13 जुल॰ 2008

अब तो दीवार गिरावो यारों

मन भरा हुआ है। यह कहने कि बात नही है। पर कैसे न कहूं। इस शहर में जुम्मन और अलगू को अलग करने का कारोबार चलता है। इसी कारोबार से सियासत कि फसल लहलहाती है। मगर जो बात मैं कह रहा हूँ वह सियासत की खेती करने वालों को चुभने वाली है। एक बारात से लौट रहे पत्रकार मित्रों की गाडी ट्रक से टकराई तो तीन लोग मौके पर ही साँस छोड़ दिए। पर चार लोगों की साँसे अटकी थी। गुरुवार की रात को एक बजे। लगन शादी का मौसम होने से लोग गुजर रहे थे। पर तमाशबीन की तरह। विवेक पाण्डेय के शरीर से बहता हुआ लहू लोगों के होश उड़ा रहा था। किसी को दया नही आयी। चार घायल साथी अपने अपने भगवन को याद कर रहे थे। खुदा ने उनकी सुन ली। तबरेज और मक़सूद। इन बन्दों ने इंसानियत की लाज रख ली। आजमगढ़ जिले के पिपराही से दोहरीघाट पी एच सी तक सबको अपनी वैन में लाद कर ले आए। प्रेस क्लब के मंत्री नवनीत त्रिपाठी को इस बीच एक घायल योगेश्वर ने फ़ोन कर दिया। नवनीत ने अपने सभी साथियों को जानकारी दी। फ़िर शफी आज़मी ने शहर के मशहूर चिकित्सक अजीज अहमद से बात की। अहमद नर्सिंग होम पर जाने माने चिकित्सकों का मजमा लग गया। अजीज साहब ने सबको भरोसा दिलाया। बेहतर से बेहतर इलाज के लिए उन्होंने पूरी तैयारी कर ली। इलाज शुरू हुआ तो लोगों ने अजीज साहब की सराहना की। वाकई वे ऐसे सक्रिय थे जैसे बिल्कुल उनका कोई सगा घायल हुआ है। पूर्व मंत्री पंडित हरिशंकर तिवारी मौके पर आए। भाजपा विधायक राधा मोहन दास अग्रवाल भी थे। अग्रवाल का केशरिया दुपट्टा उनके गले में हमेशा की तरह लटक रहा था। पर यहाँ हिंदू मुसलमान की सियासत नही थी। अग्रवाल भी अजीज अहमद की सेवा और स्नेह के कायल हो गये थे। पंडित जी ने अजीज साहब से काफी देर तक बातें की और उनके प्रति अपना भावःकई बार प्रकट किया। अजीज साहब के अस्पताल में फ़िर तो तांता लग गया। मजहबी दीवार गिर गयी। दंगे फसाद और मजहबी तनाव से हमेशा गुजरने वाले शहर में हर कौम के लोग संवेदना प्रकट करने आ रहे थे। पत्रकारों का लहू मजहबी दरार के दाग को धो रहा था दो बात की तसल्ली हुई- पहली तो ये गोरखपुर के आवाम के दिलों में अखबार वालों की कदर है। और दूसरी ये की यहाँ के अखबारनवीस गणेश शंकर विद्यार्थी भले न बन पायें लेकिन शहर की छाती का जख्म अपने जख्मों से ठीक कर सकते हैं। सभी मित्रों के साथ दुःख की इस घड़ी में मैं भी साझीदार हूँ। प्रेस क्लब ने तबरेज, मक़सूद और अजीज साहब को सम्मानित करने का फ़ैसला किया है। मैं बहुत शुक्रगुजार हूँ। दोहरीघाट के प्रजापति राय, शिवादुलारे जी और कमलेश के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करूंगा जो मौके पर जाकर इलाज में सक्रिय हुए। रात में जुबली कालेज के शिवमूर्ति भाई ने भी तत्परता दिखायी। नवनीत के लिए भी- पूरी रात जागकर जब विवेक के लिए अपना खून दिया तो लगा की दोस्ती और रिश्ते ऐसे ही निभाए जाते हैं। इस घटना में छति तो बहुत हुई लेकिन एक संदेश गया है। तोगडिया और ठाकरे जैसों से कहना चाहूंगा- अब तो दीवार गिरावो यारों।

उजाले अपनी यादों के


उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,

न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए।

कोमल भाई और वेद भाई को श्रद्धांजली।

तुम कहाँ हो

कभी कभी हाथ से फिसलती हुई रेत की तरह सब कुछ लगता है। दिन महीने साल और फ़िर साल- दर-साल रिश्तों की उम्र। कंही बीच राह में डोर छूट गयी तो ........तो फ़िर नियति को कोसने के अलावा कुछ नही बचता। गुरूवार की मनहूस रात को कुछ ऐसा ही हुआ। बारात से लौट रहे पत्रकार मित्रों की सफारी एक ट्रक से टकरा गयी। मौके पर ही छायाकार वेद प्रकाश चौहान और पत्रकार कोमल यादव की साँस थम गयी। उनके चालक ने भी अपनी जान गँवा दी। पत्रकार विवेक पाण्डेय, टी पी शाही, मुकेश पाण्डेय और योगेश्वेर सिंहघायल हो गये। सबकी हालत नाजुक है। वेद और कोमल का जाना बहुत ही दुखदायी है। कच्ची गृहस्ती बीच राह में ही टूट गयी है। वेद गोरखपुर की मिडिया में एक दशक से अधिक समय से सक्रिय थे। राजघाट पर शुक्रवार की रात को उनके पिता ने जब फफकते हुए मुखाग्नि दी तो फ़िर कठोर शमशान भी रो पडा। उसी समय काशी में कोमल भी पञ्च तत्व में विलीन हो रहे थे। कोमल अभी जब गोरखपुर से अमर उजाला का प्रकाशन शुरू हुआ तो यहाँ आए थे। एक कार्यक्रम में उनसे मुलाकात हुई और फ़िर वे गाहे वगाहे मुझे फ़ोन करते थे। बेलौस बनारस की गंध उनके साथ हमेशा मौजूद रहती। कभी मजाक में भी बहुत गंभीर बात कह जाते और कभी मजाक में गंभीर से गंभीर बातों को हवा में उड़ा देते थे। कम समय में अपने इस अंदाज से वे लोगों के बीच पहचान बना लिए। अकेले रहते थे। कभी पूछा की बीवी को क्यों नही लाते हो- तो जवाब यही की घर की जिम्मेदारी है। यकीनन घर समाज और रिश्तों की जिम्मेदारी कोमल ने उठायी। काशी से लौटते समय दुर्घटना हुई। वे अपने अखबार के एक सहयोगी के बारात से ही लौट रहे थे। कोमल ने अपनी जान देकर हम सबसे कोई न कोई कीमत वसूल कर ली है। हर पल यही लग रहा है कुछ खो गया है। जीवन में कई कई लाशें देखी। अपने करीबी लोंगों की भी लेकिन इतनी बेचैनी पहले कभी नही हुई। वेद के न होने का अहसास तो ....... क्या कहूं। पहली बार राजीव केतन मेरे घर लेकर आए थे। तब वेद अखबार से जुड़े थे। फ़िर कोई मौका ऐसा नही की वेद मुझसे मिलने जुलने का सिलसिला आगे न बढाए हों। उनकी जिन्दादिली और दो टूक कह देने की आदत सबको पसंद थी। जब भी गोरखपुर प्रेस क्लब के चुनाव होते वेद मुझसे यह पूछने जरूर आते भइया क्या करना है। कौन किस खेमे है, कौन क्या कहानी कर रहा है, वे जरूर बताते। हमेशा यही कहते की प्रेस क्लब को ठीक से आपने खडा किया है। उसी प्रेस क्लब में श्रधांजलि देने के लिए मुझे बुलाया गया तो मेरी आवाज हलक में ही रह गयी। मैं रोक नही पाया। वेद के प्रति मेरे मन में बहुत ही स्नेह था। उसके रहते इस बात का अहसास नही था। सड़क पर दफ्तर जाते समय जब भी मुलाकात होती वेद के पास कोई नई सूचना जरूर होती। बहुत मुश्किल है आंखों से एक जलवे को पा लेना और होठों से खामोश हो जाना। वेद तो हर दिन आंखों से एक जलवे को कैद करते थे। उनकी आखिरी तस्वीर उन्हें श्रद्धा वश छापी गयी। खूबसूरत आसमान का दृश्य। पूरे आसमान को वेद ने अपनी आंखों में कैद कर लिया था। अब वेद के लिए आँखे प्यासी हैं। लेकिन प्यास का व्यापार करने वाले पानी का पता नही देते। वेद तुम कहा हो।

अभी किसी ने कहा है-



ये चमन यूँ ही रहेगा और हजारों जिन्दगी

अपनी अपनी बोलियाँ सब बोलकर उड़ जायेंगे।

12 जुल॰ 2008

फुर्सत नही मिलती


संजीव फुर्सत नही मिलती कि हुबली आ सकूं। मुझे देहरादून की बहुत याद आती है। बस आप जहाँ भी रहो खुश रहो। बस यही कहना चाहूँगा कि-

मंजिल उन्ही को मिलती है जिनके सपनो में जान होती है।

पंख से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है। मेल से तस्वीर मिली अच्छी लगी। उसे ही पोस्ट कर रहा हूँ।
..............................
Bookmark and Share