13 फ़र॰ 2008

राज ठाकरे की दादागिरी और पूर्वांचल

मुम्बई में राज ठाकरे की दादागिरी चल रही है। यहाँ लोग-बाग़ परेशां है। यंही के लोगों ने खून पसीना बहाकर मुम्बई को चमकाया है। यंहा के लोग तो फिजी, सूरीनाम, गुयाना, मारीशाश,त्रिनिदाद, टोबैको और दुनिया के पता नही कितने देशों में गए और अपनी उपलब्धियों का इतिहास लिखा। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग हर जगह फैले है। मुम्बई का हर इलाका इन लोगों के कहकहों से गुलजार है। वंहा जब भी कोई हवा बहती है पूरब के लोगों की जुबान से उसका अहसास जरूर होता है। यंहा के लोंगो को मुम्बई से अलग कर दिया जाय तो वहां इतिहास के गुनागुनानें या ठंडी साँस लेने की कोई आवाज नही आयेगी। राज ठाकरे अपनी दादागिरी को कायम रखने के लिए चाहे जो तर्क गढ़ लें लेकिन वे इस बात को कैसे झुठला देंगे की मुम्बई की फिजा में अब भी कैफी के गीत गूंजते है। अब भी राही के संवाद सुनायी पड़ते है। कमलेश्वर की आंधी आज भी अपनी मौजदगी दर्ज कराती है। उससे भी आगे वहा के कल-कारखानों से यहाँ के मजदूरों दे पसीनो की गंध हर उत्पाद के साथ आती है। मुम्बई की फैक्ट्रियों में यू पी और बिहार के सपने भेज दिए जाते है। यंहा का श्रम और युवाओं की अनमोल जवानी कौद्दियों के भाव वहा बिक जाती है। अब भी गांवों में रेलिया बैरी पिया को लिए जाय रे गीत'''''''''' चाव से ही सुने जाते है। यंहा टू बेरोजगारी ऐसी है की जब राज ठाकरे की तरह हुमांच भरने का वक्त आता तो गजभर की छातियों वाले बेरोजगारी के चूल्हे में जोत् दिए जाते है। अब वे अपने सपनो का तेल निकालें या राज ठाकरे की दादागिरी का जवाब दे। इसीलिए तो राज की सरहद बढ़ रही है।


राज के लिए यह सोचने की बात है की मुम्बई में उन्हें जिनकी बड़ी तादाद दिख रही है वे वहा नादिर और तैमुर नही है। वे तो एक विरह है। उनके लिए यहा न जाने कितनी आंख का काजल बहकर सुख गया है। मुम्बई की तरह उद्योग की हर बड़ी नगरी यहाँ के बेरोजगारों की सरहद है। राज ठाकरे एक और बात कहू- यहाँ के लोग पूरी दुनिया को अपने में समेत्नें की ताकत रखतें है। ५-६ दशक पहले महारास्त्त्रे से मधुकर विनायक दिघे नाम के एक नौजवान ने गोरखपुर की जमीन पर कदम रखा। मजदूरों के बीच रहने वाले इस नौजवान को यहाँ के लोंगो ने अपने सीने से लगा लिया। कई बार दिघे विधायक बने। प्रदेश सरकार में वित्त मंत्री बने और गवर्नर भी बने। उन्हें यहा के लोंगों ने अपने कन्धों पर बिठाया। राज ठाकरे शुक्र करो मधुकर दिघे बीमार है। वरना आज के राजनीतीक दलों के लोग जिस तरह सियासत के लिए हाथ बांधे बैठे है वे चुप नही बैठते। दीघे तो सीधे मजदूरों की गोल बनाते और राज जैसों से दो-दो हाथ जरूर कर लेते। यकीन करना जब भी मुम्बई के लोग किसी मोर्चे पर हार जाते हैं यहीं के लोग मोर्चा सँभालते हैं।



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