30 सित॰ 2009

राहुल के पूर्वजों की याद दिलायेगा श्रीभवन



आनन्द राय, गोरखपुर



मलांव का लगभग 115 साल पुराना श्रीभवन घुमक्कड़ महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के पूर्वजों की याद दिलायेगा। श्रीभवन को हेरिटेज बनाने की पहल शुरू हो गयी है। इस हवेली के मालिक और रिश्ते में राहुल के प्रपौत्र लगने वाले शरदेंदु कुमार पाण्डेय ने भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय से पत्राचार शुरू कर दिया है। उन्होंने इसके लिए भागदौड़ भी की है। यदि उनके इस प्रयास को मूर्त रूप नहीं मिला तो भी इस ऐतिहासिक धरोहर को वे यादगार बनायेंगे। मलांव राहुल के पूर्वजों का गांव है। इस गांव के इतिहास में यश और पौरुष की कीर्ति पताका है तो कुछ त्रासद कथा भी है।

16वीं सदी में अपनी पत्नी के अपमान से क्षुब्ध डोमिनगढ़ के राजा ने इस गांव में कत्लेआम कर खून की नदी बहा दी। मलांव के एक एक बच्चे, बड़े-बूढ़े और स्ति्रयों को भी मौत के घाट उतार दिया। कोई नहीं बचा। एक गर्भवती बहू अगर अपने पीहर न गयी होती तो मलांव का सूरज डूब गया होता। उनके ही वंश से फिर पीढि़यों का सिलसिला चल पड़ा और आज यह ऐतिहासिक गांव अपनी पूरी ताकत से दुनिया के साथ कदमताल कर रहा है। मलांव में राप्ती तट पर 1895 में बना बना श्रीभवन उन सभी स्मृतियों का प्रतीक है। इस महल का कैम्पस 30 एकड़ में फैला है। इस महल को हेरिटेज बनाने की प्रक्रिया में जुटे शरदेंदु पाण्डेय बताते हैं-मलांव के पाण्डेय विद्वता के साथ ही अपने भुजबल के लिए पहचाने जाते हैं।

इतिहास के पन्नों में इस गांव की गौरवगाथाएं दर्ज हैं लेकिन जो रोमांचित करने वाली बात है उसका जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी पुस्तक कनैला की कथा और मेरी जीवन यात्रा में किया है। दस्तावेज के मुताबिक 16वीं सदी में डोमिनगढ़ के डोमकटार राजा की पत्नी तीर्थ के लिए वाराणसी जा रही थीं। रानी को किसी ने बताया था कि मलांव के कुएं का पानी पीने से बंध्या पुत्रवती हो जाती हैं। वीर संतान पैदा करने की अभिलाषा से रानी ने मलांव में अपना कारवां रोककर वहां के कुएं से एक घड़ा पानी मंगवाया। पाण्डेय लोगों ने रानी के आदमियों को पानी भरने से रोक दिया। तीर्थ से लौटकर रानी ने राजा को अपने अपमान की कथा सुनायी। अनंत चतुर्दशी को मलांव के पाण्डेय लोग व्रत रखते और हथियार साफ कर उन्हें सजाते थे। उसी दिन राजा ने निहत्थे लोगों पर धावा बोल दिया। मलांव के एक एक बच्चे मारे गये। महिलाओं को भी आक्रमणकारियों ने नहीं बख्शा। जिस कुएं से रानी को पानी नहीं लेने दिया गया उसको ऊपर तक लाशों से पाट दिया गया। यहां कोई नहीं बचा था।

राहुल सांकृत्यायन ने कनैला की कथा में लिखा है- महाभारत में कौरव पाण्डव कुल का एक तरह बिल्कुल संहार हो गया था, लेकिन अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में परीक्षित के रूप में एक अंकुर बच रहा था जिसने पाण्डव वंश को नष्ट होने से बचाया। ठीक यही बात मलांव में हुई। राजेन्द्र दत्त पाण्डेय की पत्नी नरमेध के समय अपने पीहर प्रतापगढ़ में गयी इसलिए उनके प्राण बच गये। उनके गर्भ में पले अहिरुद्र पाण्डेय मलांव के पुन: वंश संस्थापक बने। लगभग सत्तर वर्षीय शरदेंदु कुमार पाण्डेय अहिरुद पाण्डेय की 18वीं पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। वे बताते हैं कि 25 वर्ष की आयु में अहिरुद्र पाण्डेय ने ननिहाल से लौटकर फिर से मलांव को बसाया। अहिरुद्र पाण्डेय के वंशज बाद में बहुत से स्थानों पर बिखर गये। इच्छा पाण्डेय कनैला गांव गये जिनकी पीढ़ी में राहुल सांकृत्यायन पैदा हुये। बस्ती से लेकर बिहार तक और उधर मध्य प्रदेश और अन्य कई स्थानों पर भी यहां के पाण्डेय कालांतर में गये। बातचीत में शरदेंदु पाण्डेय कहते हैं कि आज भी मलांव की यश कीर्ति पूरी दुनिया में है और अकेले राहुल सांकृत्यायन ने इस गांव को अमर कर दिया है। श्रीभवन के हेरिटेज बनाने के पीछे उनकी मंशा गांव की गौरवगाथा को जीवंत रूप देना है।

25 सित॰ 2009

स्त्रियों के प्रति परमानंद की उदारता

आनन्द राय , गोरखपुर



प्रोफेसर परमानंद बहुत ही सहज हैंउन पर दैनिक जागरण ने एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया और महानगर में खास तरह की हलचल देखी गयीउन दिनों जब मैं विश्वविद्यालय बीट पर रिपोर्टिंग करता था तब वे वहाँ अपने आख़िरी दिनों में थेबहुत ही सादगी के साथ। मैं उनसे गाहे बगाहे बातचीत करताअक्सर तब जब कोई प्रतिक्रिया लेनी होतीबाद के दिनों में उन्हें व्यास और भारत भारती जैसे सम्मान मिले तो उनकी ख्याति भी खूब बढ़ी। जब दैनिक जागरण ने उन पर विमर्श आयोजित किया तो उनके प्रिय शिष्य और युवा आलोचक अनिल राय ने बहुत ही सारगर्भित तरीके से स्थगित हो चुके परमानंद को एक नयी राह दिखाईअनिल राय की यह विनम्रता थी और गुरू के प्रति आदर भाव पर इस आधार वक्तव्य पर सभी केंद्रित हो गएसबने कमोवेश वही बात कही

हिन्दी विभाग के अध्यक्ष सुरेन्द्र दुबे ने साफ़ किया -परमानंद जी अपनी आलोचना में मुक्तिबोध के लिए जो ऊँचाई रखते हैं वही शब्द किसी उभरती हुई कवयित्री के लिए भीयह सोच उनके स्त्री प्रेम को दर्शाता हैपरमानंद ने अपनी जो कवितायें पढी उसके केन्द्र में भी स्त्री थीउन्होंने स्वीकार किया वे इस आकर्षण से मुक्त नही हैंमैंने उनका यह आकर्षण देखा हैप्रेस क्लब में परमानंद जी बहुत पहले सीमा शफक नाम की एक खूबसूरत कवयित्री को लेकर आएउन्होंने मुझसे उनका परिचय कराया। वे बहुत भली महिला हैं पर परमानंद जी ने जिस तरह उनके साहित्य की प्रशंसा की उससे मेरी जिज्ञासा बढ़ गयीबाद में माल्विका और अनिता अग्रवाल में भी उन्होंने उसी तरह की दिलचस्पी दिखाईइससे पहले अनामिका और महुआ की तारीफ़ करते वे नही थकते थेमेरे कहने का मतलब यह बिल्कुल नही ये कवयित्रियाँ अच्छी रचना नही kartee । मैं कहना यह चाहता हूँ की इनके दौर में बहुत से अच्छा लिखने वाले हैं जिन पर परमानंद की नजर नही गयीएक दौर में अशो वाजपेयी जैसे मठाधीश के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने वाले परमानंद को अचानक क्या हो गयाअनिल राय ने जब उनके स्थगित होने की बात कही तो मुझे सा लगा यही हकीकत हैपरमानंद ने नामवर के ख़िलाफ़ भी अपने स्वर मुखर किए लेकिन तब जब उन्हें नामवर अपनी राह में खटकते हुए नजर आएजो शख्स कभी अपने प्रतिरोध की ताकत से पहचाना गया उसे क्या हो गया
 
मुझे लगता है दैनिक जागरण के शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी और संजय मिश्रा ने विमर्श का आयोजन करके परमानंद जी को एक नयी ताकत दीमुझे याद है परमानन्द kaa स्त्री आकर्षण। २००६ में दैनिक जागरण का संवाद आयोजित हुआभोजपुरी फ़िल्म अभिनेत्री रानी मिश्रा आयी थी और एक फोल्क डांस के लिए तैयार हो गयी पर कुछ लोग नही चाहते थे यह डांस होपरमानंद जी मुझसे कहने लगे यह तो ख़राब बात हैएक कलाकार का आदर नही हो रहा हैचूँकि वह अभिनेत्री मेरे बुलाने पर आयी थी इसलिए परमानंद जी की भावनाओं से अवगत कराने के लिए मैंने उनसे मिलवा दियाघंटे भर से अधिक समय तक वे रानी मिश्रा के साथ रहेउन्होंने रानी मिश्रा पर एक रपट भी लिखीवह रपट कहाँ छपी यह तो नही पता लेकिन ख़ुद उन्होंने ही मुझसे कहा था - रानी की प्रतिभा का मैं कायल हूँ और मैंने एक ख़ास रपट तैयार की हैजो हो मुझे लगता है परमानंद जी देह से मन की ओर जाने वाले कवि हैंचूँकि हिन्दी का आदमी उदार होता है इसलिए वह अपनी उदारता उनके साथ जरूर दिखाता जिनके करीब जाना चाहता हैपरमानंद को स्त्रियाँ आकर्षित करती हैं इसलिए वे इनके प्रति अपनी उदारता भी दिखाते हैंउनकी आलोचना में अगर कहीं से लोगों को यह बात खटकती है तो मैं सिर्फ़ यही कहूंगा की यह तो उनकी उदारता है

आमी- देखी हालत तो हालात पे रोना आया

गोड़सैरा गांव की व्यथा ; जहरीली हो गयी गाँव की गंगा
आनन्द राय, गोरखपुर

उनवल स्टेट से सटे गोड़सैरा गांव है। यह गांव आमी नदी के प्रदूषण से सिसक रहा है। कभी गुलजार था यह गांव पर अब बदबू और मच्छरों ने यहां की जिंदगी पर पहरा बिठा दिया है। यह गांव तीन पीढि़यों के टूटते और ढहते जाने की त्रासदी का गवाह बन गया है। इस गांव की हालत देखने पर बस रोना आता है। औद्योगिक इकाइयों के अपजल से ऐतिहासिक आमी नदी प्रदूषित हुई तो तट पर बसे सैकड़ों गांवों की सूरत बिगड़ गयी। उन्हीं गांवों में गोड़सैरा भी एक है। गोरखपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर यह गांव अपने स्वर्णिम अतीत और भयावह वर्तमान के बीच सैण्डबिच बना हुआ है। इस गांव के उत्साही युवा राजेश सिंह, व्यास सिंह और वरिष्ठ उदय प्रताप सिंह प्रतिदिन गांव को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए ताना-बाना बुनते हैं। आमी मुक्ति की लड़ाई में पूरी तरह समर्पित रहते हैं और जब कभी गांव के लोगों की व्यथा बढ़ जाती तो उस जख्म पर मरहम लगाने की भी कोशिश करते हैं। 1800 लोगों की आबादी वाले गोड़सैरा गंाव में कुल चार टोले हैं। गोड़सैरा के अलावा डीह टोला, जगन्नाथपुर और रक्शाबाबू। नदी से महज दस कदम ऊपर यह गांव है। गांव नदी के प्रदूषण से तबाह हो गया है। गांव में मुख्य रूप से आलू और गेहूं की खेती होती है। शेष फसलों को कभी बाढ़ तो कभी नीलगाय लील जाती हैं। प्रदूषित जल से गेहूं की फसलों पर भी मार पड़ती है। लेबर खेत में पानी भी नहीं चलाना चाहते। हवा जब जब चलती है तो इस गांव में बदबू का झोंका तेज हो जाता है। हैण्डपम्पों का पानी भी बदबू देता है। इसीलिए लोग गांव में रहना नहीं चाहते। पन्द्रह फीसदी लोगों ने बाहर अपना डेरा बना लिया है। गांव के अत्यंत बुजुर्ग 90 साल के कल्पनाथ सिंह उनवल जूनियर हाई स्कूल में हेडमास्टर थे। उन्हें पुराने दिन याद हैं। जब नदी की अमृत धारा से सुख के भाप उड़ते थे और बादल बनकर बरसते थे तो पूरे गांव का चेहरा खुशियों से खिल उठता था। अब तो दुखों के बादल छाते हैं, मंड़राते हैं और बरस जाते हैं। भटवली इण्टर कालेज के अवकाश प्राप्त शिक्षक 70 साल के रुदल सिंह उनकी बात की तस्दीक करते हैं। लोको कारखाना में काम कर चुके 70 साल के हरिवंश मौर्या, उन्हीं के वय के रामगुलाम सिंह और किसान शिवशंकर सिंह भी पुराने दिनों को याद करते हैं तो पुरानी यादें टीस बनकर उभर जाती हैं। टीस तो इस गांव के हिस्से में पता नहीं कबसे है। पर जब 1998 की बाढ़ आयी तो दुख और बढ़ा गयी। बहुतों का घर ध्वस्त हो गया। फिर गरीबी बढ़ी और उन घरों की दीवार उठ नहीं पायी। गिनती के लोगों ने अपना नया आशियाना बना लिया है लेकिन वह भी सिर्फ सिर ढंकने लायक। बाकी भगवान सिंह, कैलाश सिंह, बृजबली सिंह, जगदीश सिंह सरीखे लोग हैं जिनके ध्वस्त हुये मकान आज भी बदहाली की गवाही दे रहे हैं। बीमारी तो इस गांव के लिए साझीदार हो गयी है। 8 से 10 साल की उम्र के आनन्द सिंह, रितिक सिंह, शुभम और विक्की को धूल मिट्टी में खेलते हुये भी बचपन का अहसास नहीं है। उन्हें अपने मां-बाप की दिक्कतों का भी भान है। आमी की बदबू से पीड़ा भी है और दूषित पेयजल को लेकर गुस्सा भी है। वाकई गांव की पीड़ा अथाह है। यह न तो व्यवस्था को समझ में आ सकती है और न ही सियासत को।

अजातशत्रु वाली अपनी स्थापित छवि को तोड़ें परमानंद-अनिल


अशोक चौधरी , गोरखपुर

भोजपुरी और हिन्दी के साहित्यकार अरुणेश नीरन ने कहा है कि कवि परमानंद जीवन रस का आचमन होठों से नहीं हाथों से करते हैं, इसलिए वे आवेग नहीं संयम के कवि हैं। उनकी कवितायें उद्वेलित नहीं करती, विवेक को झकझोरती हैं। वे समय का प्रवाह तोड़ते हैं इसलिए वे हमेशा पुनर्नवा बने रहते हैं।बुधवार को गोरखपुर के शिवाय होटल के सभागार में दैनिक जागरण द्वारा आयोजित साहित्य से संवाद कार्यक्रम को बतौर मुख्य वक्ता सम्बोधित कर रहे थे। इस कार्यक्रम में भारत -भारती और व्यास सम्मान से पुरस्कृत कवि व आलोचक परमानंद श्रीवास्तव ने एकल काव्य पाठ किया। इसके पश्चात उनके रचनाकर्म पर विस्तृत विचार विमर्श किया गया। इसके पूर्व प्रदीप सुविज्ञ द्वारा निर्मित एक वृत्तचित्र गोधूलि के कवि परमानंद का भी प्रदर्शन हुआ। डा.नीरन ने कहा कि परमानंद ने जीवन भर अपनी तलाश की है,उनकी तलाश अभी खत्म नहीं हुई है। उनका जीवन गणना करने वाला नहीं बहने वाला है। बहने वाला जीवन समय को वर्तमान से जोड़ देता है। इसलिए परमानंद हमेशा अपने समय की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए दिखते हैं। डा.नीरन ने अपने वक्तव्य में उनके गीतों की प्रशंसा की। इसके पूर्व डा.शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी ने प्रो.परमानंद और अन्य अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि जागरणसमूह हमेशा साहित्य और संस्कृति के विकास और संवर्धन के लिए समर्पित रहा है। इसी उद्देश्य से साहित्य से संवाद की यह श्रृंखला शुरू की गयी है। विचार विमर्श की शुरूआत में अपना लिखित आधार वक्तव्य रखते हुए विवि के शिक्षक डा. अनिल राय ने कहा कि प्रो.परमानंद से अपेक्षा है कि अब वे सर्वप्रिय व अजातशत्रु वाली अपनी स्थापित छवि को तोड़ें। अभी भी उनका सर्वोत्तम आना बाकी है। जिसका सबको इंतजार है। कार्यक्रम के विशिष्ट वक्ता प्रो.अनंत मिश्र ने कहा कि परमानंद की कविता और आलोचना की प्रमुख चिंता यही है कि प्रेम और अपनापन कैसे बचाया जाय। यह चिंता शाश्र्वत है वेदों से लेकर परमानंद तक समान है। प्रो.चित्तरंजन मिश्र ने प्रो.परमानंद को साहित्य का होलटाइमर बताया। उनका रचनाकर्म समूचे परिदृश्य और समय के साथ साक्षात्कार करता है। कवि अष्टभुजा शुक्ल ने संस्कृत साहित्यकार राजशेखर का हवाला देते हुए कहा कि किसी भी आलोचक की न्यूनतम अर्हता कवि या कविमना की होनी चाहिए। परमानंद एक कविमना आलोचक हैं तो आलोचना में एक आलोचकमना कवि हैं। वे घोषित आलोचक और अघोषित कवि हैं। आलोचक कपिलदेव ने कहा कि परमानंद ने आलोचना में अपनी श्रेणी नहीं तय की। कभी आलोचना के नाम पर फतवा नहीं दिया। जहां यह उनकी सीमा है यही उनकी अपनी ईमानदारी भी है। डा.जनार्दन ने कहा कि परमानंद की विशेषता उनकी गतिशीलता है। उनके आलोचनाकर्म को साहित्य की रूढि़यों के खांचे में फिट करना उनकी गतिशीलता को बाधित करना है। मेरी समझ से यह ठीक नहीं है। डा.सुरेन्द्र दूबे ने कहा कि परमानंद जी मूलत: कवि हैं इसीलिए कविमना आलोचक है लेकिन अब उन्हें चाहिए कि वे अपना सर्वोत्तम सामने लायें। वरिष्ठ पत्रकार सुजीत पाण्डेय ने कहा कि परमानंद की कविता भावनाओं के समंदर में गहरे तक ले जाती है। उन्होंने परमानन्द के रचना संसार पर विमर्श के दैनिक जागरण के आयोजन की सराहना करते हुए कहा कि साहित्य की खबरें अखबारों में यदाकदा देखने को मिल जाती हैं लेकिन दैनिक जागरण एवं मेरे प्रिय डा. शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी ने ऐसे आयोजन के जरिए साहित्य, संस्कृति और कला पर मनन चिन्तन करने और रचनाओं के करीब आने का शानदार मौका उपलब्ध कराया है। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। हमें विश्वास है कि वे ऐसे आयोजनों की निरंतरता बनाए रखेंगे। इस कार्य में मैं हर संभव सहयोग देता रहूंगा। कार्यक्रम का संचालन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार संजय मिश्र ने कहा कि प्रो.परमानंद गोरखपुर के गौरव हैं। उनकी कविता आम और खास सबको संप्रेषित होती है। अंत में वरिष्ठ पत्रकार और शायर राजेश सिंह बसर ने कार्यक्रम में शामिल सभी लोगों का आभार व्यक्त किया। चन्द्रकांति रमावती देवी आर्य महिला महाविद्यालय की छात्राओं ने सरस्वती वंदना एवं स्वागत गीत प्रस्तुत किया।

24 सित॰ 2009

किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं।


बहुत पहले दिखी देह

तस्वीरों में।

फिर दिखा मन

अक्षरों में।

आँखों को

तृप्त करने वाली मुस्कान

और दिल को

सुकून देने वाले विचार।

देह से मन तक मैंने बनायी

सपनों की एक दुनिया।

जूझता रहा अपने ही सवालों से

खोजता रहा

अपने ही सवालों का जवाब।

पहले अपने से फिर तस्वीरों से

फ़िर अक्षरों से

पता नहीं उत्तर की चाह में

मैं कब तक भटकता रहूँ।

पर इतना जरूर कहूंगा

किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं।







21 सित॰ 2009

प्रो. परमानन्द के काव्य जीवन पर विशेष चर्चा कल



गोरखपुर : महानगर एवं इस अंचल की साहित्यिक गतिविधियों को आवाज देने के उद्देश्य से दैनिक जागरण 23 सितम्बर से साहित्य से संवाद श्रृंखला की शुरुआत करने जा रहा है। इसके तहत गोरखपुर की धरती पर जन्मे, पले-बढ़े और इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाकर साहित्य साधना में लीन व्यास और भारत भारती सम्मान से सम्मानित हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक एवं कवि प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव पर विशेष आयोजन किया जा रहा है। 23 सितम्बर को अपराह्न दो बजे से होटल शिवाय के सभागार में प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव की साहित्यिक उपलब्धियों और हिन्दी साहित्य में उनके योगदान पर देश के जाने माने साहित्यकार, आलोचक और पत्रकार चर्चा करेंगे। चर्चा शुरू होने से पूर्व प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव अपनी पांच चुनिन्दा कविताओं का पाठ करेंगे। फिर कविता, आलोचना, कहानी और निबन्ध आदि में उनके योगदान पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। चर्चा के उपरान्त उन्हें सम्मानित किया जाएगा। उक्त जानकारी देते हुये डा. शैलेन्द्र मणि त्रिपाठी ने बताया कि इस आयोजन में देश के कई जाने माने साहित्यकारों और पत्रकारों ने भाग लेने की स्वीकृति दे दी है। उन्होंने साहित्य-प्रेमियों, प्रबुद्धजनों और पत्रकारों को इस समारोह में आमंत्रित किया है।

लाडो को जी.टी.वी. ने दिया मुकाम



आनन्द राय, गोरखपुर

जिंदगी को कब कहां कौन मुकाम मिल जाये कहा नहीं जा सकता। गोरखपुर के लिटिल फ्लावर स्कूल में कक्षा 2 में पढ़ने वाली लाडो उर्फ गरिमा जैन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। घर से स्कूल तक सीमित रहने वाली लाडो अचानक जी.टी.वी. के लिटिल चैम्प सारेगामा प्रोग्राम तक पहंुच गयी और उसे पूरी दुनिया ने देखा। लाडो को यह मुकाम कार्यक्रम की एंकर अफशां का हमशक्ल होने की वजह से मिला। शनिवार की रात जब सारेगामा पा लिटिल चैम्प का प्रसारण हो रहा था तब समापन के समय का दृश्य देखकर लोग चौंक गये। अफशां की जगह उसकी हमशक्ल लाडो को खड़ी कर दिया गया। फिर मुख्य मेहमान बप्पी लाहिरी से लेकर अलका याज्ञनिक और अभिजीत तक संशय में पड़ गये। अभिजीत दा लाडो को देखकर विस्मय से स्टेज पर गिर पड़े। बाद में इस रहस्य का खुलासा दोनों की आवाज ट्राई करने के बाद हुआ। यह सबके लिए कौतूहल का विषय था। कार्यक्रम के दर्शकों को यह बात भले न पता रही हो लेकिन लिटिल फ्लावर स्कूल के बच्चे लाडो की इस उपलब्धि से वाकिफ थे। स्कूल के प्रधानाचार्य फादर सी.बी.जोसेफ ने प्रसारण से पहले लाडो के कार्यक्रम का न केवल अपने विद्यालय में प्रचार प्रसार कराया बल्कि छमाही परीक्षा के दौरान लाडो को मुम्बई जाने की छूट दी। पेशे से सी.ए. लाडो के पिता राजेश जैन बताते हैं कि यह फादर का असीम सहयोग था कि लाडो इस मुकाम तक पहंुची। श्री जैन के मुताबिक इस उपलब्धि का सिरा भी लिटिल फ्लावर स्कूल से ही जुड़ा है। पिछले कई माह से वहां के बच्चे और शिक्षक यह कहते थे कि लाडो की शक्ल अफशां से मिलती है। इस बात को बाद में मुहल्ले के लोगों ने भी कहना शुरू किया। राजेश जैन और उनकी पत्‍‌नी निधि जैन ने जी.टी.वी. से सम्पर्क किया। क्रियेटिव टीम को लोगों की इस भावना और तथ्य से अवगत कराया गया। इसके बाद जी.टी.वी. ने लाडो को आमंत्रित किया और उसकी प्रस्तुति की। जीटीवी क्रियेटिव टीम की अनुराधा अग्रवाल का आश्र्वासन है कि लाडो को आगे भी मौका दिया जायेगा। लाडो को नृत्य और चित्रकारी में विशेष रूचि है। यद्यपि अभी उसे अपनी इस कला को प्रदर्शित करने का अवसर नहीं मिला। लाडो से जब पूछा गया कि बप्पी दा और लिटिल चैम्प के लोगों से मिलकर उसे कैसा लगा तो उसने बताया कि मैं तो अफशां के घर भी गयी और उसके साथ काफी समय बिताया। हम लोगों ने साथ साथ गाना भी गाया। अफशां और धैर्य जोशी का आटोग्राफ लेकर आयी हूं और वहां के लोगों ने मुझे बेहद स्नेह और सहयोग दिया। टी.वी. पर जबसे मेरे कार्यक्रम का प्रसारण हुआ तबसे अब तक लगातार मुझे बधाई मिल रही है और इससे मुझे और मेरे भाई अंशुमान को बहुत खुशी महसूस हो रही है। वास्तव में कार्यक्रम प्रसारण के बाद से ही महानगर में जैन परिवार सुर्खियों में आ गया है और उन्हें बधाइयों का तांता लगा हुआ है।

20 सित॰ 2009

जमीन पर उतरो मेरे हुजूर


कभी ऊंचे आसमान से

जमीन पर उतरो मेरे हुजूर

कभी तो ख़ास होने का लिबास उतार दो

कभीतो तोड़ दो अपना गुरूर

जमीन और आसमान भले दूर दूर हों

पर उनके बीच बना है एक रिश्ता

भाप और बारिश का रिश्ता

ओस और दूब का रिश्ता

ख्यालों का रिश्ता, निगाहों का रिश्ता

सोचो तो .....................रिश्ता ही रिश्ता

ये कोई अनमोल वचन नहीं हैं

यह तो मन की कथा है

इसके साथ बधी हैं गहरी गाथाएँ

तुम्हारे मन पर इसकी छाप पड़ जाए

तो तुम भी हो सकते हो आसमान की तरह ऊँचे

और धरती की तरह सबको सह लेने वाले।

शायद तब सूरज का ताप भी तुम्ही बन जाओ

और चाँद का अहसास भी तुमसे ही हो ...

19 सित॰ 2009

पूत को पालने में ही लग गये पर



आनन्द राय, गोरखपुर

पूत को पालने में ही पर लग रहे हैं। जी हां यह सच है। अब छोटी छोटी उम्र के बच्चे सड़क पर बाइक से फर्राटा भर रहे हैं। इससे उनक अभिभावकों को डर और संशय नहीं है। बल्कि वे तो खुशहाल हैं कि उनके पूत ने कमाल दिखाना शुरू कर दिया है। महानगर की सड़कों पर छोटे छोटे बच्चों की कलाबाजी हर किसी ने देखी होगी। पर यह बहुत कम लोगों ने सोचा होगा कि जोश में होश खोकर बच्चे गलत राह चुन रहे हैं। कानून का उल्लंघन कर रहे हैं। और तो और अपने मासूमियत को भी अपने उत्साह के आगे गिरवी रख रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले 13 साल के एक बच्चे के पिता संभागीय परिवहन कार्यालय में लाइसेंस बनवाने पहंुचे। संयोग से उनके रिश्तेदार आरटीओ के परिचित थे। आरटीओ लक्ष्मीकांत मिश्र ने समझा कि वे अपना लाइसेंस बनवाने आये हैं इसलिए उनके लिए प्राथमिकता दिखायी। पर जब उन्होंने अपने बच्चे के लाइसेंस का प्रस्ताव रखा तब आरटीओ को भी हैरानी हुई। आरटीओ ने उन्हें समझाया कि उत्साह में अपने बच्चे को गलत राह क्यों दिखा रहे हैं। बहरहाल अभिभावक बुझे मन से लौट गये पर जाते जाते यह कहना नहीं भूले कि मेरा बेटा बहुत अच्छी गाड़ी चलाता है। यह किसी एक अभिभावक की दास्तां नहीं है। ऐसे लोगों की लम्बी फेहरिश्त है। ये अभिभावक इस बात से खुश होते हैं कि छोटी उम्र में उनके बच्चे वाहन चला रहे हैं। फर्राटा भर रहे हैं। बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने की दौड़ में वे उनके बचपन को असमय ही आगे दौड़ा रहे हैं। सेक्शन-3 मोटर व्हैकिल एक्ट 1988 के तहत बिना लाइसेंस वाहन चलाना अपराध है। इसके लिए 750 रुपये जुर्माने की रकम तय की गयी है। लाइसेंस बनवाने के लिए निर्धारित उम्र 18 साल है। इसके पहले 16 साल से अधिक उम्र के बच्चों का लाइसेंस बिना गीयर वाले वाहन के लिए बन सकता है। पर अब तो 11-12 साल की उम्र से ही बच्चों की रफ्तार शुरू है। कक्षा 6 में पढ़ने वाले शुभम, आठ में प्रतीक, सात में अंजेश, किशन और कक्षा आठ के उत्कर्ष को स्कूटी चलाने में बहुत मजा आता है। ये लोग हीरो होण्डा और फ्रीडम भी ट्राई कर चुके हैं। पूछने पर कहते हैं कि अगर सात साल की उम्र में कोई हाईस्कूल पास कर सकता है और उसे सर्टिफिकेट मिल सकती है तो गाड़ी चलाने के लिए हमारा लाइसेंस क्यों नहीं बन सकता है। समाजशास्त्री डा. मानवेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं कि यह सब टी.वी. और विज्ञापन का प्रभाव है। बचपन को बचाने के लिए न तो अभिभावकप्रयत्‍‌नशील है और न ही समाज। ऐसे में बच्चे की मनमानी स्वाभाविक है। संभागीय परिवहन अधिकारी लक्ष्मीकांत मिश्र इसे उभरते भारत का लक्षण बताते हैं। उनका कहना है कि इसके लिए जब पेरेण्ट्स ही क्रेजी हैं तो औरों का क्या कहना।

बेटियाँ- वर्तिका की कवितायें


बहुत पहले दिनेश कुशवाह की एक कविता पढी थी। लडकी की जवानी सोना होती है और लडकी की कहानी सोना होती है। यह लम्बी कविता मुझे बहुत अच्छी लगी थी।

अभी मीडिया स्कूल से वर्तिका नंदा की कवितायें मुझे मिली तो उन्हें और लोगों को पढाने का मेरा मन हो उठा। बेटियाँ किसी की हों उनके प्रति एक भाव जो यकीनन मन को छू ले-


वर्तिका की कविता


खुशामदीद पीएम की बेटी ने किताब लिखी है।

वो जो पिछली गली में रहती है

उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान

और वो जो रोज बस में मिलती है उसने

जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।

पिता हलवाई हैं और उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।
बेटियां गढ़ती ही हैं।

पथरीली पगडंडियां उन्हे भटकने कहां देंगीं!

पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा

तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।

बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां

अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं

और कब पी लेती हैं दर्द का जहर

खबर नहीं होती।

ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।

ये लड़कियां चाहे पीएम की हों या पूरनचंद हलवाई की

ये खिलती ही तब हैं जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है

ये शगुन है कि आने वाली है गुड न्यूज।



बहूरानी (2)

बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा

फिर देखीं अपनीपांव की बिवाइयां

फटी जुराब से ढकी हुई

एक बात तो मिलती थी

फिर भी उन दोनों

में -दोनों की आंखों के पोर गीले थे



पैदाइश (3)

फलसफा सिर्फ इतना ही है

किअसीम नफरतअसीम पीड़ा या असीम प्रेम से निकलती हैगोली, गाली या

फिरकविता



गजब है (4)

बात में दहशत

बे -बात में भी दहशत

कुछ हो शहर में, तो भीकुछ न हो तो भीचैन न दिन मेंन रैन में।

मौसम गुनगुनाए तो भीबरसाए तो भीशहनाई हो तो भीन हो तो भीहंसी आए मस्त तो भीबेहंसी में भीगजब ही है भाईन्यूजरूम ! (यह कविताएं तद्भव के जुलाई 2009 के अंक में प्रकाशित हुईं)

18 सित॰ 2009

पंक्षी -निदा फाजली

पंक्षी, बादल, फूल जल

अलग - अलग आकर

माटी का घर एकही

सारे रिश्तेदार ।

माटी में माटी मिले

खो के सभी निशाँ

किस में कितना कौन है

कैसे हो पहचान !

14 सित॰ 2009

अपनी ही पट्टी में उदास हो गयी हिन्दी


आनन्द राय, गोरखपुर

जिस पट्टी के लोगों ने हिन्दी को सिर पर बिठाकर हिन्दुस्तान के माथे की बिन्दी बनाया उसी पट्टी में हिन्दी उदास है। यहां के उभरते लोगों को हिन्दी से लगाव नहीं है। अंग्रेजी की चाह ने उन्हें त्रिशंकु बना दिया है। उनकी जमीन दरक रही है लेकिन वे हैं कि अंग्रेजी के लिए उड़ते जा रहे हैं। तभी तो गली गली में हर दिन कान्वेंट स्कूल खुल रहे हैं। अंग्रेजी स्पीकिंग कोर्स में बैठने की जगह नहीं मिल रही है। खाते पीते घरों में अब बच्चों से अंग्रेजी में बात करने का चलन बढ़ता जा रहा है। गोरखपुर-बस्ती मण्डल हिन्दी का गढ़ रहा है। बस्ती के अगौना में जन्मे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गोरखपुर के पकड़डीहा में पं. विद्यानिवास मिश्र, डुमरी के रामदरश मिश्र, मोती बी.ए., आचार्य रामचन्द्र तिवारी, रामदेव शुक्ल, विश्र्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रो. परमानन्द, विद्याधर विज्ञ, गोरख पाण्डेय, माधव मधुकर, डा. अरविन्द त्रिपाठी प्रो. गिरीश रस्तोगी, अरुणेश नीरन, देवेन्द्र आर्य, अष्टभुजा शुक्ला जैसे न जाने कितने नाम हैं जिन्होंने हिन्दी को पल पल जिया है। आगे बढ़ाया है। इनमें से कई काल कवलित हो गये हैं। पर उनकी कृतियां हिन्दी की ताकत हैं, हिन्दी को जिंदा किये हैं। गोरखपुर के बनवारपार में जन्में रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने भले उर्दू को समृद्ध किया लेकिन हिन्दी और उर्दू के बीच एक पुल बनाकर उन्होंने हिन्दी को भी नयी ऊंचाई दी। मंुशी प्रेमचंद ने गोरखपुर में लम्बे समय तक साहित्य साधना की और उनकी कई प्रसिद्ध कहानियां यहीं रची गयी। कबीरदास यहीं मगहर आये तो अपनी पंचमेल खिचड़ी को हिन्दी के लिए विरासत के रूप में सौंप दिया। नये कवियों में भी बहुत से नाम चले हैं। बहुतों में संभावना भी है पर अब वह स्वीकार्यता नहीं है जो पहले के लोगों में थी। वजह यह है कि हिन्दी के प्रति लोग उदास हैं। कोई रूचि नहीं है। सरकारी दफ्तरों में हिन्दी पखवाड़ा मनाये जाने के दौरान ही सारे कार्य अंग्रेजी में संपादित होते हैं। कितनी विडम्बना है कि बाढ़ के दिनों में रामदरश मिश्र अपने गांव से तैरकर स्कूल जाते थे। वे हिन्दी सीखते भर नहीं, उसे जीते थे और आज भी हिन्दी जी रहे हैं। पर अब उनके गांव के रास्तों पर संकरी पगडंडियां भी पिच में तब्दील हो गयी है। वहां से फर्राटा भरते युवा अंग्रेजीदा स्कूलों और विश्र्वविद्यालयों में पढ़ने जा रहे हैं लेकिन उनकी प्राथमिकता में कहीं भी हिन्दी नहीं है। हिन्दी से उन्हें तौहीन महसूस होती है। गोरखपुर-बस्ती मण्डल के गांवों-कस्बों में यह धारणा बनती जा रही है कि बिना अंग्रेजी पढ़े विकास नहीं होगा। स्थापित होने के लिए अंग्रेजी होना जरूरी है। इस भावना ने लोगों को हिन्दी से दूर करना शुरू कर दिया है। हिन्दी को जिन लोगों ने आगे किया वे लोग भी निराश दिखने लगे हैं। ऐसा भी नहीं है कि हिन्दी को लेकर सक्रियता नहीं है। हिन्दी के लिए समय समय पर आयोजन होते हैं। कुछ उत्सवधर्मी इन आयोजनों के लिए जी जान लगा देते हैं। लेकिन इसका कारगर नतीजा नहीं निकलता। इसलिए कि हिन्दी के प्रति अब लोग संशय पाल लिये हैं। इसके लिए बहुत हद तक वे लोग भी जिम्मेदार हैं जो हिन्दी की दुकान चला रहे हैं। हिन्दी को ओढ़ते-बिछाते हैं और उसी की खाते हैं लेकिन यह नहीं चाहते कि उनकी परिधि में दूसरे का दखल हो। कहीं न कहीं समरसता और सामूहिकता खो गयी है।

12 सित॰ 2009

अनोखा आंदोलन : आमी की शुद्धि के लिए सिर मुड़ाया


आनन्द राय , गोरखपुर :

औद्योगिक इकाइयों के अपजल से प्रदूषित हो चुकी ऐतिहासिक आमी नदी की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे आमी बचाओ मंच ने गुरुवार को अनोखा आंदोलन किया। मंच के अध्यक्ष विश्र्वविजय सिंह के नेतृत्व में मण्डलायुक्त कार्यालय पर तटवर्ती गांवों के 101 लोगों ने सिर मुड़ाया। पितृपक्ष के इस पखवारे में लोग अपने पूर्वजों को अर्पण-तर्पण करते हैं। आमी बचाओ मंच ने आमी की शुद्धि और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को मृत प्राय मानकर अर्पण तर्पण किया। इस अनोखे आंदोलन को देखने के लिए लोग भारी संख्या में उमड़ पड़े। गुरुवार को मण्डलायुक्त कार्यालय पर काली मंदिर दाउदपुर के प्रधान पुजारी विजयशंकर पाण्डेय द्वारा आमी मुक्ति हेतु हवन और मंत्रोच्चार किया गया। इसके बाद तटवर्ती गांवों के 101 लोगों ने सिर मुड़ाया। तटवर्ती गांवों के आधा दर्जन से अधिक हजाम इसमें शामिल हुये। सिर मुड़ाने के बाद आंदोलनकारियों ने अर्पण तर्पण किया। और आमी की मुक्ति तक सिलसिलेवार लड़ाई लड़ने का संकल्प दुहराया। इस अवसर पर एक सभा भी आयोजित की गयी। सभा की अध्यक्षता करते हुये विश्र्वविजय सिंह ने कहा कि पितृपक्ष में लोग अपने पूर्वजों का सम्मान करते हैं और आमी नदी भी हमारी पहचान धरोहर और जीवनदायिनी पूर्वज है। हम सब इसके सम्मान में यह संकल्प ले रहे हैं कि मृत प्राय हो चुके प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अंत्येष्टि कर देंगे। जनसम्पर्क प्रमुख संजय सिंह और मंत्री सुनील सिंह ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा कि आमी की शुद्धि तक हमारी लड़ाई जारी रहेगी। फौजदार यादव, लालसाहब सिंह, जयराम यादव, विजय बहादुर सिंह, मिश्री निषाद, महातम निषाद, वीरेन्द्र यादव, सीताराम, जितेन्द्र दुसाध, बालगोविन्द दुसाध, विंध्याचल हरिजन, श्यामली हरिजन, रामआशीष प्रजापति, ओमप्रकाश दुसाध, प्रमोद, रामहित, उदयभान यादव, संतोष सिंह, धर्मेन्द्र चौरसिया, राणा सिंह, राजबहादुर यादव, अमृत सिंह, रामदरश साहनी, कतवारू, राजबहादुर और रामा यादव समेत 101 लोगों ने मुण्डन कराया और सभा में शिरकत की। कार्यक्रम में मातृशक्ति के रूप में आंदोलन को मजबूती देने के लिए मनाजी देवी, शहबंती देवी, मानमति देवी, कंुता देवी, भूता देवी, प्रेणता देवी और उषा देवी समेत कई प्रमुख महिलाएं उपस्थित थीं। उल्लेखनीय है कि सिद्धार्थनगर जिले के सोहनारा से निकली और गोरखपुर जिले के सोहगौरा में राप्ती नदी में विलीन हुई 80 किलोमीटर लम्बी आमी नदी के साथ गौतम बुद्ध, कबीर और गुरू गोरक्ष का रिश्ता जुड़ा हुआ है। अनोमा में इसी नदी के तट पर राजकुमार सिद्धार्थ अपने राजसी वस्त्रों का परित्याग कर ज्ञान की खोज में निकल गये और बाद में गौतम बुद्ध बने। अपने आखिरी दिनों में कबीर मोक्ष प्राप्ति के लिए इसी तट पर मगहर आये। यहीं गुरू गोरक्ष से उनका संवाद भी हुआ। कभी जीवनदायिनी रही यह नदी अब मृतप्राय हो गयी है। पिछले नौ माह से निरंतर आंदोलन कर रहे आमी बचाओ मंच ने पितृपक्ष के समय नदी की शुद्धि के लिए यह रास्ता चुना।

5 सित॰ 2009

उम्र भर आशा की वेदी पर व्यथित बैठे रहे


आनन्द राय, गोरखपुर

सर्व शिक्षा अभियान पर साल दर साल अरबों का वारा-न्यारा करने वाली सरकार उन शिक्षकों की ओर से आंख बंद किये है जो हजार रुपये पगार पर इस आस में पढ़ा रहे हैं कि शायद उनका विद्यालय अनुदान सूची में आ जाय। इसी आस में बहुतों की सेवा समाप्त हो गयी, बहुतों की सेवा की उम्र समाप्त हो रही है। जिनके दो चार साल बचे हैं उनकी आस सरकारी फाइलों में अटकी हुई है। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने प्रदेश में माध्यमिक विद्यालयों से सम्बद्ध 393 प्राइमरी स्कूलों को अनुदान सूची में ला दिया। उस समय 160 सम्बद्ध प्राइमरी स्कूल अनुदान सूची में आने से वंचित रह गये। इनमें सिर्फ गोरखपुर मण्डल में ही 59 सम्बद्ध प्राइमरी स्कूल हैं जहां सात सौ से अधिक शिक्षक अपनी तकदीर को दांव पर लगाकर बच्चों को पूरी तन्मयता से पढ़ा रहे हैं। बातचीत में इन शिक्षकों की आंखों के आंसू छिप नहीं पाते। किसान इण्टर कालेज भूपगढ़ से सम्बद्ध प्राइमरी स्कूल में 1985 से तैनात तार मोहम्मद अपनी मुफलिसी से जूझ रहे हैं। हर दिन समय से स्कूल जाने वाले तार मोहम्मद के साथ ही यहां के और भी शिक्षक बदहाली का सामना कर रहे हैं। एम।एस.आई. इण्टर कालेज गोरखपुर से सम्बद्ध प्राइमरी स्कूल के प्रभारी 52 साल के हारून रशीद खां से पूछिये तो उनकी पूरी व्यथा उभर जाती है। नेहरू उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पीपीगंज के 57 वर्षीय सच्चिदानन्द श्रीवास्तव हों, आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हरदीचक के प्राथमिक सेक्शन के दीपचंद हों या मदन मोहन मालवीय इण्टर कालेज भगवानपुर के प्राइमरी स्कूल के राजेन्द्र लाल श्रीवास्तव हों, सबका दुख एक ही है। इनमें कोई बीस साल से तो कोई पच्चीस साल से बच्चों को पढ़ा रहा है। सबको लगता है कि एक दिन सरकार सुधि लेगी और उनके विद्यालय को अनुदान सूची पर ला देगी पर इस आस में बहुतों को अवकाश मिल गया। पांच साल के अंदर तीन सौ से अधिक शिक्षक अवकाश पा जायेंगे। इनकी लड़ाई लड़ रहे हारून रशीद कहते हैं कि सम्बद्ध प्राइमरी स्कूलों में पूरी तन्मयता से पढ़ाई की जाती है ताकि बच्चों के भविष्य को सुधारने का पुण्य तो मिले। पर हमारी तरफ सरकार का ध्यान नहीं है। एडी बेसिक मृदुला आनन्द का कहना है कि हम तो नियमों की परिधि में रहकर ही किसी का सहयोग कर सकते हैं। यकीनन नियमों ने इन शिक्षकों की तकदीर को घेर दिया है। शिक्षक गोपाल पति त्रिपाठी, दरोगा सिंह, काली प्रसाद, दिनेश सिंह समेत दर्जनों शिक्षक अपनी पीड़ा को न कह पाते और न ही छुपा पाते हैं। उनकी पूरी व्यथा और कथा को कहने के लिए राजेश सिंह बसर का यह शेर ही पर्याप्त है- उम्र भर आशा की वेदी पर व्यथित बैठे रहे, छांव में प्रश्नों की हम अनुत्तरित बैठे रहे। हाथ पत्थर के उठेंगे देंगे हमें वरदान कुछ, कामना मन में लिये बरसों नमित बैठे रहे। सच कहें तो सरकारी आंकडों में बहुत से दावे किए जाते हैं लेकिन हकीकत को जनकवि अदम गोंडवी की यह रचना भी उजागर करती है।
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

1 सित॰ 2009

राही मासूम रजा. चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे

८२ वी जयंती पर भावांजलि
आनन्द राय, गोरखपुर
सख्त हालात के तेज तूफान में, घिर गया था हमारा जुनूने-वफा।
वो चिरागे तमन्ना बुझाता रहा, हम चिरागे तमन्ना जलाते रहे।
जख्म जब भी कोई मेरे दिल पर लगा, जिंदगी की तरफ एक दरीचा खुला।
हम भी गोया किसी साज के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे।

डा. राही मासूम रजा ने पता नहीं किन हालातों में अपनी एक गजल को इन शेरों से समाप्त किया लेकिन यह तो बिल्कुल सही है कि उनका जीवन भी कमोवेश इसी तरह का रहा। ताजिंदगी जूझते रहे। कभी अपने लिए तो कभी दुनिया की खातिर। जो दिल में वही उनकी जुबान पर। पसंद नहीं तो प्रतिकार सबके सामने, चाहे सामने वाली ताकत कितनी बड़ी क्यों न हो। आत्मविश्र्वास से पूरी तरह लबरेज। राही ने बचपन से ही सच का साथ निभाया और जो जी में आया वही किये। राही की प्रतिबद्धता और वैचारिक दृढ़ता के उदाहरण तो बहुत हैं लेकिन एक वाकया उसकी मुकम्मल तस्वीर दिखाता है। बात 1953 की है। गाजीपुर नगरपालिका अध्यक्ष पद का चुनाव था और उस चुनाव में राही के पिता और गाजीपुर कचहरी के कद्दावर वकील बशीर हुसैन साहब कांग्रेस के प्रत्याशी बनाये गये। राही आम आदमी के हिमायती थे और उनके पिता के सामने कम्युनिस्ट पार्टी के पब्बर राम प्रतिद्वंदी थे। आम आदमी की हिमायत के लिए राही ने अपने पिता की खिलाफत करते हुये पब्बर राम का साथ दिया। पब्बर राम चुनाव जीत गये। वैचारिक प्रतिबद्धता और दृढ़ता के धरातल पर इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। राही ने अपनी कलम के जरिये छद्मवेशी ताकतों को बेनकाब किया। उन्होंने अपने मशहूर उपन्यास आधा गांव के बहाने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे पर एक नयी बहस खड़ी कर दी। टोपी शुक्ला लिखे तो उनकी निगाहों में सांप्रदायिकता से उपजे सवाल थे। बाला साहब ठाकरे के विचार और क्रियाकलाप पसंद नहीं आये तो खरी खोटी सुना दी। पर अब्दुल्ला बुखारी को भी नहीं बख्शे। तीर की तरह चुभने वाली अपनी चिट्ठियों से उन्होंने उन सबको कटघरे में खड़ा किया जो विचारों के धरातल पर मनुष्य को मनुष्य से जुदा करने का काम कर रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी, शाही इमाम के साथ सैयद शहाबुद्दीन, बनातवाला, जियाउल रहमान अंसारी को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया। अपनी खुली चिट्ठियों में मुस्लिम राजनीति की रोटी सेंकने वालों को भी खूब
फटकारा। वे जीवन पर्यत सांप्रदायिकता के जहर से आम आदमी को बचाने की लड़ाई लड़ते रहे। राही का जन्म 1 सितम्बर 1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ। पढ़ाई लिखाई के बाद राही ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 6 वर्ष तक उर्दू विभाग में अध्यापन किया। पर कुछ विवादों ने उन्हें बेचैन कर दिया। राही ने 1967 में अलीगढ़ छोड़ दिया और मुम्बई चले गये। मुम्बई में ही 15 मार्च 1992 को उन्होंने अंतिम सांस ली। वे बाद के दिनों में गांव तो बहुत कम आये लेकिन उनकी आत्मा गांव से जुड़ी रही। हिन्दुस्तानी की परम्परा के ध्वजवाहक राही ने आखिरी इच्छा गंगा की गोद में सोने की व्यक्त की थी। लगभग तीन सौ फिल्मों की पटकथा, संवाद और दूरदर्शन के लिए अनेक धारावाहिक लिखने वाले राही ने महाभारत के संवाद लेखन से व्यास का दर्जा हासिल किया। 1945 में उन्होंने विधिवत लिखना शुरू किया और 1966 तक उर्दू में सात काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखकर उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि यहां का मुसलमान पाकिस्तान को किस तरह नेस्तनाबूद करने की हिम्मत रखता है। आधा गांव, टोपी शुक्ला के अलावा हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद और दिल एक सादा कागज उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। 1978 में प्रकाशित कटरा बी आर्जू हर बड़े शहर के मुहल्ले की कहानी है। असंतोष के दिन 1986 में प्रकाशित राही का अंतिम उपन्यास है। बम्बई इसके केन्द्र में है। उन्होंने बहुत ही नये ढंग से समाज के जलते सवालों का उठाया है। राही ने अपने पूरे रचना संसार में जोर देकर कहा है- संकीर्णता और सांप्रदायिकता केवल हिन्दू- मुसलमान के बीच नहीं है, यह खेल बहुत लम्बा है। राही ने वसीयत नाम की कविता में गंगा की गोद में दफनाये जाने की इच्छा जाहिर की तो यह भी कहा कि मेरी मौत के उपरांत उन पर कोई विशेषांक न निकाले जायें। राही लड़ते रहे पर बेहद दुखी रहे। उनके दुख को उनके ही शब्दों में समझें तो बेहतर है- मैं इस दुनिया से क्या मांगू मेरे जख्मों मेरे ख्वाबों मेरे नगमों की कीमत जिंदगी में उसने कब दी थी जो अब देगी।

बाल विज्ञान कांग्रेस: मेधा को मिलेगा मुकाम

आनन्द राय, गोरखपुर
संसाधनों की कमी और उपेक्षा के चलते अपने हुनर को दिशा न दे पाने वाले मेधावी बच्चों के लिए यह अच्छी खबर है। खासतौर पर उनके लिए जो परिषदीय विद्यालयों में पढ़ते हैं और प्रतिस्पर्धा की दौड़ में सबसे पीछे रह जाते हैं। उनकी मेधा को मुकाम देने के लिए पांच चरणों में बाल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन हो रहा है। इस आयोजन में प्रतिभाग की जिम्मेदारी जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी और जिला विद्यालय निरीक्षक को सौंप दी गयी है। बाल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन जिला, राज्य एवं राष्ट्र स्तर पर लगातार किये जाने का यह सत्रहवां वर्ष है। बाल विज्ञान कांग्रेस में 10 से 17 आयु वर्ग के बच्चे किसी भी शिक्षक के मार्गदर्शन में पूर्व निर्धारित मुख्य विषय से सम्बंधित स्थानीय समस्या को चिन्हित करके सर्वेक्षण, परीक्षण एवं विश्लेषण तथा प्रयोगों पर आधारित प्रोजेक्ट्स तैयार करना सीखते हैं। इसे विभिन्न स्तरीय आयोजनों में प्रस्तुत किया जाता है। यह एक अभिनव गतिविधि है जिसके द्वारा बच्चों का वैज्ञानिक व्यक्तित्व विकसित होता है। माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश की अपर शिक्षा निदेशक डा। सुधा प्रकाश ने जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को दिये गये निर्देश में कहा है कि इस वर्ष बाल विज्ञान कांग्रेस का मुख्य विषय पृथ्वी ग्रह हमारा घर: आइये इसे समझें और बचायें सुनिश्चित किया गया है। सितम्बर माह तक प्रधानाचार्य की देखरेख में बाल विज्ञान प्रदर्शनी आयोजित होगी। इसके बाद नोडल स्तर पर 15 अक्टूबर से पहले आयोजन किया जायेगा। इसका संचालन नोडल सेण्टर कोआर्डिनेटर करेंगे। 31 अक्टूबर से पहले जिले पर जिला आयोजन समिति के संचालन में आयोजन होगा। 15, 16 एवं 17 नवम्बर को राज्य आयोजन समिति द्वारा आर्य भट्ट कालेज आफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नालाजी बागपत में बाल विज्ञान कांग्रेस आयोजित होगा। 27-31 दिसम्बर तक गुजरात साइंस सिटी अहमदाबाद में राष्ट्रीय स्तर का आयोजन होगा। इसके बाद 3-7 जनवरी 2010 को तिरुअनंतपुरम यूनिवर्सिटी में इण्डियन साइंस कांग्रेस का आयोजन होगा। बाल विज्ञान कांग्रेस का आयोजन अब शैक्षिक पंचांग में शामिल कर लिया गया है। बच्चों को तकनीक से परिचित कराने की जिम्मेदारी अफसरों को सौंप दी गयी है। विद्यालय के बच्चे कम से कम 3 तथा अधिकतम पांच के समूह में 2-3 माह कार्य करते हैं और तैयार किये गये प्रोजेक्ट को विद्यालय स्तर से नोडल स्तर से जिला स्तर पर होने वाले वाल विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत करते हैं। जिला स्तर से चयनित समूह राज्य स्तर पर तथा वहां से चयनित वाल विज्ञानी समूहों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाता है। सभी स्तरों पर प्रतिभागी बच्चों एवं उनके मार्गदर्शक शिक्षकों को प्रमाण पत्र एवं प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जायेगा।
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