आनन्द राय, गोरखपुर.
एक बार राजबब्बर ने मुझसे कहा था- मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के आदर्शों को अपने परिवार के प्रेम में गिरवी रख दिया है. इस बात पर बहुत से लोगों ने बहुत तरह की बाते कहीं हैं. पर मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह वन्शवेली की पताका फहराई है उससे उनके असली समाजवादी साथियों को जरूर दुःख होगा. अब कोई यह तर्क दे कि छोटे लोहिया कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र जैसे लोग मुलायम के ध्वज वाहक बने हुए हैं तो फिर औरों की क्या बिसात ?
दरअसल राजनीति में जिस तरह परिवारवाद का उदय हुआ है उससे कोई दल अछूता नहीं रह गया है. भाजपा में भी परिवारवाद की जड़ें गहरी होती जा रही हैं. भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लेकर उनकी पांत में बैठे अधिकाँश नेताओं की यही स्थिति है. एक दृश्य में मैं देख रहा हूँ मुलायम सिंह यादव अपनी बहू को लेकर चुनाव प्रचार में गए हैं. उनके साथ उनके सबसे असली दोस्त कल्याण सिंह भी हैं. खैर कल्याण सिंह भी बेटे और बहू से लेकर अपने ख़ास लोगों को स्थापित करने के सबसे बड़े उदाहरण हैं. अब तक नेहरू और मैडम गांधी को कोसने वाले नेताओं के सामने परिवारवाद के इतने भयंकर उदाहरण आ गए हैं कि लगता है कि अब यह मुद्दा गौण हो गया है. कभी कभार चैनलों पर या किसी के लेख में बहस तो सुनाई देती है लेकिन इस मसले पर राजनेता वैसे ही कोई बात नहीं कर रहे जैसे सांसदों और विधायकों का वेतन भत्ता बढाए जाने का बिल बिना किसी होर शराबे के पास हो जाता है. घर की राजनीति घर वालों को मुबारक.
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