21 अक्तू॰ 2009

मत छीनों मासूमों की हंसी

आनन्द राय, गोरखपुर.



 यह कहानी मटुकनाथ-जूली की है. यह कहानी चाँद और फिजा की है. यह कहानी आख़िरी छोर पर पड़े रहने वाले कुछ कमजोर और गरीबों की है. यह कहानी दुनिया और देश के हर गली-मुहल्ले के किसी कोने की है. यह कहानी अपने आपमें बेशुमार लोंगों के दिलों का हाल लिए है.यह कहानी उन लोगों की है जो प्रेम और वासना के साथ साथ अपनी रफ़्तार बनाए हुए हैं. पर इस कहानी में कुछ मोड़ हैं. कुछ जलते हुए सवाल हैं. समाज के उन लोगों से जो मासूम बच्चों के दिलों में घाव भर देते हैं. उनसे उनकी हंसी छीन लेते हैं. यह कहानी मासूमियत की है. यह एक सच्ची कहानी है. बस इस कहानी के पात्र बदले हैं.


                            उस दिन मैं दफ्तर से जल्दी घर आ गया. घर के बिलकुल पास मोड़ पर चीख और शोर सुनकर मेरे कदम ठिठक गए. कुछ लोग पंचायत में जुटे थे और कुछ पेंच फंसा रहे थे. पर कुछ ऐसे भी थे जो बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ना चाह रहे थे. थोड़ी देर तक तो मेरी समझ में कोई बात नहीं घुसी पर जब बात समझा तो हर किरदार मेरे लिए पहेली बन गया. मैंने मटुकनाथ और जूली को सोचा. चाँद और फिजा को सोचा. और भी कई गुमनाम किरदार मेरी आँखों के सामने आ गए. मुझे लगा कि दलितों की इस बस्ती में आख़िरी छोर पर खड़े ये बेबस सबसे महान हैं. सब एक दूसरे के प्रति जवाबदेह थे. सबको अपनी भूल का अहसास था. अब उनके बीच के झगडे ख़त्म हैं. बस एक मासूम बच्चे की हंसी छिन गयी है.


कहानी में दो परिवार है. दोनों की बसी बसाई जिन्दगी में कुछ बिखराव और कुछ ऐसे मसले हैं जो समाज के बड़े बड़े धुरंधरों के लिए भी आईना है. अभई और नंदू साथ साथ पले बढे. एक दूसरे के पडोसी रहते हुए भी बिलकुल घर परिवार की तरह रहे. अभई मंद बुद्धि का बदसूरत आदमी और नंदू पूरा छः फूटा गबरू जवान. पर दोनों के बीच आपसी तालमेल इतना कि पूछिए मत. बड़े होने पर कुछ दिनों के हेर फेर में दोनों की शादी भी हुई. नंदू अपनी माँ और बीवी के साथ मेहनत मजूरी करके जीवन बिता रहा था. उसकी पत्नी सोनमती ने भी घर की जिम्मेदारी संभाल ली. उधर अभई की शादी फूला से हुई तो उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. फूला की कसी हुई देह और लटकती झटकती अदा पूरे मुहल्ले को आकर्षित करने लगी. नंदू और अभई की दोस्ती पहले की तरह चलती रही. दोनों के घर में नन्हे मुन्ने फूल खिलते रहे. नंदू को तीन और अभई को दो बच्चे हो गए. नंदू और अभई साथ साथ कच्ची पीते. किसी के घर साफ़ सफाई का मौका मिलता तो साथ काम पर जाते. नंदू तो बाहर जाकर कुछ काम भी कर लेता पर अभई दिन भर घर में पडा रहता या पानी की टंकी के पास बैठा रहता. कुछ लोग उससे अपनी टहल भी कराते लेकिन घर के लिए तो वह बिलकुल निठल्ला ही साबित हुआ. उसके प्रति नंदू मेहरबान रहता और कमा कर लौटता तो उसका भी ध्यान रखता.

कहते हैं कि ठहरे हुए पानी में कब उबाल आ जाए कोई नहीं जानता. वैसे तो नंदू और अभई दोस्त थे पर नंदू और फूला की कसक एक जैसी थी. नंदू को दुःख यह कि उसकी बीवी उसके सामने छोटी और काली कलूटी थी. फूला जब गज भर छाती वाले नंदू को देखती तो उसकी आह निकल जाती. अभई तो उसकी भावनाओं को भी नहीं समझ पाता. जब राहगीरों की कामुक नजरें फूला पर टिकने लगती तब उसकी रखवाली का भाव लिए नंदू सामने खडा हो जाता. पता नहीं कैसे दोनों के दिल पिघलने लगे. एक होने लगे. धुंआ उड़कर बादल बनने लगा.. एक दोपहर जब फूला घर में अकेले थी तो नंदू जा पंहुंचा. वर्षों से उमड़ता-घुमड़ता बादल बरस गया. फिर तो नंदू अवसर की तलाश में रहने लगा. दस बरस तक जिस बदसूरत बीवी को सहेज कर रखा उससे उबकाई आने लगी. पल पल फूला के आगोश में जाने को जिद होने लगी. मौका तलाशने लगा. अपने घर वालों और अभई की आँखों में धूल झोंकने लगा. फि़र भी मन नहीं भरा. वर्षों की सुलगती हुई चिंगारी शोला बन गयी थी. एक दूसरे के बिन दोनों का रहना दूभर हो गया. मौका देखकर दोनों भाग निकले. मुहल्ले में कोहराम मच गया. खूब किस्से गढे गए. जितने मुंह उतनी बातें हुई. दोनों को लेकर जितनी कल्पनाएँ हो सकती उतनी कहानियां वजूद में आ गयी. इस बीच दोनों घरों के छोटे छोटे बच्चों की जिन्दगी और परवरिश का हवाला दिया जाने लगा. फिर कुछ लोगों ने उन्हें तलाशने का बीडा उठा लिया.

नंदू और फूला भाग कर थोड़ी दूर की एक बस्ती में किराए का घर लेकर रहने लगे. सब्जी खरीदते समय मुहल्ले के एक आदमी ने दोनों को देख लिया. फिर उसने सधे क़दमों से उनका ठिकाना ढूंढा और उसी शाम मुहल्ले के ढेर सारे लोग जाकर दोनों को पकड़ लाये. मैं दफतर से लौटा तो इनकी पंचायत चल रही थी. बहुत देर तक कोई नतीजा नहीं निकला. बात बढ़ती ही जा रही थी. एक बुजुर्ग ने दोनों परिवार के सभी लोगों की राय जानने का प्रस्ताव रखा. सबसे पहले फूला की राय माँगी गयी. फूला अपनी जिद पर अड़ी थी. कहने लगी कि बीस दिन मैं इसके साथ रही हूँ. अपना सब कुछ नंदू के हवाले कर दिया है और मैं इसी के साथ रहूँगी. अपने बच्चों का भी पेट भर लूंगी. फिर लोग बीच में घुस आये. कहने लगे कि दो बच्चे तुम्हारे और तीन उसके कैसे खर्च चलेगा. फूला तो सिर्फ अपने लिए उसका छत मांग रही थी. अपने बच्चों के लिए तो वह अपने जांगर के दम पर इतनी बड़ी चुनौती स्वीकार करने को तैयार थी. फिर नंदू से पूछा गया. तुम क्या चाहते हो! नंदू बोला कि मैं इसे लेकर भागा था इसलिए मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं इसे रखूँ. नंदू ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के साथ इसको भी रखने को तैयार हूँ. अभई की ओर भी कुछ लोगों की नजरें उठी. उसकी राय माँगी गयी. तो वह सीधे अपनी पत्नी के पास चला गया. कहने लगा क्यों हमको छोड़ कर चली गयी. उस बौउके की आँख भर आयी. पर फूला का दिल नहीं पसीजा. पूछने लगी कि आज तक आखिर हमको क्या दिए. तुम किस काम लायक हो. तुम्हारे साथ कैसे मैंने इतना दिन काटा मैं ही जानती हूँ. पर अब नहीं रह पाउंगी. यह सुनकर वह रोने लगा.

पञ्च असमंजस में थे. नंदू की माँ बुलाई गयी. उससे लोग पूछते रह गए पर उसने अपनी जुबान नहीं खोली. एक चुप हजार चुप. बस वह घूरती रही. कभी पंचों को , कभी नंदू को और कभी फूलवा को. इस बीच नंदू की पत्नी की माँ भी पंहुच आयी थी. आते ही उसने गालियों की चौपाई पढ़नी शुरू की तो कई लोग राह पकड़ने लगे. उसने फूलवा का झोंटा पकडा और गालियों की बौछार करते हुए कहने लगी अरे कलमुंही तुमको मेरा ही दामाद मुंह काला करने को मिला था. उसका बखेडा पंचायत पर भारी पड़ने लगा. कुछ दबंगों ने अपनी त्योरी चढा कर उस पर लगाम कसी. अब तक सोनमती की भी जबान चल पडी. पहले तो फूट फूट कर रोई और फिर फूलवा पर ऐसे टूट पडी जैसे मटुकनाथ की व्याहता जूली पर टूट पडी थी. फूलवा बिना कुछ बोले मार खाती रही. फूलवा की पिटाई से कुछ औरतों का दिल पसीज गया. औरतों ने कहा- तुम्हारा खसम उसके साथ गया तभी तो वह गयी. सोनमती कहने लगी वह तो आदमी है. दस घाट का पानी पिएगा. उसका कोई गुनाह मैं बर्दाश्त कर लूंगी. वह अपने पति का हाथ पकड़ कर उसे दुलराने लगी. उसने अपना फैसला सुना दिया- फूलवा किसी कीमत पर हमारे घर में नहीं आयेगी. अब फूलवा के बच्चों की बारी थी. छोटे मासूम बच्चे पंचायत के सामने थे. उसके बड़े बेटे से पूछा गया- किसके साथ रहोगे. चेहरे पर मासूमियत. कभी अपनी माँ को देखे और कभी अपने बाप को.. अचानक किसी ने डांटा, बोलते क्यों नहीं हो. रोनी सूरत बनाकर बोला. क्या बोलूँ ये मेरा बाप रहे तब न ..मैं तो धोबी का लड़का हूँ. पंचायत में खुसुर फुसुर होने लगी. छोटे बच्चे से पूछा गया तो उसने पूरी तरह खामोशी ओढ़ ली. पर उसकी आँखों से लगातार गंगा- यमुना बहती रही.


        कोई फैसला नहीं हुआ. अगले दिन भी लोग जुटे. इस बीच फूलवा के हमदर्द बढ़ गए. वह अपने मंदबुद्धि पति की ओर लौटने लगी. उस बेचारे के चेहरे पर तो जमाने भर की खुशी थी. पर मुहल्ले के कुछ बिगडैल उससे पूछने लगे कि नंदू के पहले तुम्हारे घर में कौन धोबी आता था. इस सवाल के बहाने ने बहुतों ने फूलवा की देह के करीब जाने का अवसर तलाशा. अभई ने फूलवा को खुश करने के लिए काम मांगना शुरू कर दिया है. पर उससे कोई काम भी तो नहीं कराता है. लोग कहते हैं कि यह जो काम करेगा वही बिगाड़ देगा. अपनी बीवी तो संभाल नहीं पाता तो काम क्या करेगा. कभी कभी राह चलते देखता हूँ कि शाम को कच्ची के सुरूर में कुछ मनबढ़ फूलवा के करीब होने को आस पास मंडराते रहते हैं. नंदू तो अब भी उसे देखकर आह भरता है लेकिन उसकी लुगाई नकेल कसे रहती है. हर पल पहरा लगाती है. सबकी गाडी पटरी पर लौट रही है लेकिन फूलवा का छोटा बेटा खामोश हो गया है. उसकी हंसी छीन ली गयी है. काश मासूम बचपन को भी कोई समझ पाता.

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