26 जन॰ 2010

पूर्वजों का शौर्य देख रोमांचित हो गए पिण्डारी

आनन्द राय, गोरखपुर
इतिहास की बुनियाद और कल्पना के सहारे पिण्डारियों की शौर्य गाथा पर बनी फिल्म वीर को पूर्वाचल में ऐतिहासिक सलामी मिली। हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में भी यहां के सिनेमा हाल गरम हो गये। जुमे की नमाज की वजह से पिण्डारी दिन का शो नहीं देख सके। दोस्तों के साथ पिण्डारी मुखिया ने रात का शो देखा। पर्दे पर पिण्डारियों की शौर्य गाथा देखकर वे लोग रोमांचित हो गये।
 फिल्म वीर पूर्वाचल में इसलिए बेहद प्रांसगिक हो गयी क्योंकि अंग्रेजों ने समझौते के तहत पिण्डारी सरदार करीम खां को गोरखपुर के सिकरीगंज में जागीर देकर बसाया। अब उनकी वंश बेल दूर दूर तक फैल गयी है। इस ऐतिहासिक तथ्य को दैनिक जागरण ने 21 जनवरी के अंक में उजागर किया इसलिए सिनेमा घरों पर दर्शक उमड़ पड़े। पिण्डारी परिवार के मुखिया अब्दुल रहमत करीम खां और अब्दुल माबूद करीम खां जुमे की वजह से दिन में नहीं जा पाये लेकिन रात को एसआरएस में शो देखा। एक एक दृश्य पर उन लोगों की निगाह जमी थी। पहले उन लोगों ने तय किया था कि यदि फिल्म में उनके पूर्वजों पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी हुई तो न्यायालय का दरवाजा खटखटायेंगे। पूरी फिल्म पिण्डारी कौम की शौर्य गाथा को प्रदर्शित कर रही है इसलिए उन लोगों की खुशी बढ़ गयी।
फिल्म वीर में पिण्डारियों के कबीले में हिन्दू मुसलमान दोनों दिखे। फिल्म में हैदर अली पिण्डारियों के सरदार हैं जबकि पूरी फिल्म की कहानी पिण्डारी पृथ्वी सिंह के पुत्र वीर के इर्द गिर्द ही घूमती है। फिल्म में इस बात को झुठलाने की कोशिश की गयी है कि पिण्डारी अमानवीय, बेहद क्रूर और अराजक थे। माधवगढ़ की युवराज्ञी यशोधरा से प्रेम की शुरूआत ही लूटपाट करने गये वीर के मानवीय गुणों से होती है। पिण्डारी परिवार के रहमत खां और माबूद खां यह सुनना पसंद नहीं करते हैं कि पिण्डारी लुटेरे और क्रूर थे। उनका कहना है कि पिण्डारी कौम हमेशा से बहादुर थी, अन्याय के खिलाफ लड़ी । उन लोगों का कहना है कि फिल्म में हमारी सही समीक्षा की गयी है। फिल्म की बारीकियों पर नजर रखने वाले सिनेमा वितरक अख्तर हुसैन अंसारी कहते हैं कि वीर फिल्म में इतिहास के कुछ जीवित संदर्भ हैं लेकिन काल्पनिक जिंदगी की तस्वीरें सब पर भारी है।
यह रपट २३ जनवरी के अंक में दैनिक जागरण ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है.
परवान चढ़ रही पिण्डारियों की सक्रियता
आनन्द राय , गोरखपुर: अंग्रेजों की कूटनीति से बिछड़ गये पिण्डारी अब मिलने लगे हैं। एक दूसरे से जुड़ने का सिलसिला शुरू हो गया है। ऐतिहासिक तथ्यों की गड़बड़ी को सही करने की दिशा में भी उनकी सक्रियता परवान चढ़ रही है। पिण्डारी अब इस बात का दावा करने लगे हैं कि सियासी चाल के तहत उनके इतिहास को कलंकित कर उन्हें लुटेरा लिखा गया। वीर फिल्म से चर्चा में आये पिण्डारियों के बारे में जब दैनिक जागरण ने सिलसिलेवार खबरों का प्रकाशन शुरू किया तो वे लोग सक्रिय होने लगे। पिण्डारी मुखिया अब्दुल रहमत करीम खां का कहना है कि अंग्रेजों ने एक योजना के तहत हम लोगों को अलग अलग बिखेर दिया और कई लोगों के मरने की झूठी खबर फैला दी। उनका कहना है कि जैसे गनेशपुर में चीतू खां के मरने के झूठे इतिहास का सच उजागर हो गया उसी तरह और भी कई सच सामने आने बाकी हैं। उन्होंने यह कयास लगाया है कि जिस वसील मोहम्मद को गाजीपुर के जेल में मरने की बात इतिहास में कही गयी है, हो सकता है कि वह भी झूठ हो और उनके भी वंशज गाजीपुर में हों। ध्यान रहे कि इतिहास में यह पढ़ाया जाता है कि पिण्डारियों के सरदार करीम खां ने जब अंग्रेजों के सामने समर्पण कर दिया तब उन्हें गौशपुर में बसाया गया। चीतू खां को जंगल में चीता खा गया जबकि वसील मोहम्मद गाजीपुर जेल में बंद किये गये जहां उनकी मौत हो गयी। बस्ती के डा. सलीम अहमद पिण्डारी ने इस झूठे तथ्य से पर्दा उठाया कि कादिर बख्श खान उर्फ चीतू खान जंगल में चीता के मारने से नहीं मरे बल्कि गनेशपुर में बहुत दिनों तक सामान्य जिंदगी जिये। अब गनेशपुर में उनके वंशज समाज की मुख्यधारा से कदमताल कर रहे हैं। सरदार करीम खां ने अपने जिंदगी की नयी शुरूआत सिकरीगंज के नवाबहाता से की जहां उनकी मजार है। देवरिया जिले के खुखुंद गांव से अब डा. शमीम सामने आये हैं। उन्होंने कहा है कि उन लोगों के साथ बेहद नाइंसाफी हुई। उन लोगों को घुमंतू जाति में शामिल कर दिया गया। डा. शमीम के मुताबिक वे लोग लुकमान पिण्डारी के वंशज हैं। लुकमान भी बहादुर योद्धा थे। शुरू में जिन्हें जौनपुर के सोहौली गांव में बसाया गया, बाद में वे लोग देवरिया जिले में आ गये। डा. शमीम कहते हैं कि हम लोग पढ़े लिखे और बलशाली लोग हैं जो हमेशा समाज में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। पिण्डारी आंदोलन के प्रवक्ता माबूद अहमद करीम खां कहते हैं कि हम अपने मुखिया अब्दुल रहमत करीम खां के निर्देश पर सभी पिण्डारियों को जोड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि बस्ती के डा. सलीम पिण्डारी हम लोगों के रिश्तेदार हैं। दूसरे और भी लोग हम लोगों से जुड़े हैं। लोगों के खुलकर आने से हमारी ताकत बढ़ रही है। एक विशेष समारोह के बाद हम लोग मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राज्यपाल के साथ ही चेयरमैन भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को पत्रक सौंपेंगे और इतिहास के गलत तथ्य को मिटाने की मांग करेंगे।
यह खबर १ फरवरी को दैनिक जागरण गोरखपुर में पेज ५ पर छपी है.

हां! मेरे पूर्वज लुटेरे थे मगर..


आनन्द राय, गोरखपुर
 पिण्डारियों की शौर्य गाथा को प्रदर्शित करने वाली फिल्म वीर पिण्डारियों के मुखिया रहमत करीम खां और उनके चचेरे भाई अब्दुल माबूद करीम खां को जितनी अच्छी लगी, उतना ही इतिहास से उनकी नाराजगी बढ़ गयी। इतिहास में पिण्डारियों को बर्बर और लुटेरा लिखे जाने पर उन लोगों ने क्षोभ जाहिर किया है और भारत सरकार से मांग की है कि इतिहास से झूठे तथ्यों को हटाया जाये।


बातचीत में उन लोगों ने यह स्वीकार किया कि हमारे पूर्वज लुटेरे थे, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों को ही लूटा। अंग्रेजों के लिखे इतिहास को ही हमारा इतिहास मान लिया गया। इस कलंक को मिटाने के लिए वे अभियान चलायेंगे। लार्ड हेस्टिंग्स के साथ हुए समझौते के तहत 1820 में सिकरीगंज में जागीर देकर बसाये गये पिण्डारी सरदार करीम खां के वंशज अब्दुल रहमत करीम खां, अब्दुल माबूद करीम खां और उनके परिवारीजन ने शुक्रवार की रात को फिल्म वीर देखी। इस फिल्म को देखने के बाद उन लोगों ने शनिवार की सुबह सिकरीगंज नवाब हाता में अपने परिवारीजन में खुशी बांटी।

 फिल्म से संतुष्ट पिण्डारी मुखिया को सलमान खान से सिर्फ इतनी शिकायत है कि उनके पूर्वज करीम खां का फिल्म में जिक्र नहीं हुआ है। पर इसी फिल्म ने उन लोगों का हौसला बढ़ा दिया है। उन लोगों को अब इतिहास पर आपत्ति है। पिण्डारी मुखिया का कहना है कि हां, हमारे पूर्वज लुटेरे थे, लेकिन उन्हें गलत ढंग से इतिहास में दिखाया गया है। आजादी की लड़ाई में हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों से संघर्ष किया और उनके खजाने को लूटा। इतिहासकारों से पिण्डारी परिवार का सवाल है कि क्या आजादी की लड़ाई के दौरान जिन-जिन नामचीन सेनानियों ने अंग्रेजों का खजाना लूटा उन्हें लुटेरा कहा जाये? पिण्डारियों का कहना है कि उनके पूर्वजों ने अंग्रेजों और उनके सरपरस्तों को लूटा। अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया, इसलिए उन्होंने हमसे समझौता किया। हम अंग्रेजों पर भारी पड़े, यह बहुतों को हजम नहीं हुआ। माबूद खान का तर्क है कि चूंकि हम बेहद अल्पसंख्यक हो गये और पिण्डारी सेना को अंग्रेजों व उनकी गुलाम राजाओं ने तबाह कर दिया, इसलिए सियासी चाल के तहत हमारे इतिहास को दागदार कर दिया गया। अब हमारा मकसद इस कलंक को धोना है। इतिहास के पन्नों लिखी गलत इबारत को दुरुस्त करना है।
यह रपट २४ जनवरी के अंक में दैनिक जागरण गोरखपुर समेत अन्य कई संस्करों में छपी है. गोरखपुर दैनिक जागरण में पेज ३ पर देंखे.

पिण्डारी बोले हमें भी सम्मान चाहिए

आनन्द राय , गोरखपुर: इतिहास के पन्नों में लुटेरा साबित हुये पिण्डारियों ने वीर फिल्म के प्रदर्शन के बाद अपने स्वाभिमान की लड़ाई शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नाम सम्बोधित चिट्ठी में पिण्डारियों ने कहा है कि सरकार हमे भी सम्मान दो ताकि हम चैन से जी सकें। यह चिट्ठी पिण्डारियों के बीच सोमवार से घूमेगी और सबके हस्ताक्षर के बाद ही इसे सौंपा जायेगा।अंग्रेजों के कहने पर बने इतिहास में कितना छुक है इसका उदाहरण इस चार्ट में है. इसमें लार्ड वारेन हेस्टिंग्ज और लार्ड हेस्टिंग्ज को एक समझ लिया गया है.

 सलमान खान की फिल्म वीर के प्रदर्शन के बाद सिकरीगंज स्थित नवाब हाता में सक्रियता बढ़ गयी है। पिण्डारी सरदार करीम खां के वंशज परिवार के मुखिया अब्दुल रहमत करीम खां और उनके भाई अब्दुल माबूद करीम खां ने अपने सम्मान के लिए अभियान शुरू कर दिया। रविवार को मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के नाम सम्बोधित एक पत्रक तैयार हुआ जिसमें उन लोगों ने यह लिखा है कि पिण्डारी कौम बहुत बहादुर थी। आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ी। लेकिन मालवा प्रदेश में पिण्डारियों को घेरकर धोखे से मारा गया।
  धोखा देने के बाद भी जब बचे हुये पिण्डारी उन पर भारी पड़े तो उन लोगों ने समझौता किया। अमीर को टोंक और करीम खां को गोरखपुर के सिकरीगंज में जागीर दी गयी। वसील मुहम्मद को उन लोगों ने गाजीपुर कारागार में बंद कर दिया जहां उनकी मौत हो गयी। जबकि चीतू को जंगल में चीता खा गया। इस बहादुर कौम को अल्पसंख्यक होने के नाते इतिहास में लुटेरा लिख दिया गया। इस तथ्य को सही किया जाय और यह स्पष्ट किया जाय कि पिण्डारी कौम देश की आजादी की लड़ाई लड़ने वाली बहादुर कौम थी। इस अभियान के प्रवक्ता माबूद करीम खान ने कहा है कि हम अपने मुखिया के निर्देश पर इस पत्रक पर अपने समाज के लोगों का सोमवार से हस्ताक्षर करायेंगे और फिर इसे सरकार को सौंपा.
यह रपट दैनिक जागरण गोरखपुर संस्करण समेत और भी कई जगह २५ जनवरी के अंक में छपी है. 

पिण्डारी चीतू खां के जंगल में मरने का तथ्य झूठा

आनन्द  राय  , गोरखपुर :

इतिहास में पिण्डारियों को लुटेरा कहे जाने के खिलाफ पिण्डारी सरदार करीम खां के वंशज अब्दुल रहमत करीम खां और अब्दुल माबूद करीम खां द्वारा शुरू किये गये संघर्ष की लौ तेज हो गयी है। बस्ती के डा. सलीम अहमद पिण्डारी ने इस अभियान को आगे बढ़ाने का फैसला किया है और कहा है कि अब यह मशाल लखनऊ, टोंक और भोपाल तक जलेगी। डा. सलीम खां की माने तो वे उसी पिण्डारी सरदार चीतू खां के वंशज हैं, जिनके बारे में इतिहास में दर्ज हो गया कि चीतू को जंगल का चीता खा गया। जंगल में उनके मरने का तथ्य झूठा है।
  पिण्डारी सरदार करीम खां की पांचवीं पीढ़ी के वंशज रहमत करीम खां और माबूद करीम खां ने इतिहास में सही तथ्य दर्ज करने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को सम्बोधित पत्र को लेकर सोमवार से हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है। यह चिट्ठी अभी गोरखपुर से आगे नहीं बढ़ी है लेकिन बस्ती के डा. सलीम अहमद पिण्डारी ने भी इतिहास के गलत तथ्यों को मिटाने का बीड़ा उठा लिया है। उन्होंने कहा है कि रहमत करीम खां हमारे परिवार के हैं।
   उन्होंने दावा किया कि हमारी कौम आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से लड़ी और बहादुरी से लड़ी। उन्होंने बताया कि चीतू खां का असली नाम कादिर बख्श था। 1816 से 1818 तक लखनऊ में वे लार्ड हेस्टिंग्स की सेना से लड़े। 1920 में उन्हें भी समझौते के तहत बस्ती जिले से सात किलोमीटर दूर गनेशपुर में ससम्मान बसाया गया। कादिर बख्श के पुत्र खादिम हुसैन को दो बेटे खान बहादुर नवाब गुलाम हुसैन और नवाब गुलाम मुहम्मद हुये। डा. सलीम पिण्डारी नवाब गुलाम हुसैन के इकलौते पुत्र नवाब सैदा हुसैन के पुत्र हैं। चीतू की पांचवीं पीढ़ी के डा. सलीम को सदा से पिण्डारी होने का गर्व है इसीलिए उन्होंने बस्ती में अपने अस्पताल का नाम पिण्डारी हास्पीटल रखा। डा. सलीम कहते हैं कि हमारे पूर्वजों ने अंग्रेजों से इतनी जबर्दस्त लड़ाई लड़ी कि उन्हें हमारे आगे झुकना पड़ा। उन्होंने बताया कि 4 जून 1928 को यूके में मेरे दादा खान बहादुर गुलाम हुसैन को सम्मानित किया गया। इसके अलावा 12 मई 1937 को ब्रिटिश महारानी ने भी उनका सम्मान किया। उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों की लड़ाई का परिणाम रहा कि देश को आजादी मिली। इतिहास में गलत ढंग से तथ्यों को तोड़ा मरोड़ा गया है। अब गनेशपुर के जर्रार अहमद पिण्डारी, अब्दुल्ला पिण्डारी, अब्दुल रहमान, अब्दुल रहीम और आसिल पिण्डारी भी अपने सम्मान के लिए शुरू हुये आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभायेंगे।
यह रपट दैनिक जागरण गोरखपुर समेत कई संस्करणों में २६ जनवरी को  छपी है.

21 जन॰ 2010

वीर फिल्म के बहाने खुल गए इतिहास के पन्ने


वीर फिल्म के बहाने इतिहास के पन्ने खुल गए. इतिहास और किम्वदंतियों को जोडकर मैंने एक रपट लिखी जो चर्चा में आ गयी. मेरे एक आदरणीय हैं जिन्होंने मुझे इस खबर के लिए प्रेरित किया. कभी मैं उनका नाम बताउंगा. ऐसी कई ख़बरों के लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूँ. मैं इस रपट को तैयार करते समय बेहद भावुक था. सिर्फ इसलिए कि वीर फिल्म चर्चा में है और यह रपट भी मुझे चर्चा में रखेगी. इस ठण्ड में जूनून के साथ मैं गोरखपुर में पिंडारियों और उनके वंश को तलाश करने लगा. चार दिन पहले ११ बजे सुबह मेरा प्रयास शुरू हुआ और लगभग २५ लोगों से बातचीत के बाद मध्यकालीन इतिहास विभाग के प्रवक्ता डाक्टर ध्यानेन्द्र नारायण दुबे ने क्लू दिया. पता चला कि मदीना मस्जिद के पास पिंडारी बिल्डिंग है. वहां कुछ जानकारी मिल सकती है. मदीना मस्जिद के पास गया तो किसी को पिंडारी बिल्डिंग के बारे में पता नहीं था. एक बुजुर्ग चाचा ने मेरी समस्या हल कर दी. उन्होंने बताया कि लुटेरों के सरदार के वारिसों की बिल्डिंग में ही इलाहाबाद बैंक है. मैं पहुंचा तो वहां नीचे दुकाने थी. ऊपर बैंक था. थोड़ा सहमते हुए सबसे उपरी मंजिल पर पहुँच गया. एक छोटे से बंगले में एक परिवार के रहने की आहात मिली. वहां माबूद करीम खान मिले. पहले तो मुझे टालने लगे. अखबार वालों के बारे में उनकी धारणा कुछ ठीक नहीं थी. पर मेने अनुरोध के बाद उन्होंने अपने पूर्वजों की कहानी बतायी. यह पूछना थोड़ा असहज था कि पिंडारी लुटेरे थे. पर मेरे पूछने पर उन्होंने इतिहासकारों को कटघरे में खडा कर दिया. फिर गोरखपुर विश्वविद्यालय मध्यकालीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर ए.के श्रीवास्तव से बात हुई. विशेषग्य के तौर पर प्रोफ़ेसर रिजवी से बातचीत की. बस एक सिलसिला शुरू हो गया. पिंडारी परिवार के मुखिया सिकरीगंज में रहने वाले रहमत करीम खान से भी मैंने बात की. मेरी रपट तैयार हो गयी. आभारी हूँ अपने संस्थान के सम्पादकीय विभाग के सभी साथियों का जिन लोगों ने रुचि लेकर खबर को बेहतर ढंग से लगाया. सुबह माबूद का फोन आया तो अखबार वालों के बारे में उनकी धारणा बदली थी. हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि बड़ी सफाई से आपने हमारे पूर्वजों को लुटेरा लिखा दिया. पर वे खुश थे. फिर तो फोन का सिलसिला चल पडा. मैं भी खुश हूँ. आप भी पढ़िए इस रपट को.





ये हैं “वीर” के असल वीर



गोरखपुर [आनन्द राय]। पिंडारियों की साहसिक गाथा को प्रदर्शित करने वाली सलमान खान की फिल्म ‘वीर’ 22 जनवरी को देश भर में रिलीज हो रही है। इसी वजह से पिंडारियों के प्रति लोगों की जिज्ञासा बढ़ गई है। आज भी यह कौम अपनी पताका फहरा रही है। पिंडारियों के सरदार करीम खां की मजार गोरखपुर जिले के सिकरीगंज में उनकी बहादुरी की प्रतीक बनी हुई है, जबकि उनके वारिस पूरी दिलेरी से दुनिया के साथ कदमताल कर रहे हैं। यानी यहां हैं ‘वीर’ के वीर।
गोरखपुर शहर में मदीना मस्जिद के पास 60-65 साल पुरानी पिंडारी बिल्डिंग है, इसके मालिक पिंडारियों के सरदार करीम खां की पांचवीं पीढ़ी के अब्दुल रहमत खां हैं। वे अपनी बिरादरी के अगुवा भी हैं। उनका कारोबार सिकरीगंज से लेकर गोरखपुर तक फैला है। उनके भाई अशरफ कनाडा में इंजीनियर हैं। दैनिक जागरण से बातचीत में वे अपने पूर्वजों की वीरता की कहानी सुनाकर अपने वजूद का अहसास कराते हैं।

वे बताते हैं कि एक समझौते के तहत अंग्रेजों ने पिंडारियों के सरदार करीम खां को 1820 में सिकरीगंज में जागीर देकर बसाया। सिकरीगंज कस्बे से सटे इमलीडीह खुर्द के ‘हाता नवाब’ से सरदार करीम खां ने अपनी नई जिंदगी शुरू की। इंतकाल के बाद वे यहीं दफनाए गए। शब-ए-बारात को सभी पिंडारी उनकी मजार पर फातेहा पढ़ने आते हैं। पांचवीं पीढ़ी के ही उनके एक वंशज माबूद करीम खां पिंडारी मेडिकल स्टोर चलाते हैं। उनको यह सुनना गंवारा नहीं है कि उनके पूर्वज लुटेरे थे। वे इसे ऐतिहासिक तथ्यों की चूक बताते हैं। उनका कहना है कि हमारे पूर्वजों ने अन्याय और अत्याचार का मुकाबला किया। सरदार करीम की वंश बेल सिकरीगंज से आगे बढ़कर बस्ती और बाराबंकी तक फैल गई है।

 गोरखपुर विश्वविद्यालय के मध्यकालीन इतिहास विभाग के प्रो. सैयद नजमूल रजा रिजवी का कहना है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में लुटेरे पिंडारियों का एक गिरोह था, जिन्हें मराठों ने भाड़े का सैनिक बना लिया। मराठों के पतन के बाद वे टोंक के नवाब अमीर खां के लिए काम करने लगे। नवाब के कमजोर होने पर पिंडारियों ने अपनी जीविका के लिए फिर लूटमार शुरू कर दी। इससे महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में शांति व्यवस्था मुश्किल हो गई। फिर लार्ड वारेन हेस्टिंग ने पिंडारी नियंत्रण अभियान चलाया। उसी कड़ी में सरदार करीम खां को सिकरीगंज में बढ़यापार स्टेट का कुछ हिस्सा और 16 हजार रुपये वार्षिक पेंशन देकर बसाया गया। करीम खां के भतीजे नामदार को अंग्रेजों ने भोपाल में बसाया। पिंडारियों के कारनामों पर इतिहासकार एसएन सेन और जीएस सरदेसाई ने भी काफी कुछ लिखा है। इतिहासकारों ने उन्हें कबीलाई लुटेरा करार दिया है। उनके मुताबिक पिंडारी अलग-अलग जातियों का एक समूह था, जिनके सरदारों में चित्तू, करीम और वसील मुहम्मद प्रमुख थे। यह भी कहा जाता है कि पिंडा नामक नशीली शराब का सेवन करने से इस कौम को पिंडारी कहा जाने लगा।
यह रपट २१ जनवरी को दैनिक जागरण के कई प्रमुख संस्करणों में छपी. गोरखपुर में यह पहले पेज पर छपी है.

20 जन॰ 2010

बंदूक से बहलाये जा रहे बच्चे


आनन्द राय  , गोरखपुर :
 पापा पापा मुझे गन चाहिये। मम्मी मुझे गन खरीद दो। मुझे गन लेनी है। मुझे आटो गन चाहिये। बच्चों की इस तरह की जिद अक्सर खिलौने की दुकानों पर देखने को मिलती है। मां-बाप कुछ मसलहतन कुछ मजबूरन इस फरमाइश को पूरा कर रहे हैं। अब बच्चे बंदूक से बहलाये जा रहे हैं।
 खिलौने की शायद ही कोई ऐसी दुकान हो जहां विभिन्न किस्मों की बंदूक न रखी गयी हो। चूंकि खेलने के लिए बच्चों की पहली पसंद बंदूक हो गयी है इसलिए यह दुकानदार और अभिभावक दोनों की मजबूरी हो गयी है। मां-बाप बच्चों की पसंद को नजरअंदाज नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि खिलौनों की सूची में बंदूक पहली बार जुड़ी है। कई दशकों से खेलने वाली बंदूकें बन रही हैं। पर अब उसका स्वरूप बदल गया है। मशीन गन से लेकर कार्बाइन की शक्ल में खिलौने बन गये हैं। पन्द्रह रुपये से लेकर पांच सौ तक के इन खिलौनों पर बच्चों की बांछे खिल जाती हैं।
   दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्र्वविद्यालय मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर अनुपम नाथ त्रिपाठी कहते हैं कि जो एक्सपोजर है, मनोरंजन की सामग्री उपलब्ध है उसमें गन की बहुतायत है। सिनेमा, टी.वी. में इसी तरह की चीजें परोसी जा रही हैं। यह तो सोशल लर्निग है। बंदूक बच्चे के अंदर की इच्छा नहीं है। यह इच्छा बाहरी दुनिया को देखकर उपज रही है। हुमायूंपुर का आठ साल का आदर्श कहता है कि मेरे पापा के पास भी गन है। जान अब्राहम और सलमान खान भी हमेशा गन लेकर दिखते हैं। इसी उम्र के राज को आटो गन पसंद है तो विशाल और क्षितिज ने भी कई तरह की गन रखी है। 4 साल से लेकर 12 साल तक के बच्चों में इसी बंदूक का क्रेज है।
   अलग अलग दुकानों पर खिलौना बेचने वाले मनीष और इदरीस कहते हैं कि अब तो कम्पनियां ऐसी ऐसी गन बना रही हैं जो देखने में बिल्कुल असली लगती हैं। इनके दाम भी खूब हैं लेकिन खरीदने वाले खरीदते ही हैं। कुछ साल पहले तक बच्चों की पहली पसंद कार होती थी लेकिन अब वे बंदूक को ही पहली प्राथमिकता दे रहे हैं। अभिभावक कौशल शाही, तेज नारायण पाण्डेय और पी.के. राय राजू स्वीकार करते हैं कि जैसा समाज हम बना रहे हैं वैसा असर बच्चों पर पड़ रहा है। हमारे बच्चे हमें रोज असलहा लगाते देखते हैं। सिनेमा में असलहा देखते हैं। पैदा होते ही उन्हें मीडिया के जरिये असलहों की ही आवाज सुनायी दे रही है इसलिए यही उनकी पसंद बन रही है। असली बंदूक बेचने वाले ब्रहमदत्त इससे अलग नजरिया रखते हैं। कहते हैं कि बचपन में भगत सिंह की बंदूक बोने वाली कथा तो प्रेरणा के तौर पर है। और इसे प्रेरणा के तौर पर ही लेना चाहिये।
(मेरी यह रपट  २० जनवरी को दैनिक जागरण गोरखपुर में पेज ६ पर प्रकाशित है. )

18 जन॰ 2010

प्रचंड के चेहरे से उतर गया नकाब


भारत और नेपाल मित्र राष्ट्र है. मेरे एक परिचित अवसर मिलने पर भी नेपाल नहीं जाना चाहते. कहते हैं कि उनकी कुंडली में विदेश योग है. नेपाल जाकर अपने योग को सस्ते में गंवाना नहीं चाहते. यह प्रसंग सिर्फ इसलिए कि नेपाल यहाँ के लोगों को विदेश नहीं लगता. ढाई दशक में सरहद के कस्बों से लेकर काठमांडू तक अनगिनत यात्रा की. रहन सहन और परिवेश भले अलग लगा लेकिन कभी यह महसूस नहीं हुआ कि गैर मुल्क में आये हैं. तब भी जब माओवादी आन्दोलन चरम पर था, तब भी जब राज परिवार की ह्त्या हुई और लोग उबल रहे थे, वहां कोई भय जैसी बात नहीं थी. पर अब भय का वातावरण बनाया जा रहा है.



शुरुआत प्रचंड ने की है. वही प्रचंड जो राज परिवार से मुकाबला करते हुए अपने फरारी के दिनों में भारत में रहते थे. जिस भारत की जमीन ने उन्हें खडा होने को बल दिया उसके खिलाफ जहर उगल रहे हैं. उन्हें पीलीभीत नेपाल का हिस्सा दिखने लगा है. कुछ दिन के लिए प्रधानमंत्री हुए तो भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे और अब जहर उगल रहे हैं. भारत और नेपाल की सरकार उनके बयान पर क्या सोचती है, यह तो बाद की बात है. नेपाल में माओवाद को खडा करने वाले बाबू राम भट्टराई को भी प्रचंड का बयान पसंद नहीं आया. उन्होंने खुले तौर पर उनकी आलोचना की. उन्होंने प्रचंड को सोच समझ कर बोलने की सलाह दी. उन्होंने प्रचंड को यह समझाने की भी जुर्रत की कि भारत के विरोध में बेवजह बोलने से कुछ नहीं होने वाला है.

नेपाल में सत्ता के विरोध में आम आदमी के मन में गैरत पैदा करने का काम बाबूराम ने किया है. उन्होंने माओवादी आन्दोलन को जमीन दी है. प्रचंड उग्र विचारों से भले हमेशा सुर्ख़ियों में रहे हों लेकिन बाबूराम के प्रति वहां के माओवादियों में एक श्रद्धा देखी गयी है. अब तो लोग खुलेआम कहने लगे हैं कि प्रचंड चीन के इशारे पर भारत विरोधी अभियान में सक्रिय हो गए हैं. उन्हें भारत और नेपाल के संबंधों का ख्याल नहीं है. वे वर्षों पुराने रिश्ते को सर्द कर देने पर आमादा हैं. प्रचंड को यह ख्याल नहीं है कि दोनों देशों के बीच अभी भी रोटी बेटी का संबध है. उन्हें इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं है कि तमाम झंझावातों के बीच सरहद पर दोनों मुल्कों के लोग एक दूसरे का सुख दुःख समझते हैं. उन्हें तो बस अपनी सियासत करनी है. नेपाल पर राज करने की अधूरी ख्वाहिश को अंजाम देना है. ये वही प्रचंड हैं जो प्रधानमंत्री बनने के बाद लाखों रूपये की पलंग पर सोने लगे और अपने काफिले में मंहगी से मंहगी गाड़ियां रखने लगे. नेपाल का आम आदमी तो उन्हें उसी दिन से पहचान गया. नेपाल के लड़ाका माओवादियों के dil से तो वे उसी समय उतर गए.

सच मानिए कि उनके चेहरे पर एक नकाब लगा है. वो धीरे धीरे उतर रहा है. अभी बाबूराम ने उन्हें नसीहत दी है. आगे और भी लोग उन्हें सबक देंगे. भारत के खिलाफ जहर उगल कर वे भी नेपाल में पनाह लिए उन तमाम भारत विरोधियों की कतार में खड़े हो गए हैं जो हर पल भारत की अशांति का ख्वाब देखते हैं. प्रचंड अपनी हद में रहे तो उनकी सेहत के लिए ठीक होगा. उनके सियासी अरमान भी तभी फलीभूत हो सकते हैं जब उनकी आत्मा साफ़ सुथरी हो.

16 जन॰ 2010

पूर्वाचल के मुसलमानों को सहेजने की सियासत


आनन्द राय गोरखपुर : पूर्वाचल के मुसलमानों को सहेजने की नयी कवायद शुरू हो गयी है। विभिन्न राजनीतिक दलों में बंटे मुसलमानों को एक मंच पर लाने की तरकीब लगायी जा रही है। पहल दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने एक गैर राजनीतिक संगठन बनाकर की है। अब उनकी आवाज को गांव-गांव में पहंुचाने की कोशिश शुरू हो गयी है। राजनीति में हाशिये पर पहंुच गये कुछ मुस्लिम नेताओं ने अभियान की कमान संभाल ली है।
 पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम नेताओं की रहनुमाई कम हुई है। उनके प्रतिनिधित्व में कमी की समीक्षा नये सिरे से हुई है। रहनुमाओं का मानना है कि उनकी तादाद तो अधिक है लेकिन खेमों में बंटने के कारण ताकत उभर नहीं रही है। इसी कारण अब गैर राजनीतिक संगठनों से फिर से एक जुट होने का आह्वान किया जा रहा है। शाही इमाम के आगाज के बाद गोरखपुर में पूर्व विधायक और सपा के जिलाध्यक्ष रहे डा.मोहसिन खान की सक्रियता बढ़ी है। उनके साथ नगर निगम में पार्षद दल के नेता जियाउल इस्लाम समेत कई मुस्लिम नेता आगे बढे़ हैं। फरवरी माह में बड़े सम्मेलन की तैयारी हो रही है। अभियान कितना कारगर होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन अतीत पर नजर डालें तो शाही इमाम के पिता के फतवे का काफी असर रहा है। उनके फतवे ने सियासी बदलाव भी किये हैं।
   गौरतलब है पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों के कई छोटे राजनीतिक दल वजूद में हैं। बसपा से बगावत करने के बाद पूर्व मंत्री डा. मसूद ने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनायी। कुछ दिनों बाद दल दो टुकड़ों में बंट गया। एक की कमान मसूद के हाथ में थी और दूसरे का नेतृत्व अरशद ने संभाल लिया। आजमगढ़ में लोकसभा चुनाव के दौरान उलेमा कौंसिल का सियासी चेहरा सामने आया। और इसके बैनर पर चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों ने प्रभावित किया। बड़हलगंज के चर्चित सर्जन डा. अयूब ने भी राजनीतिक मोर्चेबंदी की और उनकी पीस पार्टी ने बलिया से लेकर बाराबंकी तक खलबली मचा दी। सपा पहले से ही मुसलमानों की हमदर्द थी। इस तरह मुसलमानों के बीच कई खेमे बन गये। इसी खेमेबंदी को दूर करने के लिए शाही इमाम के सहारे कुछ ताकतें गोलबंद हो रही हैं।

12 जन॰ 2010

जोर-जुल्म के टक्कर में नजीर बनी जानकी


आनन्द राय, गोरखपुर
 जिंदगी के कठोर अनुभवों में पक कर जानकी बज्र हो गयी है। जोर जुल्म के खिलाफ वह प्रतिरोध की एक नजीर है। किसी निर्बल और असहाय के समर्थन में अपनी सेना लेकर खड़ी होती तो दबंग उससे थर्रा उठते हैं। वर्ष 2005 में उसका नाम नोबल पुरस्कार के लिए नामित हुआ। पुरस्कार तो नहीं मिला लेकिन उसकी सेवा और सहयोग की रफ्तार बढ़ गयी।
    भटहट ब्लाक का ताजपिपरा गांव 55 साल की जानकी की वजह से सुर्खियों में है। महज 10 साल की उम्र में अपने से काफी बड़े इसी गांव के रामदुलारे यादव के साथ उसकी डोली उठी। पिया के घर आयी तो छोटी उम्र के सभी बड़े सपने बिखर गये। घर के अंदर उत्पीड़न बढ़ गया। लोक लाज के डर से वह सब कुछ सहती रही। पर एक दिन जब डी.एम. की गाड़ी से उसके पति का एक्सीडेंट हो गया तो चण्डी बन गयी। तबके जिलाधिकारी को इलाज का खर्च उठाना पड़ा और पति को नौकरी भी देनी पड़ी। जिलाधिकारी के तबादले के बाद पति की नौकरी छूट गयी। तब जानकी को लगा कि पढ़ा लिखा न होने की वजह से वह छली गयी।
    उसने पढ़ने का संकल्प लिया। वर्ष 1998 में वह महिला समाख्या से जुड़कर पढ़ना लिखना सीख गयी। उसके ज्ञान,हुनर और तेवर को देखकर पंचायत कोर टीम और महासंघ में शामिल किया गया। यहीं से उसकी आंखों में गांव और समाज के विकास का सपना चमक उठा। कई गांवों की महिलाओं को जुटाकर बुन्देलखण्ड के गुलाबी गैंग की तरह उसने भी अपनी सेना खड़ी कर ली। जब भी किसी असहाय पर मुसीबत आयी तो लाठियों से लैस होकर वह मौके पर पहुंच गयी। उसके जज्बे की लकीर तुलसीदेऊर, जमुनिया, खैराबाद, पिपराइच, भटहट, रामपुर आदि गांवों में खिंची है। तुलसीदेउर में 15 साल से एक दबंग ने रास्ता रोक दिया था। जानकी की सेना पहंुची तो रास्ता खाली हो गया। जो दबंग अपने कमजोर पट्टीदारों का उत्पीड़न कर रहा था उसे जेल भी भिजवा दिया। दूसरे गांवों में भी ऐसा ही हुआ। खैराबाद का बी.ए. पास लड़का शादी का झांसा देकर एक अनपढ़ गरीब लड़की से खेलता रहा। यह बात पता चली तो उसने भरे समाज में लड़के को शादी के लिए मजबूर कर दिया।

    गांव गांव में उसने साक्षरता की ज्योति जला दी। विधवा विवाह कराया। सामूहिक खेती की अलख जगायी। नरेगा में नाइंसाफी की मुखालिफत कर रही है। सेना के अवकाशप्राप्त नायक नागर चौरसिया कहते हैं कि इतना तेवर तो हमने जवानों में भी नहीं देखा। जानकी के पति के साथ बड़ा बेटा राजनाथ भी विकलांग है। बेटी मीरा को ब्याह दिया और दूसरा बेटा बृजनाथ अपनी पत्नी और छोटे भाई शेषनाथ के साथ लुधियाना में रहता है। जानकी इस समय नारी अदालत कानून कोर टीम की सदस्य है। किसी के साथ कोई अन्याय न करे, यही उसका संदेश है।

10 जन॰ 2010

वो तो गली-गली सबको पढ़ाने लगी


आनन्द राय, गोरखपुर
 यह कहानी अशिक्षा के अंधकार में शोषण का शिकार हो रही महिलाओं के लिए प्रेरणा है। यह कहानी अनुसूचित जाति में जन्मी 35 साल की मीना की है जो कभी अनपढ़ थी लेकिन अब अपने गांव जवार में मेम बन गयी है। लिखने-पढ़ने की उसे ऐसी लगन लगी कि अब वो गली गली सबको पढ़ाने लगी है। उसने सौ से अधिक महिलाओं को लिखना-पढ़ना सिखा दिया है। वह महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही है।
  गहिरा गांव के श्रीकांत की बेटी मीना 22 साल पहले पिपराइच क्षेत्र के मोहनपुर गांव में राजदेव भारती के साथ ब्याही गयी। तब वह निरक्षर थी। ससुराल में बहुत साल तक चौके चूल्हे की तपिश सहती रही। मौके बे मौके पति से पिटती रही। पर एक दिन उसके मन में भी पढ़ने की कसक हुई। वर्ष 2000 में महिला समाख्या ने मोहनपुर में साक्षरता कैम्प लगाया। पति के रोकने के बावजूद प्रतिरोध करके वह इस कैम्प में गयी। उसकी लगन देखकर महिला समाख्या की समन्वयक शगुफ्ता ने जिले पर लगे कैम्प में उसे विशेष प्रशिक्षण दिया। अल्प अवधि में उसका ज्ञान कक्षा आठ के बराबर हो गया। इसके बाद उसे अनुदेशक बना दिया गया।
  मीना ने मोहनपुर, मलपुर, गोपालपुर, पिपरा बसंत आदि गांवों में कैम्प लगाकर अनुसूचित जाति की अनपढ़ महिलाओं को साक्षर बनाना शुरू कर दिया। आस पास के गांव की महिलाओं के बीच अब मीना मेम की इज्जत बढ़ गयी है। लोग उसे आदर देते हैं। मीना पंचायतों में भी जाती है। नारी अदालत में औरत के ऊपर हुये अत्याचार पर केन्दि्रत होकर जब वह उनके पतियों को कानून का पाठ पढ़ाती है तो लोग दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। उसकी पहल और फैसलों ने कई घरों को टूटने और बिखरने से बचा लिया है। उसकी दिलेरी की लोग दाद देते हैं। गांव गांव में शराब के विरोध में उसने अभियान चला दिया है। वह सुशिक्षित समाज के अगुवा के रूप में स्थापित हो रही है। उसे मानव अधिकार और कानून की धाराओं का भी ज्ञान हो गया है। मीना की सक्रियता देखकर और भी कई महिलाओं को पढने पढ़ाने का मन हो रहा है। गोपालपुर की आरती का कहना है कि मीना दीदी ने हमे लिखना पढ़ना सिखाकर हमारी जिंदगी बदल दी है।

9 जन॰ 2010

श्रम की पूंजी से लिखेंगे खुशहाली की नयी इबारत

कभी कभी हम सपने देखते हैं. सभी सपने सच नहीं होते. मेरी यह रपट भी एक सपना है. दुआ करिए कि यह सच हो जाए. दुआ करिए कि खाली हाथों को काम मिले और पूर्वांचल की विशाल जनसेना खेतों से खुशहाली लाये. हमने यही सपना देखा है कि गोरखपुर और बस्ती मंडल में एक सदी   में बढ़ गए ३६९ फीसदी लोग अपने श्रम की पूंजी से खुशहाली की नयी इबारत लिखेंगे.



आनन्द राय,

गोरखपुर, 02 जनवरी। वर्ष 2010 उम्मीदों के पांव पर चलकर आया है। सरकार की नयी योजनाओं से ख्वाबों को पर लगने शुरू हो गये हैं। सब कुछ ठीक रहा तो इस साल पूर्वाचल की अपार जन संपदा का सही नियोजन होगा। यही जनसेना खुशहाली लायेगी। फिर खेत सोना उगलेंगे। श्रम की पूंजी से काज संवरेगा। तकनीक की ताकत से तस्वीर बदलेगी। कम्प्यूटर और संचार प्रौद्योगिकी का प्रभाव दिखेगा।
        गोरखपुर-बस्ती मण्डल की आबादी 1.71 करोड़ है। 1901 में यहां 47.84 लाख लोग थे जिसके सापेक्ष एक सदी में 369 फीसदी लोग बढ़ गये हैं। सरकार की नयी योजनाएं इसी जन संपदा की बदौलत पूर्वाचल की तकदीर और तस्वीर बदल देंगी। रोजगार के लिए गांव-घर छोड़कर परदेस जाने वाले लौटेंगे। इस साल उन्हें अपने गांव में निश्चित रूप से रोजगार मिलेगा। खेत- खलिहान से उनकी ऊर्जा जुड़ेगी। रोजगार गारण्टी शिकायत निवारण तंत्र नियमावली 2009 लागू होने का उन्हें लाभ मिलेगा।
         साल में सौ दिन रोजगार देने वाली योजना मनरेगा के सही संचलन के लिए सोशल आडिट का प्रबंध हुआ है। अगर ठीक से निगरानी हुई तो दोनों मण्डलों के 70 हजार जाब कार्ड धारक परिवारों का सटीक नियोजन होगा। सहकारी ऋण देकर स्वरोजगार, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, गन्ने का उचित मूल्य, विधवा, वृद्धा और विकलांग पेंशन, ईट भट्ठों का उद्योगों में पंजीकरण, विज्ञान प्रौद्योगिकी द्वारा विज्ञान वर्ग के बेरोजगारों का उत्प्रेरण एवं प्रशिक्षण, फार्मास्युटिकल एवं मेडिकल, बायो टेक्नालाजी, कृषि एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी, कम्प्यूटर एवं संचार प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रानिक्स, आटो मोबाइल आदि क्षेत्रों में भी लोगों का समायोजन होगा।
    परिवार नियोजन को लेकर सरकार तो हमेशा सजग रही है लेकिन अब लोग सजग होने लगे हैं। इसके बावजूद यहां जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार इतनी तेज है कि पिछली जनगणना में 25 फीसदी की वृद्धि हुई थी। एक साल बाद फिर जनगणना होनी है। अनुमान है कि इस अंचल में 20 से 25 फीसदी की वृद्धि फिर होगी। लेकिन अब इस मानव समूह के नियोजन के लिए निजी क्षेत्र के लोग भी सक्रिय हुये हैं। यद्यपि पूर्वाचल में कल कारखाने पहले की अपेक्षा घटे हैं लेकिन स्पेशल कम्पोनेंट प्लान, परम्परागत कारोबार का विकास और छोटे छोटे उद्योगों ने उम्मीद बढ़ा दी है। अभी व्यवसायिक खेती का भी चलन बढ़ा है। जैट्रोफा, मक्के की खेती, फूलों की खेती ने बहुत से लोगों को माडल बना दिया है। गांव से लेकर शहर तक लोग रोजगार की दिशा में सजग होने लगे हैं और सरकारी नौकरियों की आस छोड़कर अपने हाथों को खुद काम देने लगे हैं। यही प्रवृत्ति सदियों से शोषित और उपेक्षित पूर्वाचल के लिए उम्मीद की किरण बन गयी है।

8 जन॰ 2010

अफसरों और राजनेताओं से भी हैं यूनुस के रिश्ते


आनन्द राय,

गोरखपुर, 07 जनवरी। अण्डरव‌र्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम के दायें हाथ और आईएसआई एजेण्ट युनूस अंसारी के नेपाल में जाली नोटों के साथ पकड़े जाने के बाद सुरक्षा एजेंसियां भारत में उसके रिश्तों को खंगाल रही हैं। नेपाल पुलिस से मिली जानकारी के आधार पर इन एजेंसियों ने भारत के प्रमुख शहरों में युनूस के नेटवर्क और सम्बंधों की बारीक छानबीन शुरू कर दी है। कुछ राजनेता, पुलिस अफसर और नामचीन अपराधियों से युनूस के बेहतर सम्बंध होने की बात उभर कर सामने आयी है।
       उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में जाली नोटों की खेप के साथ पकड़े गये तस्करों ने जब इस धंधे का सिरा नेपाल के पूर्व मंत्री सलीम मियां अंसारी के पुत्र युनूस अंसारी से जोड़ा तभी सी.बी.आई. के कान खड़े हो गये। सी.बी.आई. ने नेपाल पुलिस को इसकी सूचना दी। उसी सूचना के जरिये नेपाल पुलिस के हाथ युनूस के गिरेबां तक पहुंचे। युनूस की गिरफ्तारी की खबर मिलते ही सी.बी.आई.,आई.बी., यू.पी. की एटीएस और एस.आई.ओ. की अलग अलग टीम काठमाण्डू पहुंच गयी। इन सुरक्षा एजेंसियों ने नेपाल में युनूस के नेटवर्क का अध्ययन किया। चूंकि उसे दस दिन की न्यायिक हिरासत में लिया गया है इसलिए युनूस से सीधी मुलाकात नहीं हो पायी।
     सूत्रों का कहना है कि नेपाल पुलिस ने भारतीय अफसरों का पूरा सहयोग किया और यहां से दिये सवालों पर युनूस का इंट्रोगेशन भी किया। युनूस ने भारत में राजनेताओं, अफसरों और अपराधियों से अपने बेहतर रिश्ते की बात कबूल की। बिहार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड, पश्रि्वम बंगाल, गुजरात, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में उसका संजाल फैला है। इसके अलावा दूसरे अन्य प्रांतों में भी उसकी टीम काम करती है। बताते हैं कि लगभग डेढ़ सौ नामचीन लोगों के नाम युनूस ने बताये हैं। इस कड़ी में उत्तर प्रदेश के भारत-नेपाल सीमा के जनपदों में एक दशक में तैनात कई पुलिस अफसरों और थानेदारों से भी उसने अपने सम्बंध गिनाये हैं।

   एक प्रमुख सुरक्षा एजेंसी ने युनूस अंसारी के बाबत नेपाल पुलिस से मिली जानकारी की रिपोर्ट 26 पेज में बनायी है। इस रिपोर्ट में उसके जरिये मिले सभी संदिग्ध नामों को शामिल किया गया है। हालांकि अभी इस बात का पुख्ता प्रमाण नहीं है कि युनूस ने जिनके नाम गिनाये सभी उसके काले कारोबार में शामिल रहे हैं। बताते हैं कि जिन लोगों से युनूस के रिश्तों की बात सामने आयी है उन पर कड़ी निगाह लग गयी है। ऐसे लोगों की गतिविधियों, बैंक खातों और कारोबार पर भी नजर रखी जा रही है।
 नोटिस लेने की बात यह भी है कि 29 नवम्बर 2005 को जब गाजीपुर जिले के विधायक कृष्णानंद राय की हत्या कर दी गयी तब दैनिक जागरण ने यह खबर प्रकाशित की थी कि 'नेपाली मंत्री के संरक्षण में घूम रहे कृष्णानन्द के हत्यारे'। कृष्णानंद के हत्यारों को सलीम मियां और उनके बेटे युनूस ने ही पनाह दी। बताते हैं कि बिहार से लेकर इलाहाबाद तक फैले इस प्रमुख राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ के आर्थिक तंत्र की डोर युनूस अंसारी के ही हाथ में रही है। इसी तरह मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी युनूस का अच्छा प्रभाव है। उम्मीद जतायी जा रही है कि एक पखवारे के अंदर भारत में जाली नोटों के काम में जुटे कुछ प्रमुख लोगों के चेहरों से नकाब उतरेगा।

 

 

6 जन॰ 2010

बहुत गहरी हैं यूनुस के काले कारोबार की जड़ें

आनंद राय, गोरखपुर


बीस लाख के भारतीय जाली नोटों के साथ नेपाल में पकड़े गए पूर्व मंत्री सलीम मियां अंसारी के बेटे यूनुस अंसारी के काले कारोबार की जड़ें बहुत गहरी हैं। वह न केवल नकली नोटों के कारोबार का मुख्य सूत्रधार है, बल्कि उसने अंडरव‌र्ल्ड के लोगों को अत्याधुनिक असलहे भी उपलब्ध कराए हैं। खूबसूरत लड़कियों के जरिए वह जाली नोटों की डिलीवरी कराता रहा है।


     नेपाल के पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह के शासन में मंत्री रहे सलीम मियां अंसारी का बेटा यूनुस अंसारी यूं तो पहले से ही बदनाम है। लेकिन 6 अक्टूबर, 2009 को जब नेपालगंज में डान माजिद मनिहार मारा गया, तब वह सुर्खियों में आ गया। इसके बाद मध्य प्रदेश में पकड़े गए जाली नोटों के एक कारोबारी ने यूनुस अंसारी का नाम लिया। युनूस ही नहीं बदनामी का धब्बा तो उसके पिता पर भी लग चुका है। अंडरव‌र्ल्ड सरगना और कभी नेपाल में नकली नाम से नागरिकता पा चुके बबलू श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक अधूरे ख्वाब में सलीम अंसारी का जिक्र किया है। यूनुस व उसके पिता पर भारतीय अपराधियों को पनाह देने का आरोप है। सीबीआई का वांछित पांच लाख का इनामी और मुख्तार अंसारी का रिश्तेदार अताउर्रहमान उर्फ सिकंदर नेपाल में इस परिवार के संरक्षण में रहता है।

   यूनुस अंसारी का संबंध नेपाल के पूर्व युवराज पारस से बहुत ही बेहतर है। इन्हीं संबंधों के चलते जाली नोटों के कारोबार का आरोप पारस पर भी लगा। यहां तक कि ज्ञानेंद्र के शासन में जब शाही सेना ने मुठभेड़ के बाद माओवादियों से अत्याधुनिक असलहे बरामद किए तब इन हथियारों को भारतीय अपराधियों को बेचने में यूनुस ने मुख्य भूमिका निभाई थी। नेपालगंज, कृष्णानगर और वीरगंज को उसने इन हथियारों की बिक्री का केन्द्र बना दिया था। पिछले साल सिद्धार्थनगर जिले के डुमरियागंज कस्बे में एक बैंक से जाली नोटों के कारोबार का खुलासा हुआ। गाजीपुर जिले का मूल निवासी बैंक कर्मी सुधाकर त्रिपाठी पकड़ा गया। तबसे खुफिया तंत्र मुख्य सूत्र तलाश करने में जुटा है। आईएसआई और दाऊद इब्राहिम ने भारतीय अर्थ व्यवस्था को कमजोर करने के लिए जाली नोटों का कारोबार दो दशक पहले ही शुरू कर दिया था।

  खुफिया एजेंसी के मुताबिक इस कारोबार के तार नेपाल स्थित पाक दूतावास से जुड़े हैं। नेपाल सरकार ने इसी शिकायत पर पाक दूतावास के अधिकारी परवेज चीमा को हटाने का अनुरोध किया था। 1993 से 1997 तक कुछ चिन्हित लोगों ने मिलकर सौ रुपये की नोट का कारोबार किया। लेकिन, बाद के दिनों में पांच सौ और एक हजार रुपये के नोटों का कारोबार शुरू हो गया। चूंकि नेपाल की सत्ता में सलीम मियां का दखल बढ़ा इसलिए एफएम चैनल खोलकर और मीडिया में पैर जमाकर यूनुस आईएसआई के भारत विरोधी अभियान में सक्रिय हो गया। खुफिया एजेंसियों ने भारत सरकार को जो रपट भेजी है, उसके मुताबिक नेपाल में जिकरउल्लाह, लाल मुहम्मद, जमील आलम, अल्ताफ हुसैन, इलियास मुन्ना जैसे लोग यूनुस अंसारी के संरक्षण में जाली नोटों के कारोबार में जुटे हैं।

1 जन॰ 2010

सिर उठा के जीने से खुशहाल हुई जिंदगी

आनन्द राय, गोरखपुर


भंवर में फंसी जिंदगी की कश्ती और समाज की चुभती निगाहों का सामना करते हुये एच आई वी संक्रमित हरेन्द्र उर्फ मिण्टू के चेहरे की चमक बढ़ गयी है। उसे न तो जमाने की निगाहों की परवाह है और न ही टूटे हुये पतवारों का गम। अंधेरी रात के दिल में दिये जलाकर वह अपने सफर पर है। सिर उठा कर जीने से उसकी जिंदगी खुशहाल हो गयी है।
बांसगांव विकास खंड के बघराई गाँव के 28 साल के हरेन्द्र की पूरी जिंदगी झंझावातों से उलझी रही है। उसका बड़ा भाई शेषनाथ लगभग डेढ़ दशक पहले मुम्बई से लापता हो गया। उन दिनों भाई को खोजते हुये हरेन्द्र मुम्बई की गलियों में भटकने लगा। भाई तो नहीं मिला लेकिन किसी कोने में एड्स के कीटाणु उसके साथ लग गये। गांव लौटा तो शेषनाथ की पत्नी की पहाड़ सी जिंदगी चुभने लगी। लोगों के कहने पर उसने अपनी भाभी सरोजा से वर्ष 2003 में शादी कर ली। कुछ साल पहले उसकी पत्नी सरोजा बीमार पड़ी। पता चला कि एड्स है। वह इलाज के दरम्यान चल बसी। हरेन्द्र भी बीमार रहने लगा। उसने वाराणसी में जांच करवायी तो उसे भी एड्स रोग का पता चला।
 हरेन्द्र ने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपना इलाज शुरू किया। वह अपने गांव में एक गुमटी में पान बेचने लगा। क्योंकि उसे अपने एक बेटे, मां-बाप और एक बेरोजगार बड़े भाई और उनकी पत्नी की परवरिश भी करनी थी। सबकी जिम्मेदारी एक बीमार आदमी के कंधे पर, मगर उसने अपना कंधा मजबूत कर लिया। दैनिक जागरण ने 30 जून 2009 को एड्स के क्रूर पंजों से लड़ रहा जिंदगी की जंग शीर्षक से उसकी कथा प्रकाशित की। हरेन्द्र ने न अपना नाम छुपाया और न ही कोई संकोच किया। वह सच के साथ खड़ा हुआ तो महज छह माह के भीतर उसके सहयोग के लिए लोगों की कतार लग गयी।

   एड्स रोगियों के लिए काम कर रहे एमएसएस सेवा के चेयरमैन जटाशंकर ने हरेन्द्र को ब्राण्ड एम्बेसडर बना दिया। गांव में स्कूल के सामने उसकी किताब की दुकान खुलवायी। लीडरशिप ट्रेनिंग दी। कैपसिटी बिल्डिंग और कौंसिलिंग की। फिर कई लोगों ने उसकी मदद की। हरेन्द्र स्वावलम्बी तो पहले से था पर दूसरों के सहयोग से उसका आत्मबल और बढ़ गया। वह अपने जैसों को प्रेरित करने लगा। हताशा और निराशा के भंवर में डूबे लोगों को जीवन की राह दिखाने लगा। एड्स रोगियों को हरेन्द्र जब अपनी जिंदगी की दुश्र्वारियां बताता है तब असीम पीड़ा और दर्द से सबकी आंखें नम हो जाती हैं। वह अपना उदाहरण देकर सबका हौसला बढ़ाता है। वह सबके जीवन के फलक से निराशा के बादलों को छांटने की मुहिम में जुटा है। नियमित अपना चेकअप करवाता। योग करता और लोगों को जागरूक करने का कोई अवसर चूकता नहीं है। साहिर लुधियानवी की लिखी यह नज्म - डरता है जमाने की निगाहों से भला क्यों, इंसाफ तेरे साथ है इल्जाम उठा ले, गुनगुनाते हुये वह हर पल खुश रहता है।

रोडवेज : चुनौतियों से भरा रहा साल का सफर

आनन्द राय, गोरखपुर


रोडवेज आम आदमी के सफर का साथी है। मंजिल का साधन है। पर नींव इतनी कमजोर हो चुकी है कि उसके भरोसे मंजिल आसान नहीं है। गुजरे एक साल के खास मौके इस बात के गवाह हैं। इस बात की गवाह कई सुनसान सड़के हैं जहां कभी भूले से भी कोई सरकारी बस नहीं गयी। इस बात के गवाह वे यात्री हैं जो सरकारी बसों का इंतजार करते रह गये मगर उनकी जगह पहुंची डग्गामार बसों ने उनकी जेब हल्की कर दी।
  उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम इस साल आम आदमी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरा। रही सही कसर आखिरी समय में निगम ने खुद पूरी कर दी। किराया इतना अधिक कर दिया कि यात्री अपनी जेब का वजन देखकर सफर तय करने लगे। पर रोजमर्रा की राह पर चलने वालों के लिए मुश्किल बढ़ गयी। बेड़े में बाल्वो और पवन और सर्वजन हिताय बसों के शामिल होने के बाद भी रोडवेज का चेहरा लोगों को लुभा नहीं पाया। खटारा बसों और आये दिन हड़ताल-चक्का जाम की चेतावनियों से यात्रियों की सांस टंगी रही।
   साल के प्रारंभिक सफर को देखें तो सबसे पहले इलाहाबाद कुंभ मेले की चुनौती सामने थी। रोडवेज प्रबंधन ने मेले के श्रद्धालु यात्रियों के लिए 263 बसें और 18 वैकल्पिक केन्द्र बनवाये लेकिन रोडवेज के प्रबंधन पर आस्था भारी पड़ी। लोग ठूंस ठूंस कर भरे गये, फिर भी बहुत से लोग जा नहीं पाये। यात्रियों की मुश्किल गोरखपुर-नौतनवां रेल लाइन आमान परिवर्तन के चलते भी बढ़ी। सोनौली जाने वाले हजारों यात्रियों के लिए डेढ़ सौ से अधिक बस चलाने का दावा किया गया लेकिन जब तक रेल सफर नहीं शुरू हुआ तब तक दिक्कत बनी रही। छठे वेतनमान को लेकर सभी संगठनों ने बार बार चेतावनी और चुनौती दी। संविदा परिचालकों ने पूरे साल हंगामा खड़ा किया। कभी जाम तो कभी इल्जाम उनके रवैये में शामिल रहा।

  अफसरों को ये कर्मी बंधक बनाने से भी नहीं चूके। हालात के माफिक समझौता होता रहा। नेताओं की चांदी रही लेकिन आखिरी कतार में खड़ा संविदाकर्मी पूरे साल छला गया। कुछ नयी बसें आयी लेकिन उनसे ज्यादा बसें जर्जर हो गयीं। ए.सी. बसों का सपना सपना ही रहा। दूसरे डिपो की बाल्वो बस ने इन सभी कमियों को पूरा किया। आखिरी दिनों में गोरखपुर क्षेत्र के पड़रौना में एक डिपो शुरू हुआ और क्षेत्र में कुल सात डिपो हो गये। पर न ही रीजनल वर्कशाप का नया केन्द्र बन पाया और न ही पहले की प्रस्तावित कई योजनाएं अस्तित्व में आयीं। अलबत्त्ता वर्कशापों से चोरी का सिलसिला तेज हो गया। इसी साल इलेक्ट्रानिक टिकट मशीन का चलन शुरू हुआ। प्रारंभ में दिक्कत बनी रही लेकिन धीरे धीरे स्थिति सामान्य हो गयी।
  साल समाप्त होते होते अनिल श्रीवास्तव सेवा प्रबंधक होकर आये। उन्होंने बसों के रख रखाव और साफ सफाई पर ध्यान केन्दि्रत किया। पर जहां गड़बड़ी जड़ तक पहुंची हो वहां इतनी जल्दी सुधार की अपेक्षा कैसे संभव है। सरकार ने डग्गामार बसों पर नियंत्रण के लिए हर दिन घण्टी बजायी लेकिन प्रबंधन के बंद कानों पर कोई असर नहीं हुआ। डग्गामार वाहनों से एक रकम तय हो गयी और वे रोडवेज की दहलीज पर चढ़कर सवारी भरते रहे। निगम ने रक्षा बंधन, होली और दीपावली जैसे त्यौहारों पर ओवरटाइम करने पर आकर्षक पुरस्कार देने की घोषणा की लेकिन लालच पर तीज त्यौहार भारी पड़ गये। चेतावनी के बावजूद रोडवेज कर्मियों ने छुट्टी मनायी। परिवहन मंत्री राम अचल राजभर ने बार बार रोडवेज को सर्वजन का बनाने का दावा किया और पहल भी की लेकिन अफसरों की सुस्ती के चलते कोई गति नहीं आयी।
  परिवहन मंत्री की व्यक्तिगत पहल पर कुछ उपेक्षित इलाकों में बस तो चली लेकिन रकहट जैसे कई क्षेत्र हैं जो सरकारी बस से वंचित रहे। डिपो परिसरों में गंदगी का साम्राच्य बना रहा। क्षेत्रीय प्रबंधक रामवृक्ष पूरे साल संवाद बनाने से कतराये। कुछ सहायक क्षेत्रीय प्रबंधकों से उनकी अनबन भी जग जाहिर हुई। रोडवेज में फर्जी टिकट के धंधे को लेकर हमेशा एक वर्ग मुखर रहा लेकिन कुछ संगठित लोगसब पर भारी पड़े। क्षेत्रीय मुख्यालय के सहायक क्षेत्रीय प्रबंधक रामदेव की मानें तो इस साल गोरखपुर क्षेत्र की पिछले साल से ज्यादा आमदनी रही और यात्रियों को सर्वाधिक सुविधाएं मिली।

काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

आनन्द राय, गोरखपुर


एक शादी समारोह में पुराने ख्याल के एक शख्स अपने घर की लड़कियों पर खफा हो गये। वजह सिर्फ इतनी थी कि लड़कियां भाई की शादी में डांस फ्लोर पर झूम कर नाचने लगीं। उनके साथ रिश्तेदार और बाराती भी नाच रहे थे। उन्होंने इसे खानदान के मान-प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर बारात छोड़ दी। तब मिर्जा गालिब प्रासंगिक हो गये जिनके सामने भी परम्परा और आधुनिकता को लेकर भारी दुविधा थी। तभी तो उन्होंने यह लिखा- नफरत का गुमां गुजरें हैं मैं रश्क से गुजरा, क्यों कर कहूं लो नाम न उसका मेरे आगे। ईमां मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र, काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।
 मिर्जा गालिब के लिए एक तरफ इस्लाम की परम्परा थी तो दूसरी तरफ भारत आ रहे अंग्रेजों का रहन-सहन और संस्कृति। इसी बेचैनी में उनकी कई रचनाएं वजूद में आयीं। परदे की अपनी रवायत के समानांतर अंग्रेजों का खुलापन उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। अब वही दुविधा आधुनिकता और परम्परा की जंग लड़ रहे मध्यम वर्ग के सामने है। मैरेज हाउस में जो हंगामा हुआ वह इसी दुविधा का नतीजा है। गांव से आये जिस सज्जन ने मर्यादा के सवाल पर बारात छोड़ दी, वे बार बार यही बात दुहरा रहे थे कि लफंगों के साथ घर की लड़कियां नाच रहीं हैं..। उनका गुस्सा देखने लायक था मगर उनके ही परिवार के लोग उनसे सहमत नहीं थे। उनके एक खास रिश्तेदार ने कहा- दुनियां कहां से कहां जा रही है और ये खानदान की मर्यादा लेकर ढो रहे हैं। पर यह कशमकश अभी खत्म नहीं हुआ है।

   नयी उम्र के लोगों में भी यह बात घर किये है कि जो बाप दादों की परम्परा है, उसका पालन किया जाय। आवासीय काम्प्लेक्स में आधुनिक सुख सुविधा के साथ रह रहे 35 साल के कौशल शाही कहते हैं कि हम अपनी परंपरा नहीं छोड़ सकते। हमारे पूर्वजों ने जो परम्परा डाली है उससे अलग होकर अपनी जड़ों से कट जायेंगे। पर एक निजी कम्पनी में इंजीनियर अनुभव सिन्हा का कहना है कि अगर परम्परा की जड़ों में जकड़े रहे तो जिंदगी से कट जायेंगे। डा. ए.के. गर्ग, एस.बी. पाण्डेय एडवोकेट, अनिल पाण्डेय, कांट्रेक्टर ए.एल. मौर्य समेत कई लोग परम्परा के पक्षधर हैं तो एमबीए अखिलेश तिवारी, विशाल सिंह, विनय सिंह, राममोहन का कहना है कि अब रुढि़यों में बंधकर जाहिलों की तरह जीने से अच्छा है कि खुलकर जियें।

   युवा समाज शास्त्री डाक्टर मानवेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं कि यह तो नयी और पुरानी पीढी के बीच का अंतरद्वंद है. इसी कशमकश के बीच से कोई नया रास्ता निकलेगा. यही रास्ता सामंजस्य भी स्थापित करेगा. जो हो लेकिन बहुत से लोग बदलाव के इस मौसम में दोराहे पर आकर खड़े हो गए हैं. बहुत से लोग तो इस बदलाव से हतप्रभ भी हैं.
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