18 जन॰ 2010

प्रचंड के चेहरे से उतर गया नकाब


भारत और नेपाल मित्र राष्ट्र है. मेरे एक परिचित अवसर मिलने पर भी नेपाल नहीं जाना चाहते. कहते हैं कि उनकी कुंडली में विदेश योग है. नेपाल जाकर अपने योग को सस्ते में गंवाना नहीं चाहते. यह प्रसंग सिर्फ इसलिए कि नेपाल यहाँ के लोगों को विदेश नहीं लगता. ढाई दशक में सरहद के कस्बों से लेकर काठमांडू तक अनगिनत यात्रा की. रहन सहन और परिवेश भले अलग लगा लेकिन कभी यह महसूस नहीं हुआ कि गैर मुल्क में आये हैं. तब भी जब माओवादी आन्दोलन चरम पर था, तब भी जब राज परिवार की ह्त्या हुई और लोग उबल रहे थे, वहां कोई भय जैसी बात नहीं थी. पर अब भय का वातावरण बनाया जा रहा है.



शुरुआत प्रचंड ने की है. वही प्रचंड जो राज परिवार से मुकाबला करते हुए अपने फरारी के दिनों में भारत में रहते थे. जिस भारत की जमीन ने उन्हें खडा होने को बल दिया उसके खिलाफ जहर उगल रहे हैं. उन्हें पीलीभीत नेपाल का हिस्सा दिखने लगा है. कुछ दिन के लिए प्रधानमंत्री हुए तो भारत से दोस्ती का हाथ बढ़ा रहे थे और अब जहर उगल रहे हैं. भारत और नेपाल की सरकार उनके बयान पर क्या सोचती है, यह तो बाद की बात है. नेपाल में माओवाद को खडा करने वाले बाबू राम भट्टराई को भी प्रचंड का बयान पसंद नहीं आया. उन्होंने खुले तौर पर उनकी आलोचना की. उन्होंने प्रचंड को सोच समझ कर बोलने की सलाह दी. उन्होंने प्रचंड को यह समझाने की भी जुर्रत की कि भारत के विरोध में बेवजह बोलने से कुछ नहीं होने वाला है.

नेपाल में सत्ता के विरोध में आम आदमी के मन में गैरत पैदा करने का काम बाबूराम ने किया है. उन्होंने माओवादी आन्दोलन को जमीन दी है. प्रचंड उग्र विचारों से भले हमेशा सुर्ख़ियों में रहे हों लेकिन बाबूराम के प्रति वहां के माओवादियों में एक श्रद्धा देखी गयी है. अब तो लोग खुलेआम कहने लगे हैं कि प्रचंड चीन के इशारे पर भारत विरोधी अभियान में सक्रिय हो गए हैं. उन्हें भारत और नेपाल के संबंधों का ख्याल नहीं है. वे वर्षों पुराने रिश्ते को सर्द कर देने पर आमादा हैं. प्रचंड को यह ख्याल नहीं है कि दोनों देशों के बीच अभी भी रोटी बेटी का संबध है. उन्हें इस बात का ज़रा भी ख्याल नहीं है कि तमाम झंझावातों के बीच सरहद पर दोनों मुल्कों के लोग एक दूसरे का सुख दुःख समझते हैं. उन्हें तो बस अपनी सियासत करनी है. नेपाल पर राज करने की अधूरी ख्वाहिश को अंजाम देना है. ये वही प्रचंड हैं जो प्रधानमंत्री बनने के बाद लाखों रूपये की पलंग पर सोने लगे और अपने काफिले में मंहगी से मंहगी गाड़ियां रखने लगे. नेपाल का आम आदमी तो उन्हें उसी दिन से पहचान गया. नेपाल के लड़ाका माओवादियों के dil से तो वे उसी समय उतर गए.

सच मानिए कि उनके चेहरे पर एक नकाब लगा है. वो धीरे धीरे उतर रहा है. अभी बाबूराम ने उन्हें नसीहत दी है. आगे और भी लोग उन्हें सबक देंगे. भारत के खिलाफ जहर उगल कर वे भी नेपाल में पनाह लिए उन तमाम भारत विरोधियों की कतार में खड़े हो गए हैं जो हर पल भारत की अशांति का ख्वाब देखते हैं. प्रचंड अपनी हद में रहे तो उनकी सेहत के लिए ठीक होगा. उनके सियासी अरमान भी तभी फलीभूत हो सकते हैं जब उनकी आत्मा साफ़ सुथरी हो.

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