेकिन अब सरकार से उन्हें कोई आस भी नहीं है।

1 जुल॰ 2009

एड्स के क्रूर पंजों से लड़ रहा जिंदगी की जंग


आनन्द राय, गोरखपुर

एड्स के रोगी अपने रोग से कम समाज की चुभती निगाहों से रोज रोज मरते हैं। मगर सत्ताइस साल का हरेन्द्र एड्स के क्रूर पंजों से जिदंगी की जंग लड़ रहा है। अपनी जिंदगी के अंधेरे में अलख जगाने की उसकी मुहिम जारी है। उसके कंधों पर बूढ़े मां-बाप के साथ ही बेरोजगार भैया-भाभी और 13 साल के एक भतीजे की परवरिश की जिम्मेदारी है। एक तरफ वह अपनी सांसे सहेज रहा है और दूसरी तरफ घर और समाज की चुनौतियों का हिम्मत से मुकाबला कर रहा है। वह एड्स के खौफ से तिल तिल कर मरने वालों के लिए सबक बनना चाहता है। गोरखपुर जिले के बांसगांव विकास खण्ड के बघराई गांव के 27 वर्षीय हरेन्द्र उर्फ मिण्टू की जिंदगी कई झंझावातों में उलझी हुई है। उसका पूरा परिवार दुखों की एक दास्तान है। एड्स रोगी के रूप में हरेन्द्र का सफर कुछ साल पहले शुरू हुआ लेकिन उसके पहले भी कभी उसके हिस्से में सुख नहीं आया। होश संभाला तो गरीबी की आंच ने तपा दिया। फिर कुछ ऐसे गम मिले जिसकी आंच में उसका मोम का कलेजा पत्थर की तरह मजबूत हो गया। हरेन्द्र के सबसे बड़े भाई शेषनाथ मुम्बई में नौकरी करते थे। 13 साल पहले अचानक लापता हो गये। उसने भाई की तलाश शुरू की तो मुम्बई की गलियों में उलझ गया। पता नहीं किस कोने से अपने लिए एक जंजाल उठा लाया। छोटी उम्र में विक्रौली, भिवण्डी, थाने.. और किस किस ओर भटका। भाई नहीं मिला। हरेन्द्र घर लौट आया। गांव में मां-बाप, भैया-भाभी और लापता सबसे बड़े भाई शेषनाथ की पत्नी सरोजा देवी और उनके एक बेटे को पालने की चुनौती सामने खड़ी थी। उसने यह सब बर्दाश्त कर लिया लेकिन भाभी सरोजा की पहाड़ जैसी जिंदगी चुभने लगी। हरेन्द्र ने वर्ष 2003 में घर परिवार और समाज की मर्जी से सरोजा देवी से शादी कर ली। दुख तो उसके साथ साथ चल रहे थे। कुछ समय तक पति पत्नी के रूप में हरेन्द्र और सरोजा के दिन चैन से बीते लेकिन नियति को यह भी मंजूर नहीं हुआ। पति और पत्नी दोनों बीमार रहने लगे। बीएचयू में इलाज कराने पहंुचा तो पता चला कि उन दोनों को एड्स है। चार माह पहले अचानक एक दिन सरोजा देवी चल बसी। पत्नी की मौत ने हरेन्द्र को तोड़ दिया लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। एड्स के खौफ से तिल तिल कर मरने की बजाय उसने जिदंगी का रास्ता चुना। नियमित इलाज के साथ ही दोनों वक्त योग करने लगा। उसने ठान ली कि जब तक जिदंगी है तब तक शान से जियेंगे। गांव की सड़क पर गुमटी में पान और जनरल मर्चेट की दुकान खोल दी। हरेन्द्र ने किसी से अपना रोग छिपाया भी नहीं। पूरी जिंदादिली के साथ वह एड्स के खौफ से डरने वालों को नसीहत देने लगा। चेहरे पर छा गये दुखों के बादल को उसने अपनी हंसी से पिघला दिया। हरेन्द्र की जिंदगी और उसके दुखों को जानने वालों की आंखें भले नम हो जाये लेकिन अब उसकी मुस्कान पर कोई फर्क नहीं है। इलाज में पैसे खर्च हो रहे हैं लेकिन अपनी मेहनत से वह पाई पाई जोड़ रहा है। आर्थिक तंगी है फिर भी घर परिवार का बोझ उठाते हुये उसने एक नयी लकीर खींच दी है। कहता है- वैसे भी एक दिन सबकी जिदंगी की डोर टूट जानी है तो जब तक जियो जीने का अहसास रहना ही चाहिये। हरेन्द्र के साथ समाज की सहानुभूति है तो ताने भी। कुछ उससे जलते हुये सवाल करते हैं। कैसे एड्स हुआ । हमदर्दी की बजाय फिकरे कसते हैं। हरेन्द्र सिर्फ यही कहता कि सीरिंज से हो गया लेकिन उसे किसी फिकरे की परवाह नहीं है। उसे भीख की तरह मिलने वाली दया भी मंजूर नहीं है। वह तो अपने हौसलों के बल पर अपनी जिंदगी का सफर पूरा करना चाहता है।
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