23 अक्तू॰ 2009

अभी तक कुंवारे हैं सुशील राजपाल

आनन्द राय, गोरखपुर
  


      

अंतर्द्वंद को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला तो रातो रात सुशील राजपाल सुर्खियों में आ गए. इस फिल्म के सिनेमेटोग्राफर, निर्माता, निर्देशक और कहानीकार सब कुछ वही हैं.  इसके पहले उन्होंने अपने कैमरे में यश चोपडा की <लागा चुनरी में दाग> कैद की. यश चोपडा ने ही नहीं बल्कि बहुत से लोगों ने कहा कि इस फिल्म में बनारस को जितनी खूबसूरती से सुशील ने कैद किया उतना खूबसूरत बनारस कभी भी फिल्माया नहीं गया. अंतर्द्वंद बिहार की एक ख़ास विषय वस्तु को लेकर बनायी गयी फिल्म है. यह फिल्म अभी रिलीज भी नहीं हुई है. असल में बिहार में जो लड़के पढ़ लिख कर कुछ बन जाते उन्हें बन्दूक के जोर पर पकड़ लिया जाता और उनसे बेटी व्याह दी जाती. कुछ लोग हालत के चलते इसे स्वीकार कर लेते. कुछ संघर्ष करते हैं. बहुतों की उम्र कोर्ट कचहरी के चक्कर में निकल जाती है. सुशील ने इसे देखा है. करीब से महसूस किया तो  खुद उसकी कहानी लिख बैठे. पर आप सब जानिए कि ९ अगस्त १९६२ को जन्मे सुशील अभी तक कुंवारे हैं. जब हमने उनसे इसका राज पूछा तो कहने लगे कि बहुत समय तक हास्टल में रहा इसलिए बैचलर रहने की आदत पड़ गयी. वे अपने इस निजी मामले को समाज से भी जोड़ते और कहते हैं कि मैं गृहस्थी के जाल में न उलझ कर  समाज के लिए कुछ करना चाहता हूँ. पर अपने माँ बाप और भाई के प्रति बेहद संवेदनशील हैं. कहते हैं कि परिवार के  उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो सकता.
                      सुशील राजपाल बहुत समय तक रांची और फिर दिल्ली के हंसराज कालेज में पढ़े और हास्टल में रहे. गोरखपुर के होने की वजह से बिहार के लोगों से उनकी खूब दोस्ती हो गयी. वैसे भी उनके हास्टल में अस्सी फीसदी बिहार के ही लोग थे. बिहार में उनके एक दोस्त के भाई को पकड़ कर जबरन शादी कर दी गयी. इस विषय को उठाते हुए उन्होंने कानूनी दांव पेंच का अध्ययन किया.अंतर्द्वंद फिल्म में कई ऐसे कलाकार हैं जो बिहार की पृष्ठभूमि के हैं और सुशील से उनकी दोस्ती है इसलिए उन लोगों ने पैसे नहीं लिए. सुशील इस फिल्म को पहले गोरखपुर में शूट करना चाहते थे मगर उन्हें जो लोकेशन चाहिए उसके लिए काफी पैसा लगता. सरकारी सेवा छोड़कर समाज के लिए कुछ ख़ास कर रहे बिहार के उनके मित्र राजीव द्विवेदी ने शूटिंग के लिए अपना घर दे दिया. सुशील के लिए बिहार में शूटिंग करना किसी अंतर्द्वंद से कम नहीं था. बिहार के प्रति उनका अपना नजरिया तो बेहद साफ़ था लेकिन उनकी टीम में जो लोग बिहार के बाहर के थे, थोडा हिचकिचा रहे थे. गोरखपुर में डाक्टर रजनीकांत के घर पर ही इस फिल्म के निर्माण का निर्णय हुआ था सो उन्ही के घर नवाब काटेज का नाम बैनर पर दिया गया. वहीं पक्का निर्णय हुआ कि हर हाल में शूटिंग बिहार में होगी और कलाकारों को बिहार जाने के लिए आश्वस्त किया गया. अखिलेन्द्र मिश्रा, स्वाती सिंह जैसे  कलाकारों को लेकर फिल्म शुरू हुई तो महंगे कलाकार विनय पाठक भी सुशील की दोस्ती में इससे जुड़ गए. उन्हें उनके बहुत से दोस्तों ने सपोर्ट किया.
            सुशील यह फिल्म बना रहे थे तो उनके पास पैसा नहीं था लेकिन पैसे की कमी आड़े नहीं आयी. इस मसले को अपनी जिन्दगी में वे उतना अहम् मानते भी नहीं हैं. उन्होंने पूछने पर कहा कि पैसे लेकर तो बहुत से लोग दौड़ रहे हैं और मेरे साथ काम करना चाहते हैं लेकिन मैं खुद की लिखी हुई कहानी पर ही कुछ बेहतर करने की सोचता हूँ. उनके पास चार पांच ऐसे विषय हैं जिनको अभी किसी ने छुआ नहीं है. इसे वे एक मुकम्मल रूप देने का इरादा रखते हैं. मैंने पूछा कि आपकी जिन्दगी में सबसे बड़ी चुनौती क्या लगती है. कहने लगे कि यार शुरुआत में ही इतना बड़ा सम्मान मिल गया तो अब चुनौती तो ज्यादा बढ़ गयी है. मुझसे लोगों की उम्मीद बढ़ गयी है. पहले से बेहतर काम करने पर ही मुझे और मेरे प्रशंसकों को संतोष मिलेगा. सुशील अभी जमीन पर हैं. यह मेरा निजी ख्याल है क्योंकि कई लोगों को मैंने सफलता मिलने के बाद आसमान में उड़ते और फिर गिरते देखा है. इस विषय को टच करने पर वे सीधे कहते हैं कि हमें वही लोग पसंद हैं जिनके साथ काम करते हुए मुझे कोई असुविधा न हो. मतलब बिलकुल साफ़ है- वे फिल्मी दुनिया के नाज नखरे उठाने को तैयार नहीं है. वे सहज भाव में अपने काम को गति देना चाहते हैं. इसीलिये साफ़ कहते हैं कि कला मेरा शौक है और यही मेरी जिन्दगी है. अपनी कला के जरिये समाज की उस खामोशी को तोड़ना चाहते हैं जो ठहरी हुई है. जो सडांध बन गयी है. एक हलचल पैदा करके जागृति लाने का उनका इरादा है. उन्हें कोई आकर्षित नहीं करता है. पर सबकी कोई न कोई चीज अच्छी लगती है. मैंने उसे कुरेदते हुए कई बार पूछा कि आपके माडल कौन हैं. उन्होंने एक बार हंसते हुए कहा मैं तो रजनीकांत को भी कई मामलों में माडल मानता हूँ. रजनीकांत माने उनके बचपन के दोस्त. गोरखपुर में पेशे से चिकित्सक हैं लेकिन कला में गहरी रूचि है. सुशील को अवार्ड मिला तो दिल्ली गए थे. जिस शाम लौटे तो एयर पोर्ट से सीधे आकर क्लीनिक में बैठ गए. सुशील से मेरी बात उनकी क्लीनिक से बजरिये दूरभाष हो रही थी.

   सुशील के लिए गोरखपुर के बहुत से लोगों में बेचैनी है. उनके करीबी लोगों में दैनिक जागरण के मुख्य छायाकार डाक्टर राजीव केतन हैं. राजीव ने हमसे उनके गुणों के बारे में बताया. उनके घर पर पिता हंसराज राजपाल, माँ परमेश्वरी राजपाल, भाई सुरेन्द्र राजपाल, भाई की पत्नी स्नेहा राजपाल और सात साल की बेटी ताशा राजपाल और तीन साल का बेटा वीर राजपाल रहते हैं. परमेश्वरी राजपाल और और उनके पति उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं. उनकी देख रेख में कोई कमी नहीं है लेकिन सुशील हर तीसरे माह आते हैं. उनके आने के साथ ही सिंधी कालोनी गुलजार हो जाती. पुराने सभी दोस्त खूब मस्ती करते हैं. तीन साल का वीर मोहल्ले के  साथियों में अपने बड़े पापा का नाम लेकर रोब  गालिब करता तो ताशा भी स्कूल में सुशील की चर्चा करना नहीं भूलती. असल में सुशील मानवीय मूल्यों को सहेजने में लगे हैं और इसकी हिफाजत के लिए अपने घर- परिवार से शुरू होकर दोस्तों और समाज के बीच आदर्श प्रस्तुत करने में लगे हैं. मैंने उनके दोस्तों से पूछा कि कया ऐसा तो नहीं कि कभी इश्क में उनका दिल टूटा हो और फिर उन्होंने शादी का इरादा ही त्याग दिया हो. कोई साफ़ उत्तर नहीं मिला. एक ने कहा कि यह हो सकता है लेकिन सुशील उसमें का इंसान है जो  अपना दर्द हंसकर पी जाएगा लेकिन अपनी किसी हरकत से दूसरे को बेपर्दा नहीं करेगा. मैं फिर कभी यह बात सुशील से पूछूंगा क्योंकि बहुत से लोगों की जिज्ञासा इसमें है. अब सुशील सेलिब्रेटी हो गए हैं इसलिए उनके बारे में लोग अधिक से अधिक जानना चाहते हैं. मैं उनके अप्रोच से प्रभावित हूँ. समाज के प्रति कुछ अलग करने की उनकी सोच से प्रभावित हूँ. इसलिए यह भी सोचता  हूँ कि कभी कुछ ऐसा न कह दूं जो उनके मन को तकलीफ दे.
           अंतर्द्वंद बनाने में कितनी लागत आयी. यह सवाल सबके मन में कौंधता है. मुझे भी जिज्ञासा हुई. उनसे पूछा भी. उन्होंने डेढ़ करोड़ के आस पास बताया. डाक्टर रजनीकांत कहने लगे कि इसे कैसे आप लिख सकते हैं. कोई डेढ़ करोड़ का कलाकार अगर किसी के लिए मुफ्त काम कर दे तो फिल्म की लागत तो कम हो नहीं जाती. जो हो लेकिन अगर सुशील ने सीमित संसाधनों में एक बेहतर फिल्म बनायी तो उनके इस जज्बे को सलाम करना ही होगा. तीसरी कसम फिल्म बिहार की पृष्ठभूमि पर ही बनी. उस फिल्म में गीतकार शैलेन्द्र अपने मूल काम से अलग होकर निर्माता के रूप में सामने आये. फणीश्वर नाथ रेणु की रचना मारे गए गुलफाम पर बनी इस फिल्म में राजकपूर ने अपने अभिनय से लोगों को युगों युगों तक के लिए बाँध लिया है. अंतर्द्वंद रिलीज होने से पहले पुरस्कार पा गयी. पर जब तीसरी कसम रिलीज हुई तो उसे दर्शकों के लाले थे. पुरस्कार मिला तो दर्शकों की भीड़ उमड़ आयी. अंतर्द्वंद बॉक्स आफिस पर सुपर हिट हो और उसे पायरेसी का रोग न लगे यही मेरी शुभकामना है.

1 टिप्पणी:

sumit rana ने कहा…

sushil ji ki shadi jaroori hai. kabhi kabhi akelapan katne lagtaa hai. abhi dunia kee chakchundh men hain insiye jindgee dilchsp lag rahee hai. varanaa akele hone par falsafe bhool jaate hain.

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