आनंद , gorakhpur
परमानंद जी गोरखपुर शहर के लिए गौरव की अनुभूति हैं। उनके बारे में कई तरह की बातें होती रहती हैं। दस फरवरी को उनका जन्म दिन है। गुजरे ९ फरवरी को जब देवेन्द्र आर्य ने दैनिक जागरण में उन पर एक ख़ास रपट लिखी तो ९ फरवरी को ही उनका जन्म दिन बता दिया। सुबह से ही परमानंद जी को बधाइयों का तांता लग गया। हमने भी फ़ोन किया तो फ़िर वे अपनी बात सुनाने लगे। उनके बारे कहते हैं कि बहुत आत्ममुग्ध रहते हैं लेकिन एक बात मैं महसूस करता हूँ कि वे दूसरों के लिए भी अच्छी भावना रखते हैं। उन पर देवेन्द्र आर्य ने जो रपट लिखी उसे हू ब हू प्रस्तुत कर रहा हूँ -
इसी 9 फरवरी को 75वें में प्रवेश करने वाले ख्यातिलब्ध आलोचक प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव जीवन के चौहत्तर वर्षो से लबालब भरे हैं। लगभग चार दशकों की कविता-कहानी-आलोचना की गहमागहमी; लेखन-सम्पादन; साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के जीवंत साक्षी और नए रचनाकारों के संरक्षक-आलोचक, परमानन्द श्रीवास्तव से इस अवसर पर की गई बातचीत अपेक्षा के विरुद्ध देश में बढ रही आतंकवादी गतिविधियों से शुरू हुई। अभी मैं उन्हें कुछ कहता कि वे कहने लगे- साहित्य में बडा मुद्दा इस समय आतंकवाद है। होना चाहिए। आतंकवाद को वैश्विक परिघटना माना जा रहा है परन्तु वह जो हमारे भीतर है, साम्प्रदायिकता की तरह, उसका क्या होगा?.. उपभोक्ता संस्कृति; मोबाइल-कल्चर... स्वार्थ प्रबल हो गए हैं.. हमारे समय का एक वरिष्ठ साहित्यकार- आलोचक ऐक्टिविस्ट बुद्धिजीवी की तरह दौर-ए-हाजिर पर उद्वेलित था। मैंने अभी-अभी मन्नू भण्डारी को मिले व्यास सम्मान की ओर उनका ध्यान खींचा। [कृष्णा सोबती ने अस्वीकार किया, आपने स्वीकार किया और मन्नू जी ने अन्तत: मंजूरी दे दी व्यास सम्मान के लिए। आपकी प्रतिक्रिया?] अस्वीकार के पीछे कृष्णा सोबती की ठसक है। अपने से कम उम्र के लेखकों को मिल जाने के कारण उन्होंने पुरस्कार ठुकराया। उन्हें उनकी पुस्तक समय सरगम के लिए चुना गया था।.. लेखक को थोडा विनम्र भी होना चाहिए।.. मन्नू जी को बधाई! बात पुरस्कारों की इंटीग्रिटी पर छिडी तो परमानन्द जी कहने लगे- अब तो लेखक की इन्टीग्रिटी पर भी प्रश्नचिह्न है। सैनी अशेष के उपन्यास देवधरा का योगी के पात्रों और स्नोवा बार्नो के प्रकाशित उपन्यास अंश अंधकार के देहपर्व में आश्चर्यजनक रूप से समानता है। अनाशा, मध्या, उपांश, वे ही पात्र। स्नोवा ने मेरे पत्र के उत्तर में कहा कि वे सैनी के साथ सहलेखन कर रही हैं। पुरस्कारों में प्रविष्ट हो रही गुटबाजी और राजनीति से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु सबसे बावजूद अभी भी पाठक ही बडा है। वही किसी लेखक को बडा बनाता है। [परन्तु जनता के लिए लिखे गए साहित्य को जनता के बीच कितनी स्वीकृति मिल पा रही है?] देखो, यह सही है कि साहित्य में दिखावेबाजी बढ रही है और संवादधर्मिता लगातार कम होती जा रही है।.. मुझे लगता है बडे समारोहों से बचकर लेखकों की कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिए। नए लेखकों से पुराने और पुरानों से नए सीखें-समझें।.. नएपन की उपेक्षा करना ठीक नहीं। [परमानन्द जी, क्या आपको नहीं लगता कि आलोचना की पाठ-प्रणाली और रचनाकार विशेष के लिए कसौटी विशेष की मांग साहित्यिक अराजकता का माहौल पैदा कर रही है। पैसा, पद, प्रतिष्ठा और पहुंच का साहित्यिक मूल्यांकनों में कितना हाथ होता है?] इस जलते प्रश्न ने परमानन्द जी को आलोचकीय-मूड में ला दिया।.. आलोचना पाठ केंद्रित ही हो यह मांग गलत है। पाठ से अधिक संदर्भ, परिवेश। पर्सनल इज पोलिटिकल के इस दौर में आलोचना को वैयक्तिक कर्म कह पाना कठिन है। प्रलोभनों से बचना होगा। आलोचना में नाम गिनाना व्यर्थ है। वह कैनन बनाती है तो प्रतिमानीकरण को चुनौती भी देती है। मार्क्स ने सोशल सोल की बात कही थी.. तो आलोचना समाजशास्त्र हुए बिना भी सामाजिक संवेदनशून्य नहीं हो सकती। अब तक माहौल गरम हो चुका था और चाय ठण्डी। [कहीं यह कविता और आलोचना का सिम्बालिक फर्क तो नहीं है.. यदि छोडनी ही पडे तो कविता और आलोचना में कौन सी विधा बाद में छोडेंगे? .. छन्द तो आपने छोड ही दिए..] मैं बुनियादी तौर पर कवि हूं। कविता से ही आलोचना सर्जनात्मक बनी रह पाई है। कविता एक अनन्तकाल में विचरण करती है। वह विगत से भविष्य तक अनन्तयात्री बनी रहती है। कवि का अन्त:करण संक्षिप्त होगा तो वह न तो अच्छे गीत लिख सकेगा न श्रेष्ठ कविता। इन दिनों छन्द और छन्दहीन दोनों की अराजकता है। आज भी हम मायकोवस्की से, कबीर से, निराला से, सुकांत भट्टाचार्य से सीख सकते हैं। फिराक से भी। कुछ फिराक अपनी सुनाओ, कुछ जमाने की कहो।.. तो कविता आप बीती भी है और जगबीती भी। [डा. साहब, आप अपने पच्चासी के होने की कल्पना करें और बताएं कि आगामी दस वर्षो बाद कहानी-कविता की दुनिया में क्या-क्या संभावित है। आज के चर्चित हो रहे कवि-कथाकारों में से कितने अगले दशक में जा पाएंगे?] कविता का जहां तक सवाल है, गद्य के मुहावरे में लिखी जा रही कविता में ठहराव नजर आ रहा है। रघुवीर सहाय ने कहा था कि कविता में छंद आए मगर वर्तुल बनकर। कविता में ठहराव है, नकल है। मुझे लगता है कि असर जैदी की इधर लिखी कविताओं ने सादगी के सौन्दर्यशास्त्र को महत्व दिलाया है। दस वर्षो बाद प्रबंध भी लिखे जाएंगे शायद। वाजश्रवा के बहाने की तरह। विधाओं में लगातार तोड-फोड जरूरी है परन्तु तोड-फोड के बाद भी विन्यास जरूरी है। आप तोड के बना क्या रहे हैं, यह महत्व का है। लोक से जुडा कवि जिसमें अतीत और नवीनता में भेद नहीं होगा, वही दस वर्षो बाद ठहरेगा। लीलाधर जगूडी की तरह कविता को हमेशा जटिल बनाए रखने की प्रवृत्ति घातक है। कहानी में भी अल्पना मिश्र की तरह वे ही लोग आगे तक जा पाएंगे जिनमें भाषा को नई ऊंचाई और संस्कार देने का माद्दा होगा। कभी-कभी कृति अपने समय में गुम हो जाती है। जैसे संतोष चौबे का उपन्यास क्या पता कामरेड मोहन। इसे एक राजनैतिक उपन्यास की तरह देखा ही नहीं गया। रचनाकारों को वर्जित प्रदेश में प्रवेश करना होगा। चन्दन पाण्डे कल के मन्टो हो सकते हैं।.. .. हां, मैं बैठे ठाले भी बहुत कुछ पढ लेता हूं। महत्वपूर्ण संग्रह, किताबें एक बार में नहीं खुलतीं। कई बार पढता हूं। आस्वादपूर्वक। [हां, डा. साहब आपकी आलोचना का प्रस्थान बिन्दु ही रचना-आस्वाद है।.. आस्वाद, विश्लेषण और रेटिंग। कृति या कृतिकार अपने समय में कहां खडा है। आखिर क्यों अंशुल त्रिपाठी कवियों की गणना में नहीं हैं जबकि विवेक निराला को चर्चा मिली। तमाम बाते हैं।..] .. विषय-वैविध्य, भाषा का जादू और आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति, यही कसौटी बनेगी, अगले दशक में जाने और ठहर पाने वाले कवियों-कथाकारों की। [और आलोचकों की कसौटी?] सब एक ही दिन क्या। [प्रमुख प्रकाशित कृतियां] [कविता संग्रह:] उजली हंसी के छोर पर (1960), अगली शताब्दी के बारे में (1981), चौथा शब्द (1993), एक अनायक का वृतांत (2004) [कहानी संग्रह:] रुका हुआ समय (2005), नींद में मृत्यु (यंत्रस्थ) [आलोचना:] नई कविता का परिप्रेक्ष्य (1965), हिन्दी कहानी की रचना प्रक्रिया (1965), कवि कर्म और काव्यभाषा (1975), उपन्यास का यथार्थ, रचनात्मक भाषा (1976), जैनेन्द्र के उपन्यास (1976), समकालीन कविता का व्याकरण (1980), समकालीन कविता का यथार्थ (1980), शब्द और मनुष्य (1988), उपन्यास का पुनर्जन्म (1995), कविता का अर्थात (1999), कविता का उत्तरजीवन (2005) [डायरी:] एक विस्थापित की डायरी (2005) [निबंध:] अंधेरे कुएं से आवाज (2005) -[देवेन्द्र आर्य]
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