24 सित॰ 2008

शोहरत के भूखे

aभी आजमगढ़ से जुड़े पाँच लोग पकड़े गए है। एक आतंकी के खाते में तीन करोड़ रुपये पाये गए। लोग पूछते है कि क्या वाकई आजमगढ़ आतंक का गढ़ बन गया है। क्या वहां के नौजवान कैफी और राहुल सांकृत्यायन को भूल कर अबू सलेम और बशर को अपना आदर्श मानते हैं। फ़िर तो यह बात चलती ही है कि बड़े घर में पैदा होकर भी कैफी ने कभी सुख सुविधाएं नही तलाशी। वे तो कामरेड थे और आम आदमी के हक़ में रहे। आज के नौजवान तो सिर्फ़ आधुनिकता की दौड़ में सब कुछ पा लेना चाहते हैं। मजहबी उन्माद से आतंक का रिश्ता जरूर जुडा है लेकिन यह भी सच है कि जो लोग गुमराह हुए हैं उनकी राह पैसे ने बदली है। यह बात इसलिए प्रमाणित है क्योंकि आजमगढ़ के पवई में सोमवार को एक बैंक में आतिफ नाम के एक व्यक्ति के खाते से ३ करोर रुपये मिले। यह आतिफ जामिया नगर में हुई मुठभेड़ में मारा गया आतंकी है।ऐ टी एस ने इस खाते की पड़ताल की तो यह चौंकाने वाला माजरा सामने आया. संजरपुर के आतिफ पास आख़िर तीन करोर रुपये कहाँ से आए! कुछ ऐसे सवाल हैं जो आजमगढ़ के माथे पर सवाल टांगने वालों से ही सवाल करते हैं। सच यह है कि आजमगढ़ उन काफिलों का शहर है जहाँ से तमाम विभूतिया गुज़री हैं। चंद सिरफिरे आजमगढ़ के नाम को बदनाम जरूर कर दें लेकिन कोई दाग इसकी तस्वीर धुंधली नही कर सकती। पैसो के लिए अपने मुल्क से गद्दारी कराने वाले नौजवानों का पता भले आजमगढ़ में मिलता हो लेकिन इनकी आत्मा आजमगढ़ में नही बसती है। ये सभी ओसामा बिन लादेन की तरह सुख सुविधा और शोहरत के भूखे हैं।

21 सित॰ 2008

सात साल पहले छपी ख़बर


आज़मगढ़ में अबू और दाऊद ने देशद्रोहियो की फौज खडी की. इस शीर्षक से मेरी एक रपट दैनिक जागरण गोरखपुर के 19 अगस्त 2001 के अंक में पहले पेज पर छपी. खुफिया एजेंसियों के हवाले से छपी यह रपट जागरण के और भी अंको में छपी. इस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि आज़मगढ़ में आतंकी प्रशिक्षण दिया जा रहा है. उन दिनो फैजाबाद के एक विस्फोट के चलते पुलिस सक्रिय हुई थी और आजमगढ़ के कई संदिग्ध लोग उठाये गये थे. पर बाद में सब कुछ ठंडे बस्ते मे डाल दिया गया. अब जब ताजा बम विस्फोट की असलियत खुली है तब फिर से आजमगढ़ सुर्खियो में आ गया है. आजमगढ़ ने पूरी दुनिया को संदेश दिया. राहुल, हरिऔध, कैफी जैसे शब्दो के जादूगर ने जीने की राह सिखायी. पर कुछ गिने चुने लोगो ने इस ऐतिहासिक किले को दागदार बना दिया. इसी माटी से गिरमिटिया मजदूर बन कर गये लोगो ने दूसरे देशो में अपनी हुकूमत चलायी. त्रिनिदाद के वासुदेव पांडेय अहीर का नाम किसी से छिपा नही है. सात साल पहले मैने जो रिपोर्ट आजमगढ़ के बारे में लिखी उसे लेकर कुछ लोगो ने सवाल उठाये. चूंकि उसमे किसी अधिकारी का कोई वर्जन नही था और रिपोर्ट खुफिया एजेंसी के हवाले से थी इसलिये इसे मेरी दिमाग का उपज बताया गया. अखबार से जुडे एक आदमी ने मुझे नसीहत भी दी कि ऐसी खबरों से बचना चाहिये. कभी मैने हिंदू और मुसलमान के नजरिये से कोई खबर नही लिखी और यह बात बार बार कहता हूँ कि बेरोजगारी की आग में युवाओं को गुमराह किया जा रहा है. ये गुमराह नौजवान हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. 9 अगस्त 1997 को मेरी एक रपट दैनिक जागरण में छपी- आईएसआई की आकांक्षाओं के अनुरूप पूर्वांचल में शुरू हुआ हिंसा का तांडव इस रिपोर्ट मे यह बात साफ है कि आईएसआई ने अपने हित में यहाँ की ऊर्जा को गलत दिशा दी है. सच तो यह है कि जो चीज एक दशक पहले सार्वजनिक हो गयी उसे भी नजरंदाज कर दिया गया. सियासत के लिये सिर्फ रणनीति बनती और बिगडती रही. कभी किसी ने यह फिक्र नही की कि आखिर आज़मगढ़ जहाँ से दुनिया को यह संदेश गया कि भागो नही दुनिया को बदलो वही के नौजवान दुनिया की शक्ल बिगाड रहे हैं.


8 सित॰ 2008

अब गंदा हो गया है राप्ती का पानी


गोरखपुर शहर राप्ती नदी के किनारे पता नही कबसे बसा है. इसी नदी के तट पर गुरू गोरक्षनाथ ने धुनी रमाई. इस शहर को सवारने में पता नही कितने संत और महात्माओ ने अपना योगदान दिया. गुरू गोरक्ष और सूफी संत रोशन अली शाह की परम्परा के इस शहर में हमेशा शांति के कबूतर उडते रहे हैं. 1962 में छात्रों के एक संघर्ष में इस शहर ने पहली बार कर्फ्यू का मंजर देखा था. तब राप्ती किनारे मेल्ह्ते हुए इस शहर में जुम्मन और अलगू ने एक दूसरे के घर सब्जी, दाल और नमक भिजवाया. तब इस शहर में सियासत ने फिरकापरस्ती का दामन नही पकडा था. उस दौर की सोचे और आज की सोचे तो बहुत कुछ बदल गया है. अब राप्ती का पानी गंदा हो गया है. अब कोई गोरक्ष यहाँ धूनी रमाने के लिये अपना चिमटा नही गाडता. अब जुम्मन और अलगू गल्बहिया करते चलने की कोशिश जरूर करते लेकिन शहर की फिजा तो पहले जैसी नही है. यह फिजा तो 1965 से ही बदल गयी है. अक्सर किसी न किसी सियासी जरूरतों के लिये अमन खतरे में पड जाता है. इस बार कहानी योगी आदित्यनाथ के ऊपर आज़मगढ़ में हुए हमले से शुरू हुई है. रविवार को एक सभा सम्बोधित करने गये योगी पर हमला हो गया. योगी का कहना है कि उन पर आतंकी हमला हुआ है. बस उसके बाद से शहर का माहौल खराब हो गया है. शहर की फिजा में अशांति का असर है. न चाहते हुए भी व्यापारियो ने अपनी दुकाने बंद कर दी हैं. पूर्वांचल बंद का आह्वान हो गया है. शहर के लोगो को यह डर सता रहा है कि फिर कही कर्फू न लग जाये. 1998 से लेकर अब तक जितनी बार कर्फू लगा उसके लिये योगी ही जिम्मेदार रहे हैं. योगी 1998 से ही इस शहर के सांसद हैं. 1965 में जब कर्फू लगा तब उसके लिये योगी के पितामह गुरू महंत दिग्विजय नाथ महराज जिम्मेदार ठहराये गये. कुछ लोग शहर में कर्फू और दंगे को सियासत से जोड्कर देखते हैं. बताते हैं कि आजादी के बाद जबसे चुनावी प्रक्रिया शुरू हुई तभी से गोरक्ष मंदिर ने दखल देना शुरू कर दिया. महंत दिग्विजय नाथ ने 1952 में बांसगांव संसदीय सीट से अपनी किस्मत आजमायी. जनता ने उन्हे नकार दिया. फिर 1957 में वे गोरखपुर में चुनाव लडने आये. यहाँ भी उन्हे हार का सामना करना पडा. राजनीति में अपना प्रभाव न होते देख उन्होने हिंदू कार्ड खेला. वैसे भी गांधी की हत्या में उन पर गम्भीर आरोप लगे. सियासत के लिये इस शहर को खांचो में बांट दिया गया. फिर तो हिंदू और मुसलमान की सीमा खिंच गयी. 1965 से ही नफरत की दीवार खडी हो गयी. शाबाशी के हकदार तो आम शहरी हैं जो अमन बचाये हुए हैं वरना योगी तो अपनी उसी विरासत को सम्भाल रहे हैं. हिंदू हितो के नाम पर सियासत की उनकी खेती लहलहा रही है. सात बार कर्फू का दंश झेल चुके शहर को अपनी शांति और उन्नति की चिन्ता है. यह चिंता हर उस शख्स की है जिसने दंगे और फसाद में शहर को जलते हुए देखा है. योगी लोकसभा में बने रहने के लिये कुछ भी कर सकते हैं. उन्हे इस बात की कत्तई परवाह नही कि फसाद होते हैं तो गरीब की जान जाती है. उन पर हमला हुआ तो अमानुलाह नाम का जो मरने वाला है वह रोज मेहनत मशक्कत करके अपना और अपने घर का पेट भरता था. इसके पहले भी गोरखपुर शहर में दंगे के दौरान विनय और साबिर अपनी जान गन्वा चुके हैं. यह कहते हुए कही से मैं इस बात का समर्थन नही कर रहा कि जो आतंकवादी है उस पर कडी कारवाई न हो. उस पर तो कारवाई के लिये मुसलमानो ने भी पहल की है. इस पहल का स्वागत है और उन लोगो से एक अपील है कि अगर किसी से मुल्क को खतरा है तो मिल जुल कर एक लडाई लडी जाय. उन्हे कत्तई न बख्शा जाय जो इस देश की सरहद पर आंख लगाये हैं. लेकिन सियासत के लिये कौम को बांटने वालों को भी कत्तई फसाद करने की छूट न दी जाय. .

2 सित॰ 2008

अभिनेत्रियों का दिल


अभिनेत्रियों का दिल और पानी का बुलबुला एक ही तरह का होता है. इनके रोमांस के बदलते किस्से और पानी के फूट्ते बुलबुले में कुछ खास अंतर नजर नही आता. बालीबुड में कितनी जोडिया बनती हैं और कितनी टूट जाती हैं. इसका रिकार्ड रखने के लिये एक अलग दफतर खोलने की जरूरत पडेगी. इनकी मार को भूलना आसान नही है. बहुत से लोग ऐसे सदमे की बाढ में बह गये है. कुछ ऐसे रह जाते हैं जो अपना दिल थामे अपने दर्द का इजहार भी नही कर पाते हैं. अभी करीना कपूर और शाहिद कपूर की जोडी सुर्खियो में थी. अब इसमे एक चेहरा बदल गया है. करीना तो कायम है लेकिन शाहिद की जगह सैफ अली खान आ गये हैं. नवाब घराने के वही सैफ अली खान जो कुछ साल पहले अपने से काफी बडी अमृता को दिल दे बैठे. उन्हे अपना शरीके हयात भी बनाये लेकिन उनकी जोडी चल नही पायी. तलाक हुआ और दोनो की राहे जुदा जुदा हो गयी. सैफ को अमृता की दूसरी राह पसंद नही आयी. अब सैफ करीना पर फिदा हैं और शाहिद विद्या बालन से लेकर सानिया मिर्जा तक को टिपिया रहे हैं. शाहिद पर तरस तो आती ही है. अपने युवराज बेचारे दीपिका पादुकोण से नैना चार किये लेकिन जल्दी सफलता के कदम चूम लेने वाली इस बाला को लगा के शोहरत की दुनिया में युवराज की जगह रणवीर कपूर ज्यादा बेहतर है सो उन्होने अपने दिल का तार रणवीर से जोड लिया. भूरी आंखो वाली ऐश्वर्या का तो पूछिये मत. जब सलमान सेट पर उनकी ऐसी तैसी करने पहुंचे रह्ते थे तब बेचारे विवेक ओबराय अपनी कसरती शरीर की पूरी ताकत समेट कर ऐश्वर्या की हिफाजत में जुटे रह्ते थे. बच्चन खानदान से नजदीकी बढी तो फिर उन्होने विवेक को झटक दिया. जबकि अभिषेक बच्चन को तो करीना की दीदी पहले ही झटका दे चुकी थी. करिश्मा के झटके से आहत अभिषेक ने ऐश का दामन थाम लिया. सलमान और कैट के किस्से में रोज कोई न कोई क्लाइमेक्स रहता है. यह कोई नयी बात नही है. राज कपूर और नरगिस से लेकर आज तक ऐसे बहुत से किस्से हैं जब इन हीरोइनो का दिल पानी के बुलबुले की तरह फूटता रहता है. अल्ला बचाये इन हसीनो से.

अभिनव की पहल स्वागत योग्य


सियासत हमेशा से आम आदमी के सुकून की दुश्मन रही है. बिहार में बाढ आयी तो लालू बोले सियासत नही करेंगे. अगले दिन फिर शुरू हो गये. सरकार पर निशाना साधने लगे. खैर यह तो पुरानी परिपाटी है. वोट की इतनी बडी फसल तैयार हो और कोई उसे न काटे, यह कैसे हो सकता है. लालू तो ठहरे राजनीति के धुरन्धर खिलाडी, वे भला कैसे चुकते. ऐसे मौके पर तो राजनीति होनी ही है. और फिर उनके प्रतिद्वंदी ही कब चूके थे. जब लालू और राबडी की सरकार थी और बिहार मे कुछ भी होता था तो नीतीश कुमार टांग अडाये खडे मिलते थे. पर लालू और नीतीश की बात छोड दी जाये तो सच यही है कि बिहार इन दिनो सभी सियासत करने वालो के लिये खास हो गया है. ऐसा भी नही है कि इनमें आम आदमी की दुश्वारियो की चिंता करने वाले नही है, बहुत से ऐसे भी हैं जिन्हे आम जन का दर्द साल रहा है. पानी के बहाव में वे लोग भी कराहती मानवता के लिये पानी पानी हो गये हैं. शर्म तो उनको नही आ रही जो लोग इस बाढ मे भी अपना खजाना भरने की सोच रहे हैं. मुझे उन लोगो की पहल अच्छी लग रही है जो इस संकट की घडी में दर्द के मारो की मिजाजपुर्सी में जुटे हैं. ओलम्पिक से सोना लेकर लौटे अभिनव बिंद्रा की सोचिये तो अपने ट्रस्ट से उसने पांच लाख रुपये बाढ राहत में दिये. बिहार की आपदा के सामने यह पैसा भले कम है लेकिन इसमे देशप्रेम और आपसी सहयोग की भावना भरी हुई है. आज जब छोटे छोटे दल घास फूस की तरह उग रहे हैं और क्षेत्रीयता मुल्क को टुकडो टुकड़ों में बांटने पर आमादा है तब अभिनव की पहल स्वागत योग्य है. बिहार सिर्फ एक राज्य भर नही है. भारत की सभ्यता और संस्कृति का दस्तावेज है. चाणक्य जैसे महान कूटनीतिक अर्थशाष्त्री की भूमि रही है. आजादी की लडाई के योध्दाओ की भूमि रही है. नदी के बहाव से इसे बचाने की जरूरत है. अभिनव ने बिहार को भारत का एक अंग समझा है. उसे ध्यान में आया है कि जिन लोगो ने उसके पदक पाने पर सर्वाधिक खुशी मनायी वही लोग संकट में हैं. यकीनन बिहार को बांट कर नही जोड कर देखने की जरूरत है.

1 सित॰ 2008

ऐश, कैट और करीना सबको कर दिया नंगा


आजकल सविता भाभी की बडी धूम है. मीडिया से लेकर ब्लोग तक हर जगह सविता भाभी की चर्चा चल रही है. पोर्न स्टार बन गयी हैं एक काल्पनिक सविता. पर पोर्न के धंधे बाजो ने तो ऐश्वर्या से लेकर कैट और करीना तक को नंगा कर दिया है. यह एक ट्रिक फोटोग्राफी का कमाल है लेकिन सेक्स साइटो पर लोग आंखे फाड कर ऐश और कैट को विभिन्न मुद्राओ में देख रहे हैं. इन्हे देखने वालो की अच्छी तादाद है. गूगल में सेर्च करके यह तमाशा खूब चलाया जा रहा है. इसी ने साइबर कैफे के धंधे को आबाद कर दिया है. छोटे छोटे बच्चे साइबर कैफे में सुबह से शाम तक अपना वक्त गुजार रहे हैं. कई बच्चे तो ऐसे हैं जो स्कूल टाईम में घर से निकलते हैं और छुट्टियो में वापस आ जाते हैं. उनका पूरा वक्त यही सब करते गुजर जाता है. मानसिक रूप से बच्चो को यह साइट विकलांग बना रही है. इन दुश्वारियो से बहुत से अभिभावक वाकिफ हैं और वे अपने बच्चो पर अंकुश लगाये रहते हैं लेकिन अंकुश लगाकर तो इस समस्या का समाधान नही हो सकता. बहाव रोकने पर तो पानी फूट जाता है. छोटी उम्र के बच्चो को ये चीजे आकर्षित करती हैं. प्रयास तो यही होना चाहिये कि उनमे यह आकर्षण ही न पैदा हो. इसके लिये तो वेब दुनिया के खोजी पन्नो जैसी चीजो का प्रचार करना चाहिये ताकि बच्चे अपनी दिशा तय कर सके और उनकी सोच सकारात्मक हो सके.
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