दीक्षा का चेहरा बदल गया है. जब मैंने इसे स्लेट का रूप दिया था तब मुझे यकीन नहीं था कि इस कैनवास पर मेरी जिन्दगी के इतने रंग चढ़ जायेंगे. फुर्सत रहे न रहे, दीक्षा का आमंत्रण ठुकरा नहीं पाता. न मैं कोई लिक्खाड़ हूँ और न ही इस बात का गुमान है कि जो लिख रहा हूँ उसे लोग पढेंगे ही. पर यह सोच कि - बात निकली है तो दूर तलक जायेगी, कुछ न कुछ लिखने को प्रेरित करती है. दैनिक जागरण में १५ साल से लगातार लिख रहा हूँ. उसमें अपना कुछ नहीं होता, सिर्फ शब्द भर और कई बार जगह के अभाव में या भाइयों कि ज्ञानगंगा में बात पूरी नहीं हो पाती. यहाँ जो कुछ लिख पाता उसमें कोई प्रतिबन्ध तो नहीं पर एक संकोच जरूर रहता है.
खैर इसके बदले रूप के लिए मैं अपने भतीजे शुभम का आभारी हूँ जिसने दीक्षा को पूरी तरह बदल दिया है. शुभम की दो दिनों की मेहनत का नतीजा है. महज १८ साल की उम्र में उसने अपनी कला से इसके रूप- रंग को निखार दिया है. अब मैं चाहता हूँ मेरे शब्दों के चित्र लोगों को अपनी ओर खींचे और बाँध लें. दीक्षा समाज के सभी लोगों की आवाज बने, हमेशा मैंने यही कोशिश की. कई बार मेरी निपट भावना शब्दों के शक्ल में यहाँ जम गयी तो मन में उथल पुथल जैसा रहा. अपनी तो सभी गाते हैं. कुछ दूसरों की गाओ तो अच्छा. यह ब्लॉग मेरे फेसबुक पर भी है और मेरे दोस्तों ने इसे अपना स्नेह भी दिया है.
आप सबके स्नेह और सहयोग की आकांक्षा के साथ इकबाल की यह रचना -
" ख़िर्द के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं.
तेरा इलाज नज़र के सिवा कुछ और नहीं.
हर मुक़ाम से आगे मुक़ाम है तेरा.
हयात ज़ौक़-ए-सफ़र के सिवा कुछ और नहीं.
रंगो में गर्दिश-ए-ख़ूँ है अगर तो क्या हासिल.
हयात सोज़-ए-जिगर के सिवा कुछ और नहीं.
उरूस-ए-लाला मुनासिब नहीं है मुझसे हिजाब.
कि मैं नसीम-ए-सहर के सिवा कुछ और नहीं."
उम्मीद है कि यह नया बदलाव आपको पसंद आयेगा.
1 टिप्पणी:
वाकई, आनंद जी आपकी स्लेट को शुभमजी ने काफी निखार दिया है...बधाई....आशा है, बेबाक हो अपनी बात आप हम सब तक पहुंचाते रहेंगे....
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