29 फ़र॰ 2008

अपनी सरहद की सुरछा ख़ुद करें

आज फ़िर अशोक चौधरी ने मुझे टोका। उनकी मंशा है मैं फ़िल्म फेस्टिवल पर कुछ लिखूं। क्या लिखूं, कैसे लिखूं और किसको लिखूं। बस इसी सवाल से टकरा रहा हूँ। भाई मनोज सिंह इस बार उत्सव के संयोजक थे। बहुत अच्छा प्रयास रहा। मैं तो अशोक और मनोज से सिर्फ़ इस बात से प्रभवित हुआ की इन लोगों ने अच्छा विषय चुना। मेरे गुरु जी कहते हीं जहाँ रहो अपनी सरहद की सुरछा ख़ुद सोचो। गोरखपुर में आयोजित तीसरा फ़िल्म फेस्टिवल विस्थापन और बंटवारे का दर्द समेटे था। अपना गोरखपुर जिस दौर से गुजर रहा है वहाँ भी कुछ ऐसा ही दर्द है। १९६५ से पहले गोरखपुर में कभी दंगे फसाद नही हुए। १९६५ में सियासत ने कुछ ख़राब हालत पैदा किए तो फ़िर कहानी किस्से बदल गए। अब तो ४३ साल में यह शहर ७ बार कर्फू झेल चुका है। मंगलेश डबराल ने अपने सम्पादकीय उद्बोधन में लिखा है- सच यह है की एक बार विस्थापित हुआ मनुष्य या उसका समाज फ़िर कंही उस तरह नही बस पाता, वह हमेशा विस्थापित ही रहता है और भौतिक ही नही, मानसिक और संवेदनातमक स्तर पर बहुत कुछ सदा के लिए खो चुका होता है। यहाँ बिभाजन भौतिक तो नही हुआ लेकिन मानसिक स्तर पर हम बहुत बट गए। कितनी दीवारें खडी हो गई हैं। कितनी खाई ख़ुद गई है। कितने लोगों ने बाद लगा दी है। रिश्ते और उनकी परिभाषाएं बदल गई हैं। कोई तो सोचे। कई तो जाने। कोई तो समझे। अशोक और मनोज ने उसे समझा। वे समझ रहे हैं। मैं तो इसी बात से खुश हूँ। तीन बार इस शहर में कर्फूं के घाव को हमनेशब्दों में पिरोया है। औरकभी- कभी हवाएं बहती हैं तो दर्द की टीस भी होती है। इस टीस को भरने के लिए जन सिनेमा ने मरहम का काम किया है। फ़िल्म उत्सव के प्रेसिडेंट प्रोफेसर रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने फ़िल्म उत्सव की शुरूआत को किसी बड़े शुरूआत की संभावना बताया और यकीनन हम भी इसे बड़ी शुरूआत मानते हैं। पिछली बार के पहले जब यहाँ दंगा हुआ तो दो लाशें गिरी। विनय और साबिर। एक हिन्दू और एक मुसलमान। पिछली बार कर्फू लगा तो हम शहर-ऐ-काजी मौलाना वलिउल्लाह के पास गए थे। वे बोले तो बहुत कुछ पर हमने सिर्फ़ एक बात सूनी। न तुम हमको मारो, न हम तुमको मारें। बात काजी की ही नही बात तो हमने बहुतों की सूनी पर क्या क्या सुनाएँ। अलगू और जुम्मन के शहर में उठी हुई दीवारों को अगर कोई गिरा रहा है तो मेरे लिखने और न लिखने से कुछ नही होगा। जो लोग ख़ुद को शब्दों का, शहरों का, सबूतों का, संबंधों का, सिलसिलों का और शहदतों का मसीहा समझते होंगें उनके लिए ऐसे आयोजनों का कोई मतलब भले न हो पर मैं तो इसका मतलब निकलता हूँ। मेरे लिए तो गर्म हवा एक संदेश देती है। क्योंकि मैं जलते हुए शहर में हूँ। मेरे लिए यह भी तो सोचने का विषय है- राज ठाकरे और बाला ठाकरे जैसों की सियासत साथ नही देती तो वे हिन्दू को भी बांटते हैं। तो उनके लिए हिन्दुओं में भी मराठी और यू पी बिहारी का भेद होई जाता है। वे यू पी और बिहार वालों को मुम्बई से भगाने लगते हैं। फ़िर तोएक सवाल उठता ही है पूर्वांचल और बिहार के लाखों लोग मुम्बई में रोजी रोटी कमाते हैं। उनके पेट के लिए कोई तो आवाज उतनी चाहिए। अबू आसिम आजमी का नाम कुछ लोगों ने खांचों में बात दिया है। मेरे लिए तो उस आदमी का नाम उन कई संतों और महंथों से बेहतर है जो कुछ कहते भी हैं तो उसकी राजनीतिक लकीरें जरूर खींच जाती है। वोट बुरी आत्मा का नाम है। इसकी परछाई हमारेमाहौल को नुकसान कर रही है। हमे कहना सिर्फ़ इतना है की अशोक और उनके सभी साथियों ने मिल कर बड़ा काम किया है। यह प्रयास ऐसे ही चलता रहे। मैं अपने इन्ही भावों के जरिये मंगलेस डबराल, एम् एस सत्त्हू, विरेन डंगवाल, परनाब मुखर्जी, लाडली, बल्ली सिंह चीमा, जहूर आलम और पंकज चतुर्वेदी के साथ ही उन सभी लोगों के प्रति शुक्रगुजार हूँ जिन लोगों ने अपना सहयोग दिया। मैं विशेष रूप से राम जी राय के प्रति अपनी भावना व्यक्त करना चाहता हूँ जिनसे १५ साल पहले मैं दिल्ली में मिला था। उस समय वे वहीं से समकालीन जनमत निकलते थे, साम्प्रदायिकता कितनी घातक है इसका अर्थ उन्होंने मुझे तभी समझाया था। आयोजन से जुड़े सभी साथियों को धन्यबाद।

फिराक को याद करेगा प्रेस क्लब


प्रेस क्लब के मंत्री नवनीत ने बताया है- फिराक गोरखपुरी की पुण्य तिथि पर ३ मार्च को प्रेस क्लब में एक व्याख्यान माला का आयोजन होगा। यह सूचना बहुत सुखद है।

28 फ़र॰ 2008

भाई की मौत पर हाय-हाय करते फिराक

इसी आने वाले तीन मार्च को फिराक गोरखपुरी को गुजरे २६ साल हो जायेंगें। उनकी गजलों और नज्मों ने हिन्दी उर्दू में अपना अलग मुकाम बनाया है। वे साहित्य की दुनिया में मील के पत्थर हैं। गोरखपुर को इस बात का गर्व है की वे इस माटी के सपूत हैं। फिराक पर भारत को ही नही पूरी दुनिया को गर्व है। फिराक के जीवन से जुड़े कुछ ऐसे संदर्भ हैं जो उनकी रचनाओं में उतरें हैं। बात तबकी है जब १९२२ में असहयोग आन्दोलन के जुर्म की सजा में वे कैद काट रहे थे। बमुश्किल २१-२२ वर्ष की आयु में उनके छोटे भाई की मौत हो गई। जेल में फिराक को उस भाई की मौत का समाचार मिला जिसे वे बीमार छोड़ कर गए थे। भाई को टीबी थी। उन्होंने अपने भाई के लिए जो अशआर लिखे वे मशहूर तो हुए लेकिन यह कम लोग जानते हैं की फिराक इसे लिखते हुए खून के आंसू रोये। ख़ास बात यह भी की भाई के मरने के तुरंत बाद की गई rachnaa१९३५ में सार्वजनिक हुई।


घाट पर जलने- जलाने के हैं सामां हाय-हाय


किस कद्र खामोश है शहर-ऐ- ख्मोशा हाय-हाय


मिटती जाती है उफक से सुर्खिये-ऐ- रंग शफक


बढ़ता जाता है स्वाद-ऐ-शाम-ऐ- जिंदा हाय-हाय


वो सुकुते-ऐ-गम वो एक हंगामा बे-शोरोशर


याद आके कुछ वो उठना दर्द-ऐ-हिजरां हाय-हाय


एक सन्नाटे का आलम है दरों-दीवार पर


शाम-ऐ- जिन्दान अब हुई तो शाम-ऐ-जिंदान हाय-हाय


यह चमकते दर्द, यह जुल्मत, यह दिल उमड हुए


यह छलकते जाम यह बज्मे चिरागा हाय-हाय


अब कहाँ है खून रोने वाले मेरे दर्द पर


खाक में मिल जाने वाले लाला कारा हाय-हाय


निजा में देखा था वो चेहरा उतरते अहले दिल


उस शकिस्ट-ऐ-रंग के आइना दारा हाय-हाय


उफ़ बगूलों का यह आलम बाढ़ ऐ सर सर का यह जोश


खाक उडाता है तेरे गम में बयाँबा हाय-हाय


मरने वाले याद आती है जन्वामरगी तेरी


उठ गया दिल में लिए तूं दिल के अरमान हाय-हाय


याद आयेगी किसी शोरीदा सर वह्शातें


देख कर गुल्कारिये दीवारे जिंदा हाय-हाय


सोने वाले ख़ाक वीरानों में उड़ती है तेरी


बादसर सर है तेरी गह्वारा-ऐ- जुम्बा हाय-हाय


यह घड़ी भी आयी और जीता हूँ मैं हिर्मानसीब


छूटता है हाथ से दामान-ऐ-जाना हाय-हाय


नश्तर-ऐ-गम उज्लते जज्ब-ऐ-निहां की दाद दे


कर लिया तुझको भी पैवस्त-ऐ-रग-ऐ-जान हाय-हाय


मेरी किस्मत में तुझे कान्धा भी देना जब न था


दिल ने यों बांधा था तुझसे अह्दो पैमा हाय-हाय


अलविदा ऐ जोर-ऐ-बाजू प्यारे भाई अल फिराक


अब तो मैं हूँ और तेरे दाग-ऐ-हिजरां हाय-हाय


कैद में जी खोल के रोना भी मुश्किल हो गया


अब मैं समझा माँअनी-ऐ-तंगी-ऐ-जिंदा हाय-हाय


आह! यह आदाब-ऐ-जिंदा यह शआर-ऐ-जब्त-ऐ-गम


यह वफूर-ऐ-दर्द यह हाल ये परीशान हाय-हाय


अपने मरने पर मेरा रोना था तुझको गवार


इतना कब था मुझको पास-ऐ-अहल-ऐ-जिंदा हाय-हाय


शर्म आती है मुझे जीने से तुझको खो के आह!


इस तरह करना न था तुझको पशेमा हाय-हाय


कैद में भी परदादाआरी गम की मुश्किल हो गई


खुल गया राज-ऐ-दरों- दीवार-ऐ-जिंदा हाय-हाय


घर को मैं क्या मुंह दिखाउंगा रिहा होकर फिराक


मैं असीर और उनके यह हाल-ऐ-परेशा हाय-हाय





26 फ़र॰ 2008

तुम कौन अपिरिचित घर आए


टैगोर और गीतांजली। नाम सुनते ही एक अलग अनुभूति होती है। महेश चन्द त्रिपाठी ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया है। पढ़ कर बहुत सुख मिलता है। भाव का बड़ा धरातल सामने दिखने लगता है। एक कविता है- तुम कौन अपिरिचित घर आए। रविन्द्र नाथ टैगोर की गीतांजलि का अनुवाद करते हुए महेश जी ने इसे सबसे पहला स्थान दिया है।

तुम कौन अपिरिचित घर आए

दर्शन न दिए, सुख पंहुचाये

मन का तम भाग गया सारा

फैला अंतस में उजियारा

उर में उग आए अगडित रवि

लख न सका तेरी मोहक छवि

पर तुम मन मन्दिर में छाये

तुम कौन अपिरिचित घर आए

तुम को पा जीवन बदल गया

जीवन में सब कुछ नया नया

तुम संग संग करते बिहार

अपना जीवन तुम पर निसार

कर धन्य हुए, हम हर्शाये

तुम कौन अपिरिचित घर आए।

गुनाह और बंजारे, ज़रा आप भी विचारें

मैत्रेयी पुष्पा ने अल्मा कबूतरी उपन्यास लिखा है। जन जातियों और कबीलों में रहने वाले खानाबदोश लोंगों की कहानी है। कहानी में खास तौर पर पुलिस द्वारा ऐसे लोगों को अपराधी बनाए जाने की पड़ताल है। कई निर्दोष लोगों को गुनाह के दलदल में धकेले जाने की गाथा है। बहुत पहले नागेश मिश्रा ने मुझे यह उपन्यास पढने को दिया था और मुझे बेहद पसंद आया। असल में पुलिस की नौकरी में नागेश को कई अनुभव हासिल हुए और उन्होंने माना की कई बार मजबूरी बस इनपर कार्रवाई करनी पड़ती है। कल पुलिस ने एक अपराधी के जीवन की हस्तरेखा मिटा दी। जिस आदमी को पुलिस ने कल गोलियों से भून दिया उसके घर की कहानी वेदनाओं से भरी है। आजादी केबाद इस खानाबदोश परिवार का बुधिराम दाढी बनकटिया गांव के नन्दलाल केवट की निगाह में आया। उस जमाने में बुधिराम पहलवान था। बंजारों की तरह कभी यहाँ तो कभी वहा अपने लोगों को लिए वह घूमता रहता।घर कीमाहिलायेंसाथ में होती और उन पर सबकी निगाहें होती। एक बार ऐसे ही किसी जलती हुई निगाह को अपने घर के अंदर बुधिराम ने जाते हुए देखा तो उसका खून खौल गया। बुधिराम ने उस आदमी को अधमरा कर दिया। बलशाली बुधिराम को नंदलाल ने अपनी जमीन में जगह दी और फ़िर उन सबकी जिन्दगी बनकटिया में गुजरने लगी। केवट परिवार ने दाढी परिवार की ताकत और हुनर का खूब इस्तेमाल किया। बुधिराम के दूसरी पीढी के बलशाली जवान मारपीट और चोरी में आगे निकल गए। दाढी परिवार की यह दूसरी पीढ़ी भी केवट परिवार की वफादार रही। तीसरी पीढ़ी में सुंदर और स्मार्ट लड़के हुए। उसी तरह की लडकियां भी। बस दोनों परिवारों में एक दरार पड़ने लगी। जर और जमीन तो झगडे की वजह नही बन सकी लेकिन जोरू आदे आ गई। बुधिराम की तीसरी पीढ़ी में पन्ने और श्रीपत नाम के दो जवान हुए। अपराध की राह पर परिवार पहले से था लेकिन ये दोनों आधुनिक हो गए। चोरी और नक्ब छोड़ कर लूट करने लगे। यह हुनर केवट परिवार की छाया में सीखे। श्रीपत की बहन की अस्मत और लूटी हुई एक गाड़ी के लिए केवट परिवार के महेन्द्र से तकरार बढ़ी तो एक दिन श्रीपत और पन्ने ने महेन्द्र को मार गिराया और उसकी बंदूक लूट लिए। फ़िर सिलसिला मौत का शुरू हुआ। दोनों परिवारों में लाश गिरने लगी। केवट परिवार के चार लोग मारे गए और दाढ़ी परिवार के भी आधा दर्जन से अधिक लोग। फर्क यही की केवट परिवार दाढ़ी परिवार की गोलियओं का निशाना बना और दाढ़ी परिवार पुलिस की गोलियों का। कल जिस शिवप्रसाद दाढी को पुलिस ने सहजनवा में अपनी गोलियों का शिकार बनाया वह अपराधी था इससे इनकार नही किया जा सकता। शिवप्रसाद समेत इस परिवार के पन्ने, श्रीपत, प्रकाश, शिवमूरत पुलिस की गोली के शिकार बन गए हैं। पन्ने के बाप तेजमन को एक गाँव में नकबजनी के दौरान लोगों ने काट डाला। १० फरवरी १९९८ को श्रीपत कोराजधानी में पुलिस ने मारा था। अपराध की राह पर चलते हुए श्रीपत इतना शातिर हो गया की उसने गोल बनाकर अपराध से राजनीति में गए बाहुबली विधायक ओंप्रकाश पासवान की हत्या कर दी। चुनाव प्रचार के दौरान श्रीपत और उसके साथियों ने देशी बम से एक दर्जन लोगों कोउड़ा दिया। पर उसके बाद श्रीपत के घर में अगर किसी ने चैन की जिन्दगी गुजारने की सोची भी तो पुलिस ने अपराध की राह पर चलने को मजबूर कर दिया। यह एक ऐसे व्यथित परिवार की गाथा है जिसका इतिहास स्याह है। पर एक सच्चाई यह भी है की एक जांबाज परिवार को ग़लत राह पर धकेल कर उनकी उर्जा बरबाद कर दी गई।

यकीनन! कभी कभी सड़कों, गलियों में घुमते या अपराध सुर्खियों में दिखायी देने वाले कंजर,दाढी, करवाल, सांसी, नत, मदारीसपेरे, बंजारे, बावरिया, कबुत्राए, न जाने कितनी जातियाँ हैं जो सभ्य समाज के हाशिये पर डेरा लगाए सदियाँ गुजार देती हैं। हमारा उनसे चौकन्ना सम्बन्ध सिर्फ़ कामचलाऊ ही बना रहता है। उनके लिए हम सब सभ्य और उनका इस्तेमाल करने वाले शोषक- उनके अपराधों से डरते हुए, मगर उन्हें अपराधी बनाए जाने के आग्रही। हमारे लिए वे ऐसे छापामार गुरिल्ले हैं जो हमारी असावधानियों की दरारों से झपट्टा मार कर वापस अपनी दुनिया में जाकर छिप जाते हैं। ऐसे लोग या तो जेल में रहतें हैं या फ़िर अपराध के सफर में, इनके घरों की महिलाएं शराब की भट्टियों पर या सभ्य कहे जाने वालों के बिस्तरों पर। यह परिवार तो एक नजीर है लेकिन ऐसे बहुत से परिवार पूर्वांचल में भटक रहे हैं और उनके हाथों अपराध हो रहे हैं। फूलन देवी, मान सिंह, मलखान सिंह, ब्रजेश और राजन जैसों को राजनीतिक दल पनाह देकर उन्हें वोट के कारोबार में उतारते हैं और माननीय बना देते हैं। सुनील पाण्डेय और मुन्ना शुक्ला जैसों को विधान सभा में जगह मिल जाती है। अन्नत सिंह बंदूकें लहराता है और सरेशाम मौत का फरमान जारी कर देता है लेकिन उन पर पुलिस के हाथ नही पंहुच पाते। ये बंज्जारे हैं। थके हारे। पता नही कबसे अपनी छाती में इतिहास का दर्द छिपाये .........अपराध पर अपराध करते जा रहे हैं। इनकी व्यथा को समझने के लिए तो कोई जयप्रकाश नारायण चाहिए, कोई सुब्बा राव चाहिए, मगर उत्तर परदेश अथवा इस देश की पुलिस में ऐसे लोगों की बात दूर, ऐसा सोचने वाले भी नही हैं और अगर किसी ने सोचा तो आपख़ुद नतीजा सोच सकते हैं।

मुझको कत्ल करो


अभी गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल में मैंने गर्म हवा देखी । पूरी फ़िल्म देख नही पाया। पर फ़िल्म से पहले मंगलेश डबराल ने उसकी भूमिका बताई। बंटवारे और विस्थापन का दर्द समेटे एक ऐसे आदमी की दास्ताँ जो मन को भर दे। ऐसे मौकों पर मुझे बराबर राही मासूम राजा याद आते हैं। उनकी कुछ रचनाएं याद आती हैं।

राही की एक कविता जो उन्होंने १९६४ में अलीगढ़ में रहते हुए लिखी। यह कविता हर छड़ एक नया सवाल लिए खड़ी रहती है-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको कत्ल करो

और मेरे घर में आग लगा दो

मेरे उस कमरे की अस्मत लूटो

जिसमें मेरी ब्याजें जाग रही हैं

और मैं जिसमें तुलसी के रामायण से

सर्गोशी करके कालिदास के

मेघदूत से यह कहता हूँ:

मेरा भी एक संदेशा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंकों

और उस जोगी से यह कह दो:

महादेव!

अब इस गंगा को वापस ले लो

यह मलेछ तुर्कों के बदन में गार्हा गर्म लहू बन-बन कर दौड़ रही है।

मैं इस कविता को भाई अशोक चौधरी और मनोज सिंह के लिए विशेष रूप से अर्ज किया हूँ जिनके जेहन में हर पल अमन का राग सुनाई पड़ता है और इसके लिए इनकी सक्रियता बनी रहती है। उनके सफल आयोजन के लिए बधाई ।

20 फ़र॰ 2008

दुःख को सहने की शक्ति दे भगवान्


अमर सिंह के पिता ठाकुर हरिश्चंद सिंह नही रहे। भगवान् उनकी आत्मा को शान्ति देन और शोकाकुल परिवार को दुःख सहने की शक्ति प्रदान करें। सियासत में अमर सिंह को लेकर चाहे जितनी बातें हों पर व्यक्तिगत जीवन में वे बहुत भावुक हैं। जिनसे उनका रिश्ता है उनके लिए वे नफा नुकसान नही सोचते। एक फ़िल्म मैंने देखी थी कार्पोरेट। इसमे आख़िरी बात यही थी कि कार्पोरेट सेक्टर में संवेदना का कोई मतलब नही होता। अमर सिंह इसी सेक्टर में रहते हुए बहुत ही संवेदन शील हैं। अपने लोंगों के घर चाहे गमी हो या फिर उत्सव वे पूरे उत्साह के साथ शामिल होते हैं। हरिवंश रे बच्चन के निधन पर उन्हें जितना शोकाकुल देखा उतना ही वे रामप्यारे सिंह के मौत पर भी दुखी थे। राम प्यारे सिंह मंत्री रहते हुए बीमार पडे। दिली में उनके लिए अमर सिंह ने कोई कोर कसर नही छोडी। अमर सिंह के पिता जी आजमगढ़ से जाकर अपनी पहचान बनाए और उनके पुत्र अमर सिंह ने पिता का नाम पूरी दुनिया में रोशन कर दिया। अमर सिंह साहित्य में गहरी दिलचस्पी लेते हैं और उनके खूब शेरो-शायरी याद है। संकट के इस छड़ में उन्हें साहित्य से एक ताकत मिलेगी। दुःख को सहने की भगवन उन्हें खूब शक्ति देन।

सूखी नही कलम की स्याही


अरे दीवानों मुझे पहचानों । मैं डान नही हूँ। पर उन सबकी ख़बर रखता हूँ। अभी कलम में स्याही सूखी नही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में आए दिन गोलियां चलती हैं। बमों के धमाके गूंजते हैं। जब भी बड़ी वारदात होती मन कुछ लिखने को मचल जाता है। गोरखपुर में २२ मई को विस्फोट हुआ और एक परदा पडा रहा। फ़िर प्रदेश की तीन कचहरियों में विस्फोट हुआ और हमने तीन किश्तों में ख़बर लिखी। संकेत इतना अच्छा था की आजमगढ़ में छापे पड़ने लगे। लोग गिरफ्त में आना शुरू किए तो फ़िर पोल खुलती गई। हमने कोई जासूसी नही की। बस इतना की जो पिछली घटनाएँ थी और जिसे खुफिया एजेंसियों को याद रखना चाहिए उसे वे हिन्दुस्तान की जनता की तरह भूल गई थी। कुछ घटनाओं को हमने सूत्र में पिरोया और नतीजे सामने आ गए। यह तो अपने मुंह अपनी ही तारीफ करनी हुई लेकिन आज के दौर में हम अपना झंडा नही उठाएं तो कौन उठाएगा। माफ़ करना भाई कुछ ऐसे भी हैं जो रोज हमारी ही कहानियों का वाचन और लेखन करते रहते हैं। उनको शुक्रिया।

मंडी एक हकीकत


मंडी एक उपन्यास है। वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश शुक्ल इसके सर्जक हैं। उत्तर प्रदेश की सियासत गुजरे दो दशक में जिस रूप में सामने आयी उससे हमारे गौरव को आघात लगा। अनगिनत शहादतों से मिली आजादी के बाद देश के महानायकों ने कल्पना भी नही की होगी की लोकतंत्र के मंदिरों पर कभी अपराधी भी जा बैठेंगें। लेकिन अब ये अपराधी देश की राजनीतिक दशा और दिशा को प्रभावित कर रहे हैं। मंडी के अंत में ब्रजेश शुक्ल ने अपनी बात लिखते हुए अनगिनत शहादतों से मिलने वाली आजादी का जिक्र करते हुए प्रतीक रूप उपन्यास की भाव भूमि उत्तर प्रदेश के सचिवालय व विधानसभा को बनाया है लेकिन यह भी कहा है यह कहानी तो कई विधान सभाओ और संसद की है। यह उन हत्यारों, बलात्कारियों ,लुटेरों, अपराधियों, जेबकतरों और दलालों की कथा है जो बाद में ये कें प्रकारेर विधायक और सांसद बन गए। यह उन मुख्यमंत्रियों की गाथा है जिनके लिए सत्ता बनाए रखने की बाजीगरी ही सबसे बड़ी सफलता है। .................................>ब्रजेश जी के इस भाव को शिछ्क नेता स्वर्गीय पंचानन राय एक सभा में सुना रहे थे। मेरी मुलाकात हुई तो उन्होंने छूटते ही पूछा- का हो ब्रजेश शुक्ल वाली मंडी देखला । मैंने पूछा छप गई क्या। असल में इस उपन्यास के बारे में ब्रजेश जी ने चर्चा की थी। पंचानन राय जी ने एक अध्यापक से मेरे पास उपन्यास भिजवाया। मैंने इसे दो बार पढ़ा और इसकी सबसे बड़ी खासियत यह जाना की मंडी केपात्र मायावी नही बल्कि दुनियावी हैं और कहीं भी ऐसा नही लगता की किसी पात्र को अनावश्यक रूप से महत्व दिया गया है। यह ब्रजेश शुक्ल की लेखनी का कमाल है की उपन्यास पढ़ते समय प्रदेश की दी घटनाएँ दिमाग में दर्ज होती चली जाती हैं। तमाम तथ्य उपन्यास के बहाने हाजिर हो जाते हैं। एक पत्रकार के जीवन में धुप छांव के जो अनुभव होते हैं वे इसके देश काल में मिलते हैं। मंडी के कुछ दृश्य भी एक पात्र की तरह दिखते हैं और सरल भाषा के रंग तथा कथा कहने का बेहतरीन सलीका ये सब मिलाकर मंडी को सहज ही अनूठा और मनोहारी बनाते हैं।वाकई मंडी प्रतीक है उस सच का और आज के निर्मम यथार्थ का, जिसमें सत्ता और तंत्रसाँप सीरही के खेल खेलते हैं।

16 फ़र॰ 2008

तीसरी कसम


संजय दत्त और मान्यता ने तीसरी बार शादी की है। दोनों तीसरी बार विवाह के बन्धन में बंधे है। मुझे अचानक राजकपूर की तीसरी कसम याद आ गयी। महान लेखक फरीस्वरनाथ रेणू की रचना मारे गए गुलफाम को लेकर गीतकार शैलेन्द्र ने यह फ़िल्म बनायी थी। हीरा गारीवान अपने जीवन में तीन कसम खाई। तीसरी कसम यह थी कि अपने जीवन में वह किसी पतुरिया से प्यार नही करेगा। असल में फ़िल्म की नायिका हीरा बाई उससे दिल लगाने के बाद भी छोड़ कर चली गयी और स्टेसन पर वह उसे जाते हुए देखता रह गया। मैं फ़िल्म वालों की शादी होते और टूटते देखता हू तो तकलीफ होती है। संजय को भी रिया पिल्लै छोड़ गयी और मान्यता ने भी अपने पहले पतियों को छोड़ दिया। संजय दत्त को यह तीसरी शादी मुबारक हो लेकिन इस सुझाव के साथ कि उन्हें तीसरी कसम याद रहे। उनके अब्बा हुजूर नरगिस को कितना चाहते थे यह तो संजय को बताने की जरूरत नही। पर उनकी बहने प्रिया और नम्रता का शादी में शामिल न होना भी एक डर को जन्म देता है। डर इसलिए किफ़िल्म नगरी में रिश्ते हर रोज बनते और टूट जाते हैं। चूँकि हमारा समाज फिल्मों और उनके अभिनेताओं से भी प्रभावित होता है इसलिए वहाँ जब भी कुछ होता है तो हम सबको झटका जरूर लगता है। मेरी संजय और मान्यता को शुभकामना की जीवन भर उनका साथ बना रहे।

वी पी सिंह की खामोशी


पूर्व प्रधान मंत्री वी पी सिंह इन दिनों पता नही कितनी खामोशी ओढे हैं। मेरी उनसे कई अच्छी मुलाकात है और प्रेस क्लब गोरखपुर का प्रेसीडेंट रहते हुए मैंने उन्हें दो बार समारोह आयोजित करके आमंत्रित किया। राजनीतिक रूप से उनके कई फैसलों का मैं विरोधी रहा हू। लेकिन उनकी कविता और पेंटिंग मुझे प्रभावित करती है। वी पी सिंह कुछ मुद्दों पर खास अभियान चलाते हैं। अभी मुम्बई में जो कुछ हुआ उसमें उनकी खामोशी ने उनकी सेहत के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया। दैल्सिस पर उन्हें बार बार जाना पङता है। फिर भी उनकी इच्छा शक्ती बड़ी है। ८ साल पहले वे गोरखपुर में किसानों के एक आन्दोलन में भाग लेने आए। प्रेस क्लब की सराहना करने लगे। प्रेस क्लब में वे पहले भी आ चुके थे। राजीव ओझा उनके आने के हिमायती थे लेकिन वागीश जी नही चाहते थे की वी पी सिंह आयें। वागीश जी को मनाया गया और वार्सिकोत्सव में आ रहेसुपरिचित लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह से भी सहमति ली गयी। उन दिनों गोरखपुर बाढ़ की चपेट में था। वी पी सिंह बाढ़ पर खूब मार्मिक बोले और राजेश सिंह बसर के गजल संग्रह एक ही चेहरा का लोकार्पदभी किए। बसर साहब ने अपनी गजलों में संवेदना का नया धरातल बनाया है। उनकी एक रचना वी पी सिंह को बहुत पसंद आयी- छत पे बैठे कुछ परिंदे क्यों अचानक उड़ गए। क्या कहीं गोली चली या बम फटा मेरे शहर में। अब सोच रहा हू वी पी सिंह की खोज ख़बर लीजाए।

14 फ़र॰ 2008

मोबाइल और मुसीबत


अखबार की नौकरी और ख़बरों से जूझना। अब किससे कहे अपन की गाड़ी मजे से चल रही है। दिन भर की चिल पों से मन भर जाता है। लोग- बाग़ चैन से कहा जीने देते हैं। ये ससुरी जबसे मोबाइल चली हर आदमी लोकेसन लेने लगा है। छूटते ही बस एक सवाल कहा हो। बीवी के साथ रहो तो बच्चे की फीस जमा कर रहे हो तो और नौकरी बजा रहे हो तो लोग सीने पर सवार रहना चाहते है। किसी को सरदर्द हो तो भी, किसी का बैंक में खाता नही खुल रहा हो तो भी और कोई की गाड़ी पंचर हो गई तो भी बस एक आवाज दिए और हाजिर हो जावो। अभी एक साहब ने दन से मोबाइल बजा दी बोले कहा हो। काम पूछा तो भड़क गए। कहने लगे बताने में कोई दिक्कत हो रही है क्या। नही भैये अपना काम बताओ। काम क्या है जल्दी में दिल्ली जाना पड़ rahaa है। रिजर्वेशन नही हो पाया। किसी पहचान वाले से बोल दो लेता जाए। मैंने कहा अब इतनी रात गए किस किस पहचान वाले को खोजू। साहब बिफर पड़े। लगा मोबाइल में ही मेरे प्राण ले लेंगे। गुस्सा सातवें आस्मान पर पहुँच गया। एक बार रात में मेरे लिए ४० किलोमीटर की यात्रा किए थे। लगे याद दिलाने। मुझे तुरंत याद आया की अरे इन जनाब का तो कर्ज हमने चुकाया ही नही। मन मसोस कर स्टेसन पहुंचा। घर से स्टेसhन की ३ किलोमीटर की दूरी वह भी इस ठंड में दिक्कत तो हुई लेकिन खुश था चलो एक आदमी के कर्ज से तो मुक्त हुआ। अब स्टेसन पर एक नयी मुसीबत अपने परिचीत साथी नशे मी धुत मदिरा बहाने को आतुर। भैये दो ghoot le लो। साथ में जिन साहब को लेकर गया था उन्हें तो यह पता ही नही की हमने भी हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को कभी कभी पढ़ लिया है। पर यह भी नही चाहता की वे इस बात को समझें। हल्ला मचाकर हमे पियक्कड़ बना देंगे। मैं जितना ही छिपाने की कोशिश करू दुसरे वाले भाई साहब लगे जोर मारने। अब उनसे ज्यों कहू मैं नही लेता रोने लगते। अपने संबंधों का वास्ता देकर एक सवाल करते अब हमसे मतलब नही रखना है तो मत लिजी। वे साहब हैं तो बड़े काम के लेकिन वे तो अपने पूरे जश में थे। मैं दुविधा में कभी उनको देखू और कभी दिल्ली जाने वाले भाई को। एक टी टी दिखे। मेरे बहुत पहचान के तो नही लेकिन मेरी लाज रखे। मेरी कई ख़बरों के बरे में बता गए। साहब को ले जाने की हामी भर लिए। सीट का नम्बर बता दिया। उन्हें विदा करके मैं बमुश्किल दस कदम चला हूँगा तभी ऊहोनें मोबाइल पर फिर घंटी बजा दी। बोले एक मिनट ज़रा आना। गुस्सा तो बहुत आया फिर भी गया। इधर दूसरे वाले भाई साहब फिर पीछे हो लिए। मैंने एक मिनट ठहरने का अनुरोध किया और फिर मुसीबत से पीछा छुडाने की आखिरी जुगत लगाने में जुट गया। भाई ने कहा यार थोडा बहुत लेते हो क्या। बहुत ठंड है। मैं तो ऐसे मौकों पर रखता हू। घर से बच्चों से बोल कर गया था की जल्दी आऊँगा। सो दोनों भाइयों को एक साथ जोडा और बार बार छमा मांगी। फिर आराम से साथ बैठने का भरोसा दिलाया और घर लौट आया। श्रीमती जी ने कहा इतनी देर तक किसकी सेवा में रहे। मैं किसका नाम बताता। हर आदमी जिससे मैं बंधा हू उसका कर्जदार हू। मैं अपनी पीडा किस्से कहूँ। यह तो मेरे जीवन का रोज का हिस्सा है। आज सोच रहा हू की मोबाइल फ़ोन बंद रखूं और एक अलग से नम्बर रख लू। पर यह तो समाधान नही हुआ। वैसे भी फ़ोन बंद हुआ तो आफिस वाले कहाजीने देंगे।

रघुपति राघव राजाराम


अभी किसी ने पूछा आपकी फ़िल्म का क्या हुआ। अब मैं क्या बताऊ फ़िल्म वाले कैसे होते हैं। मैं तो अपने अखबार के धर्मेंद्र पाण्डेय जी के कहने पर फिलम में कामकिया। स्कूल में पढता था तो ड्रामा में भाग लिया था। मेरा अभिनय औअल था इसलिए अपने को भी कभी कभार आइने के सामने कुछ एक्टिंग सेक्टिंग में मज़ा आता रहा है। अब तो अपने बेटों को कभी कभी अपनी पुरानी बातें सुनाकर गर्व करता हू की चलो हमने भी कुछ किया। फ़िल्म के नाम पर बात शुरू हुई और हम घर की कहानी बताने लगे। असल में धर्मेंद्र जी से जब मैं स्कूल के दिनों की बात करता तो वे मुझे किसी भोजपुरी फ़िल्म में कम करने के लिए कहते। उन दिनों सुधाकर पण्डे ससुरा बड़ा पैसा वाला फ़िल्म बना रहे थे। धर्मेंद्र जी ने काम करने को कहा। शूटिंग के लिए मिर्जापुर जाना था सो अपन की हिम्मत नही हुई। बात आयी गयी हो गयी। फिर कुछ समय बाद धर्मेंद्र जी ने अपने घर बुलाया। उनके यहा दिवाकर बोस और दीपंकर बोस बैठे थे। पांडे जी ने बोस बंधुओं की भूमिका बताई। इनके अब्बा हूजुर ने नदिया के पर और सजनवा बैरी भये हमार जैसी हिट फ़िल्म बनाईं थी। मेरे अखबार के अरुण, कसेरा और अरुण साथ हो लिए। महराजगंज और आस-पास शूटिंग हुई। फ़िल्म का नाम रघुपति राघव राजाराम रखा गया। गाने और संवाद ठीक ठीक रहे। लेकिन निर्माता ने हम लोग का शौक पहचान लिया। एक रुपया भी फ़िल्म के प्रमोशन पर खर्च नही किया। गोरखपुर के यूनाईटेड टाकीज में फ़िल्म लगी और मैं उसे अपने बच्चों को भी नही दिखा सका। फ़िल्म में हमने एक बुरे दरोगा का अभिनय किया जिसे लोगो ने सराहा पर प्रचार के अभाव में फ़िल्म चल नही पाई। अभी निर्माता ने मुझे फिर प्रस्ताव भेजा लेकिन दोस्तों ने मना कर दिया। अब कोई बहुत अच्छी फ़िल्म मिली तो जरूर काम करूंगा.

वसीयत


मुम्बई में फिर हल्ला मचा है। मुझे गामा की याद आ रही है। गामा सुल्तानपुर जिले से मुम्बई कमाने गया था। गांव में जो हाल रहा हो पर वहा जाकर थोड़ा दादागीरी करने लगा। शर्मा की दुकान पर दिन भर बैठे रहता और किसी न किसी से उलझ जाता था। एक बार बाजु वाले से उसका लफडा हो गया। बोले तो कट्टा और छुरी भी चली। गामा डरा हुआ था। अपनों ने भी उसकी कोई मदद नही की। भंदूप के तुलसी पादा में रहता था। विक्रोली में अनिल वांद्रे लेठ मशीन पर काम करता था। लोकल लोंगों पर उसका ठीक प्रभाव था। गामा को लोग घेरने लगे। तो भभुआ केगोरख सिंग ने अनिल वांद्रे से मुलाकात कराई। बोले ऐ मराठा सरदार मदद करेगा। शाम को एक दिन अनिल आया उसके साथ दो मवाली जैसे लड़के आये थे। गामा और उसके खिलाफ वालों को बुलवाया। दोनों गुटों से पूछा मुम्बई में का ऐ को आयेला। इधर बीच पंगा करेगा तो कमाएगा क्या। खाली-पीली नौटंकी करने से क्या होएला। तू भैया लोग इध्रीच लड़ेगा और उधर तेरा बाप लोग सोचेगा की बेटा मेरा पगार बना रहा है। इधर को रोक्र्रा कमाने आया है तो शान्ति से कमा। तू लोग इधर से कमा के जाता तो अपन लोग को बहुत अच्छा लगता। अब राज ठाकरे को कौन समझाए की वंहा मराठियों को बहुत अच्छा लगता की उनके यहा लोग कमाकर अपने घर खुशहाली भेजते हैं। मैं राज ठाकरे से यह कहना चाहूँगा की किसी को भी मुम्बई में अपनी जड़ नही जमानी है वरना जिनकी जड़े जमी थी उन्हें भी अपने मुल्क की याद सताती रही। तभी तो राही मासूम ने लिखा-

मेरा फन मर गया यारों

मैं नीला पड़ गया यारों

मुझे ले जाकर गाजीपुर की गंगा की गोदी में

सुला देना

मगर शायद वतन से दूर मौत आये

तो यह वसीयत है

अगर उस शहर में छोटी सी भी नदी बहती है

तो मुझको उसकी गोदी में सुलाकर

उससे कह देना

की यह गंगा का बेटा तेरे हवाले है

वो नदी भी मेरी माँ, मेरी गंगा की तरह

मेरे बदन का सारा जहर पी लेगी.

13 फ़र॰ 2008

विनय भइया


विनय भइया

नमस्कार बहुत दिनों से आपके साथ कंही घूमा नही। पता नही किस दुनिया में आजकल आप रहतें है। मेरे कई मित्र जो जीवन के सफर में हमसे आगे हैआपको पूछते है। आपको उनकी याद भी नही होगी। पर मुझसे अधिक वे लोग आपको ही याद करतेहैं। आपको पता है जीवन की डोर बहुत कमजोर होती पर मैं जिनकी बात कर रहा हू वे रिश्तों की डोर मरते दम तक अपने हाथ में रखतें है। मैं तो हर छड़ आपको अपने जीवन से समेटें रखना चाहता हू। कभी फुरसत मिले तो मेरे लिए नही मेरे उन मित्रों के लिए थोड़ा समय निकालिए जिन लोंगो ने अख़बार में आपके उज्जवल भविष्य की कामना की है। उन लोंगों में वागीश, देव, राजेंद्र, रामसमुझ, रवी, और न जाने कितने आपको भूल नही पाते। कभी तो थोड़ा समय निकालिए। कभी विपिन आपको याद करे तो उसे भूलियेगा नही। बिल्कुल माल्तारी के ओमप्रकाश की तरह है। धन्यबाद भइया।

माचिस की तिली


इस सदी का इंकलाब हूँ आजमा कर देखिये।

आप पलकों पर जरा हमको सजा कर देखिये।

कांप जाएगा अँधेरा एक हरकत पर अभी।

आप माचिस की कोई तिली जलाकर देखिये।

राज ठाकरे की दादागिरी और पूर्वांचल

मुम्बई में राज ठाकरे की दादागिरी चल रही है। यहाँ लोग-बाग़ परेशां है। यंही के लोगों ने खून पसीना बहाकर मुम्बई को चमकाया है। यंहा के लोग तो फिजी, सूरीनाम, गुयाना, मारीशाश,त्रिनिदाद, टोबैको और दुनिया के पता नही कितने देशों में गए और अपनी उपलब्धियों का इतिहास लिखा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हर जगह फैले है। मुम्बई का हर इलाका इन लोगों के कहकहों से गुलजार है। वंहा जब भी कोई हवा बहती है पूरब के लोगों की जुबान से उसका अहसास जरूर होता है। यंहा के लोंगो को मुम्बई से अलग कर दिया जाय तो वहां इतिहास के गुनागुनानें या ठंडी साँस लेने की कोई आवाज नही आयेगी। राज ठाकरे अपनी दादागिरी को कायम रखने के लिए चाहे जो तर्क गढ़ लें लेकिन वे इस बात को कैसे झुठला देंगे की मुम्बई की फिजा में अब भी कैफी के गीत गूंजते है। अब भी राही के संवाद सुनायी पड़ते है। कमलेश्वर की आंधी आज भी अपनी मौजदगी दर्ज कराती है। उससे भी आगे वहा के कल-कारखानों से यहाँ के मजदूरों दे पसीनो की गंध हर उत्पाद के साथ आती है। मुम्बई की फैक्ट्रियों में यू पी और बिहार के सपने भेज दिए जाते है। यंहा का श्रम और युवाओं की अनमोल जवानी कौद्दियों के भाव वहा बिक जाती है। अब भी गांवों में रेलिया बैरी पिया को लिए जाय रे गीत'''''''''' चाव से ही सुने जाते है। यंहा टू बेरोजगारी ऐसी है की जब राज ठाकरे की तरह हुमांच भरने का वक्त आता तो गजभर की छातियों वाले बेरोजगारी के चूल्हे में जोत् दिए जाते है। अब वे अपने सपनो का तेल निकालें या राज ठाकरे की दादागिरी का जवाब दे। इसीलिए तो राज की सरहद बढ़ रही है।


राज के लिए यह सोचने की बात है की मुम्बई में उन्हें जिनकी बड़ी तादाद दिख रही है वे वहा नादिर और तैमुर नही है। वे तो एक विरह है। उनके लिए यहा न जाने कितनी आंख का काजल बहकर सुख गया है। मुम्बई की तरह उद्योग की हर बड़ी नगरी यहाँ के बेरोजगारों की सरहद है। राज ठाकरे एक और बात कहू- यहाँ के लोग पूरी दुनिया को अपने में समेत्नें की ताकत रखतें है। ५-६ दशक पहले महारास्त्त्रे से मधुकर विनायक दिघे नाम के एक नौजवान ने गोरखपुर की जमीन पर कदम रखा। मजदूरों के बीच रहने वाले इस नौजवान को यहाँ के लोंगो ने अपने सीने से लगा लिया। कई बार दिघे विधायक बने। प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री बने और गवर्नर भी बने। उन्हें यहा के लोंगों ने अपने कन्धों पर बिठाया। राज ठाकरे शुक्र करो मधुकर दिघे बीमार है। वरना आज के राजनीतीक दलों के लोग जिस तरह सियासत के लिए हाथ बांधे बैठे है वे चुप नही बैठते। दीघे तो सीधे मजदूरों की गोल बनाते और राज जैसों से दो-दो हाथ जरूर कर लेते। यकीन करना जब भी मुम्बई के लोग किसी मोर्चे पर हार जाते हैं यहीं के लोग मोर्चा सँभालते हैं।



12 फ़र॰ 2008

बाबा


बाबा के बारे में कोई यह नही जानता कि वे कौन हैं और कहाँ से आये है। पर इतना बहुत लोग जानते हैं कि उनके पास दीं दुखियों की भीड़ लगी रहती है। बाबा चुपचाप किसी की गाडी में बैठ जाते तो लगता जैसे उनके भक्तों की मुराद पूरी हो गई है। बाबा पुआल बिछा कर सो जाते है और कंही से कुछ मिला तो खा लेते हैं। लोंगों को विश्वाश है कि बाबा के छूने से असाध्य रोग ठीक हो जाते। आजमगढ़ के बिलारिअगंज से आगे सिवानिह्वा बाबा के नाम से उन्हें लोग जानते है। हर कोई उन तक जाने का रास्ता बताता है। पहले जाने के लिए रास्ता नही था। अब सड़क बन गई है। वंहा आस्था का अद्भुत नज़ारा है.

दूसरा वनवास

राम वनवास से लौट कर जब घर में आये।
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये।
रक्स दीवानगी आँगन में जो देखा होगा।
६ दिसम्बर को श्रीराम ने ये सोचा होगा।
इतने दीवाने कंहा से मेरे घर में आये।
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशा।
प्यार की कहकशां लेटी थी अंगडाई जहाँ।
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये।
धर्म क्या उनका है क्या जाट है यह जनता कौन।
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन।
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये।
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर।
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर।
है मेरे सर की खाता जख्म जो मेरे सर में आये।
पांव सरयू में अभी राम ne धोये भी न थे।
कि नज़र आये वहाँ खून के गहरे धब्बे।
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे।
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे।
राजधानी की फिज्जा आयी नही रास मुझे।
६ दिसम्बर को मिला दूसरा वनवास मुझे।
देव को लिखते हुए कैफी आजमी की यह रचना मुझे याद आयी। सोचा कंही देव को मिल गयी तो कैफी को श्रधान्जली होगी। बस यही सोचकर इसे पोस्ट कर रहा हू। वैसे भरोसा यह भी है कि यह अमनपसंदों को रास आयेगी.
फोटो एक ऐसे संत की है जो वास्तव में राम के आदर्श पर जंगल में फल फूल खाकर जीवन गुजार रहे है.

जिन्दगी का काफिला

उसका पडाव जिन्दगी के काफिलों के रस्ते पर नही है। कभी हवा उस ओर से गुजरी तो जिन्दगी की कुछ महक उधर भी आ पहुचती है। मेरी बहुत पुरानी दोस्ती है। अब भी जब बातचीत होती लगता वही पुराने दिन ताजा हो गए है। मुम्बई में उसने ख्वाबों की एक खूबसूरत दुनिया बसाई थी। कैफी साहब अपने बच्चे की तरह उसे प्यार करते थे।देवप्रसाद नाम है। सुरों के साधक। अब अयोध्या में सुरों की तालीम देते है।कहने को बडे मजे से उनके दिन कट रहे है। पर मुझे न जाने क्यों लगता है कि देव जिन्दगी के काफिले से कंही दूर हो गए है। मैंने सुना तो बहुतों को है लेकिन स्वर को संवेदना में बदलनेकजोहुनर देव को है कैसे कहू कि शायद ही किसी और को हो। पर यह सच्चाई है। कैफी साहब देव को रचना से जोड़े हुए थे। तब उनका मकसद देव को संगीत की बुलंदियों तक ले जाना था। देव इसके लिए खूब रियाज करते और महफ़िल लूट लेते। मुम्बई में पूर्व यू पी के एक नेता के स्वागत में देव ने अपने सुरों से शमा बांधी। नेता जी बाग़-बाग़ हो गए। एक बड़ी दुनिया सजाई। देव के ख्वाबों को हवा दी। कहने लगे- मैं अपनी ताकत से तुम्हे जगजीत और जलोटा बना दूंगा। देव के ख्वाबों में यही लोग तो बसे थे। जहाज से नेता जी के साथ ही देव दिल्ली चले गए। पहली बार वह भी आज से २० साल पहले जहाज men बैठना देव को अच्छा अशोका। kabhee ashoka तो कभी किसी ५ स्टार होटल में खाने जाते। देव की दुनिया में झूठ की मिलावट आ गयी। नेता जी ने देव के सुरों के जादू को पहचान लिया था। उन्हें लगा कि चुनाव में देव पब्लिक जुतानें में सहायक होंगे। देव की खूब खातिर हुई। देव के खवाब हवा में उड़ रहे थे। कैफी साहब उनसे दूर हो गए थे। देव ने चुनाव की बागडोर संभाली। उनके गीतों को सुनकर लोग ठहर जाते। एक नही ३-३। ४-४ मंचों पर देव के गीत होते और फिर नेताजी का भासन। १९८९ और १९९१ के चुनाव में देव के गीतों की शमा बांध गयी। देव लोंगों के दिलों में उतरने लगे। इसके बाद नेताजी सरकार में मंत्री बन गए। देव से दूरी बढ़ने लगी। देव के ख्वाब बिखरने लगे। लगा जैसे उनके ख्वाबों का गुब्बारा आकाश में बहुत दूर निकल गया है और gubbare की डोर टूट गयी है। एक सदमा जैसा लगा और एक कलाकार का हुनर सर्द हो गया। यह बिल्कुल मेरे खवाब के टूटने जैसा था। देव को लेकर मेरे मन में बहुत सी उम्मीदें थी। पर यह भरोसा था वह टूटेगा नही। देव ने खुद को संभाला और राम की नगरी में सपने सजाने चला आया। देव के हुनर से दूसरों के सपनों को गति मिल रही है लेकिन वह तो ठहर सा गया है। जगजीत और जलोटा बनने की चाह पता नही मन है भी या नही। मुझे यही लगता है कि वह अपने इतिहास से बेखबर है। उसे लोंगों की जिन्दगी में स्वर ढलने से फुरसत कहाँ है। कौन जाने उसकी जिन्दगी की तपस्या कब ख़त्म हो। पर जिस दिन वह खुद के लिए पहले जैसा सोचेगा मुझे लगता है एक नया सपना जन्म लेगा। शायद राह में छूटे हुए ख्वाब फिर से ताजा हो जाय। मैं तो सियासत को कोसता हू- वैसे ही जैसे- हर नमाजी शैख़ पैगम्बर नही होता। जुगनुओं का काफिला दिनकर नही होता। यह सियासत एक तवायफ़ का दुपट्टा है। यह किसी के आन्सुनो से तर नही होता.

11 फ़र॰ 2008

अपनों से ही छल

उसके हिस्सेमें पता नही कितना दर्द है पर इतना जरूर है कि कुछ सुनाते हुए उसकी आँख डबडबा जाती है। सेवा वालों ने एक तस्कर के चंगुल से उसे मुक्त कराया था। कई दफे उससे बातचीत की पर उसने अपनी जुबान नही खोली। एक बार बहुत कुरेदा तो वह फफक पड़ी। अपने ही सगे से ठगी गयी थी। उसका अपना सगा चाचा था जिसने चंद पैसे के लिए उसे बेच दिया। उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले में सरहदी इलाका सोनौली से होकर वह गोरखपुर आई थी। गोरखपुर में एक होटल में उसे कई दिनों तक जिस्म के भूखे भेडिये नोचते रहे। सेवा के निदेशक जटाशंकर को उसकी खबर मिली। फिर लोकल पुलिस के सहयोग से वह बरामद हुई। प्रकोस्थ पर जाने के बाद गुमसुम सी चुप बैठी रही। बोली तो आँखों से अविरल गंगा-यमुना बही। वह अपने वतन नेपाल नही जाना चाहती थी। जीवन में जब भी उसने सपने संजोये उसे गम का पहाड़ उठाना पड़ा। एक बार प्रेमी ने भी खूब सपने दिखाए। घर में बुजुर्ग माँ ने लड़के कि सादगी पर भरोसा जताया। वह बेरोक टोक घर में आता रहा । एक दिन नशे में धुत होकर अपने एक साथी के साथ आया और उस रात पहली बार उसके सपनों के टुकड़े-टुकड़े हो गए। बिअना शादी के माँ बन जाती मगर यह खबर उसके चाचा को लगी। बाप के मरनें के बाद कभी कभार इस चाचा ने ही मदद की थी। उसनें अबराशन के लिए कुछ पैसे खर्च किये और फिर उसपर बुरी नज़र रखनें लगा। एक दिन कलयुगी चाचा ने अपनी बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाया। फिर उसकी दलाली करनें लगा। अचानक एक दिन उसे कहा गया की मुम्बई में उसकी नौकरी लग जायेगी। गरीबी के बोझ से दुहरी हुई माँ ने kaha बेटी परदेश में कुछ तो कमायेगी। वह जानती थी कि जो हो रहा है उससे जीवन की गति ठहर जायेगी पर माँ ने कहा था। वह नौकरी पाने कि चाह में आयी जरूर लेकिन गोरखपुर में आते ही उसके साथ फिर वही सिलसिला शुरू हो गया। पकडी गयी तो तमाशा भी बनी लेकिन सेवा के साथियों ने उसे लड़ने की ताकत दी। पर उसके दिलों में इतना दार समाया था कि वापस अपने मुल्क जाना ही नही चाहती थी। जटाशंकर की प्रेरणा से वापस गयी और अपने जैसों की लड़ाई लड़ रही है। अब लोग यह भी नही जानते की उसके साथ भी कभी ऐसा हुआ था। पर जब भी वह अकेलेल में होती या अपनों का साथ मिलता पुरानी yaad ताजा हो जाती।
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