27 नव॰ 2008

वी पी सिंह ने डायलिसिस से उठकर लड़ी किसानों की लड़ाई


भारत के दसवें प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने ७७ साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन की ख़बर आयी तो चौंकने जैसी कोई बात नही थी। लंबे समय से मौत उनके निकट थी और वे पल पल उससे जूझ रहे थे। पूर्वांचल के इस इलाके से उनका ख़ास जुडाव था। वी पी सिंह से मेरी जान पहचान अखबार में आने के बाद हुई। पर मैंने कई बार उन्हें बेहद करीब से अनुभव किया। जब उन्होंने राजीव गांधी के ख़िलाफ़ अपनी आवाज बुलंद की और बोफोर्स का मुद्दा खडा किया तब उनके साथ देवरिया के राजमंगल पाण्डेय, घोसी के राजकुमार राय और लालगंज के सांसद रामधन सबसे आगे थे। पूर्वांचल से वी पी सिंह का जुडाव था और यहाँ के लोग उन्हें अपने कंधे पर उठाकर देश का नेता बना रहे थे। इलाहबाद उप चुनाव जीतने के बाद वी पी सिंह और देवीलाल समेत कई नेता दौरे पर निकले थे। गोरखपुर से होकर जब वी पी सिंह दोहरीघाट पहुंचे तो उनके साथ दिल्ली के पत्रकारों की टीम थी। वे दोहरीघाट पम्प कैनाल के डाक बंगले पर रुके। मेरे कुछ जानने वाले आदरणीय लोग उनकी प्रेस कांफ्रेंस में जा रहे थे। मैंने भी इच्छा जतायी लेकिन ले नही गए। दोहरीघाट में जब उनकी सभा शुरू हुई तो मैं बतौर श्रोता वहाँ गया। दिल्ली से इंडियन एक्सप्रेस के फोटो जर्नलिस्ट आर के दयाल, हिन्दुस्तान टाइम्स के सौम्य के घोस, इंडियन एक्सप्रेस की अंजली समेत कई खबरनवीस थे। उन लोगों को रास्तों की जानकारी के लिए किसी स्थानीय आदमी की जरूरत थी। आर के दयाल को बाहर का अखबारी समझ कर मैं उनके पास गया। कुछ पूछना चाहा उसके पहले ही उन्होंने मेरा परिचय पूछा। फ़िर साथ चलने के लिए न्योता दिया। मैं अमिला, बोझी होते हुए आजमगढ़ तक उन लोगों के साथ गया। वहाँ डाक बंगले में वी पी सिंह से वे लोग मिले। मैं भी साथ साथ था। उस समय तक जनसत्ता के विवेक सक्सेना भी आ गए थे। गरून् होटल में खाना खाते समय सबने यह तय कर दिया था की अगले पीएम वीपी सिंह ही हैं। बात आयी गयी हो गयी। वी पी सिंह प्रधान मंत्री बने और हट भी गए। लेकिन ऐसा लगा अपने कुछ निर्णयों से पूर्वांचल की जनता के दिलों पर राज लगे। तो कुछ निर्णयों ने उनके विरोध में बड़ी लकीरें भी खींच दी। पर कभी उन्होंने इस अंचल से अपना लगाव कम नही किया। जब भी संघर्ष की जरूरत पडी वे इस इलाके में हाजिर थे। इंदिरा गांधी की ह्त्या के बाद राजीव गांधी के भी करीबी रहे वी पी सिंह की सत्ता में खूब धमक थी लेकिन बोफोर्स मसाले को लेकर जब वे जनता के बीच आए तो जननायक बन गए। मैंने उनकी यात्रा में दिग्गजों को देखा था। तब लोगों को यह नारा लगाते सुना- राजा नही फ़कीर है, भारत की तकदीर है। दसवें प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने शपथ ली उअर अपने एक निर्णय से सत्ता से हाथ धो बैठे। देश का एक समूह उनके विरोध में खडा था। जब उन्होंने मंडल कमीशन लागू किया तब आम जनमानस के बीच उनकी छवि बदल गयी। तब उनके पक्ष और प्रतिपक्ष में लोग मुखर थे। जो उन्हें भारत की तकदीर कहते नही थक रहे थे वही उनके ख़िलाफ़ नारे गढ़ने में आगे हो गए। तब यह नारा गूंजा- राजा नही रंक है, भारत का कलंक है। पर वे इससे विचलित नही हुए। उन्होंने रामविलास पासवान और शरद यादव जैसे नेताओं को एक पहचान देकर अपनी सोच को अमलीजामा पहना दिया। मैं उन दिनों वी पी सिंह के ख़िलाफ़ था। तब अपने क्षेत्र के नेता और वी पी सिंह के धुर विरोधी कल्पनाथ राय का कार्यकर्ता था। मैंने अपने साथी अवध बिहारी राय, विपिन बिहारी श्रीवास्तव और कमलेश राय के साथ आन्दोलन पर आमादा था। एक सुबह हम चारो को गिरफ्तार कर लिया गया। आजमगढ़ जेल में काफी दिनों तक हम लोग बंद रहे। फ़िर कुछ समय बाद यह सब कुछ यादों की तरह रह गया।
वी पी सिंह से सन्दर्भ और संपर्क का दूसरा चरण गोरखपुर दैनिक जागरण में आने के बाद शुरू हुआ। कई बार प्रेस कांफ्रेंस में उनसे मुलाक़ात हुई लेकिन कभी कोई ख़ास बात नही हुई। बाद में एक संपर्क के जरिये वे मुझे पहचानने लगे थे। २००० में मैं प्रेस क्लब का अध्यक्ष चुना गया । एक बार वे किसानो के आन्दोलन में आए तो कल्ब कोषाध्यक्ष राजीव ओझा और संयुक्त मंत्री राजशेखर ने उनका प्रेस से मिलिए कार्यक्रम आयोजित कराने का सुझाव दिया। वे क्लब में आए तो बहुत खुश हुए। उनके साथ दिल्ली में झोपड़ पत्ती आन्दोलन से जुड़े महेंद्र भी थे। कई बार फोन पर वी पी सिंह से बात होती और उनसे सवाल जवाब चलता। मैंने उन्हें बताया की मैंने उनके विरोध में जेल यात्रा भी की है। वी पी सिंह हंसने लगे थे। उन्होंने कहाविरोध और समर्थन एक प्रक्रिया है और यह कभी स्थायी नही होते। उनके साहित्य और संवेदना से मुझे करीब होने का कई बार अवसर मिला। प्रेस क्लब के वार्षिक समारोह में वही हमारे मुख्य अतिथि थे। उन्होंने पत्रकार राजेश सिंह बसर की किताब एक ही चेहरा का विमोचन भी किया। उन्होंने मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया और यह जरूर कहते की गोरखपुर के पत्रकार बहुत जागरूक हैं। वे डायलिसिस से उठकर कई बार किसानों के आन्दोलन में भी आए। जब भी जनता के ख़िलाफ़ निजाम की नजर टेढी हुई तो बगावती तेवर लिए वे यहाँ जरूर आते रहे। जिस शाम प्रेस क्लब के कार्यक्रम में शामिल होकर वे दिल्ली गए बीमार पड़ गए। उन्होंने हमसे फोन पर बातचीत की और हमारे कार्यक्रम की सराहना की। यह भी कहा की आप साहित्यकारों का एक कार्यक्रम कराओ और मुझे भी बुलाओ। मैंने कई बार इस पर विचार किया लेकिन सम्भव नही हो सका। हमारे सम्पादक शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी ने संवाद का आयोजन किया तो मैंने वी पी सिंह को बताया की हमारे यहाँ देश भर के साहित्यकार जुट रहे हैं। आप भी आइये। पर उस समय वे बिस्तर से उठने की हालत में नही थे। राजबब्बर ने उनके बारे में मुझे बताया की उनके जैसा है जो मुद्दों को लेकर हमेशा कुछ कराने के लिए तैयार रहता है। जो कुछ हो हमने अपने बीच से एक संवेदनशील आदमी खो दिया है। उनकी कमी हमेशा बनी रहेगी।

16 नव॰ 2008

इनकी व्यथा के लिए मुझे शब्द चाहिए


चाहता हूँ इनके लिए कुछ लिखूं पर मेरे पास शब्द नही हैं। दैनिक जागरण के ११ नवम्बर के अंक में इनसे सम्बंधित मेरी एक रिपोर्ट छपी है लेकिन उससे ख़ुद मेरे मन को तसल्ली नही है। ये लोग कुदरत के सताए हुए हैं। एक परिवार की दो पीढियों को ऐसी सजा मिली किआंखों से खून के आंसू आ जाते हैं। गोरखपुर जिले के पिपराइच विकास खंड के एकला गाँव का रामलाल बेहद गरीब है। बीस साल पहले शारदा नाम की महिला से उसकी शादी हुई। इस समय उसके पाँच बच्चे हैं। इनमे एक बेटी है जो आँख से अंधी है और चार बेटे जिनकी शक्ल देखकर लगता है कि वे आदिमानव युग के हैं। सब मंदबुद्धि के हैं। ख़ुद कपडा नही पहन सकते। घर में उधम मचाते हैं। गरीबी अलग से मुश्किल खडी की है। बेटी की आँख की रोशनी लाने के लिए रामलाल अपनी १६ डिसमिल जमीन बेच चुका है। दिन भर की मेहनत मजूरी से घर की रोजी चलती है। जिस दिन रामलाल और शारदा की काम कराने की ताकत ख़त्म हो जायेगी उस दिन इस कुनबे की रोजी रोटी कैसे चलेगी। हमने ऐसे बहुत से लोगों की तकलीफ और दुःख दर्द को अपनी ख़बर के लिए करीब से देखा है लेकिन यह तो ऐसा दर्द है जो मुझे कई दिनों से परेशान किए है। हो सकता है कोई शक्ति उन्हें जीवन की राह दिखाए लेकिन अभी तो कंही से कोई उम्मीद नजर नही आ रही है। इस परिवार के लिए जब तलक भोर का सूरज नजर नही आता मुझे अंधेरों से बगावत करने के लिए ताकत चाहिए। मैं इस बगावत के लिए शब्द तलाश रहा हूँ। शायद मिल जाएँ और उनकी व्यथा को अक्षर अक्षर जोड़ सकूं।
..............................
Bookmark and Share