आनन्द राय , गोरखपुर :
पापा पापा मुझे गन चाहिये। मम्मी मुझे गन खरीद दो। मुझे गन लेनी है। मुझे आटो गन चाहिये। बच्चों की इस तरह की जिद अक्सर खिलौने की दुकानों पर देखने को मिलती है। मां-बाप कुछ मसलहतन कुछ मजबूरन इस फरमाइश को पूरा कर रहे हैं। अब बच्चे बंदूक से बहलाये जा रहे हैं।
खिलौने की शायद ही कोई ऐसी दुकान हो जहां विभिन्न किस्मों की बंदूक न रखी गयी हो। चूंकि खेलने के लिए बच्चों की पहली पसंद बंदूक हो गयी है इसलिए यह दुकानदार और अभिभावक दोनों की मजबूरी हो गयी है। मां-बाप बच्चों की पसंद को नजरअंदाज नहीं कर पा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि खिलौनों की सूची में बंदूक पहली बार जुड़ी है। कई दशकों से खेलने वाली बंदूकें बन रही हैं। पर अब उसका स्वरूप बदल गया है। मशीन गन से लेकर कार्बाइन की शक्ल में खिलौने बन गये हैं। पन्द्रह रुपये से लेकर पांच सौ तक के इन खिलौनों पर बच्चों की बांछे खिल जाती हैं।
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्र्वविद्यालय मनोविज्ञान विभाग के प्रोफेसर अनुपम नाथ त्रिपाठी कहते हैं कि जो एक्सपोजर है, मनोरंजन की सामग्री उपलब्ध है उसमें गन की बहुतायत है। सिनेमा, टी.वी. में इसी तरह की चीजें परोसी जा रही हैं। यह तो सोशल लर्निग है। बंदूक बच्चे के अंदर की इच्छा नहीं है। यह इच्छा बाहरी दुनिया को देखकर उपज रही है। हुमायूंपुर का आठ साल का आदर्श कहता है कि मेरे पापा के पास भी गन है। जान अब्राहम और सलमान खान भी हमेशा गन लेकर दिखते हैं। इसी उम्र के राज को आटो गन पसंद है तो विशाल और क्षितिज ने भी कई तरह की गन रखी है। 4 साल से लेकर 12 साल तक के बच्चों में इसी बंदूक का क्रेज है।
अलग अलग दुकानों पर खिलौना बेचने वाले मनीष और इदरीस कहते हैं कि अब तो कम्पनियां ऐसी ऐसी गन बना रही हैं जो देखने में बिल्कुल असली लगती हैं। इनके दाम भी खूब हैं लेकिन खरीदने वाले खरीदते ही हैं। कुछ साल पहले तक बच्चों की पहली पसंद कार होती थी लेकिन अब वे बंदूक को ही पहली प्राथमिकता दे रहे हैं। अभिभावक कौशल शाही, तेज नारायण पाण्डेय और पी.के. राय राजू स्वीकार करते हैं कि जैसा समाज हम बना रहे हैं वैसा असर बच्चों पर पड़ रहा है। हमारे बच्चे हमें रोज असलहा लगाते देखते हैं। सिनेमा में असलहा देखते हैं। पैदा होते ही उन्हें मीडिया के जरिये असलहों की ही आवाज सुनायी दे रही है इसलिए यही उनकी पसंद बन रही है। असली बंदूक बेचने वाले ब्रहमदत्त इससे अलग नजरिया रखते हैं। कहते हैं कि बचपन में भगत सिंह की बंदूक बोने वाली कथा तो प्रेरणा के तौर पर है। और इसे प्रेरणा के तौर पर ही लेना चाहिये।
(मेरी यह रपट २० जनवरी को दैनिक जागरण गोरखपुर में पेज ६ पर प्रकाशित है. )
1 टिप्पणी:
मुझे तो लगता है कि अब शस्त्रास्त्र लाइसेंस मुक्त हो जाने चाहिए। ..पता नहीं उससे भी अनुशासन आ पाएगा या नहीं।
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