1 अप्रैल 2009

सियासत का खेल और धर्म


जीवन में जो सक्रिय सत्ता है, जीवन को बदलने का जो सक्रिय आंदोलन है, जीवन को चलाने और निर्मित करने की जो व्यवस्था है, उस सबका नाम राजनीति है. राजनीति के भीतर अर्थ भी है, शिक्षा भी है. राजनीति के भीतर हमारे पारिवारिक सम्बन्ध भी हैं. लेकिन भारत का दुर्भाग्य समझा जाना चाहिये कि हजारों वर्षों से राजनीति और धर्म के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहा. भारत में राजनीति और धर्म दोनों जैसे विरोधी रहे हैं- एक दूसरे की तरफ़ पीठ किए खड़े हैं. भगवान रजनीश ने यह बात कहीं थी. और यह आज की ही बात नहीं है, हजारों वर्षों से ऐसा हुआ है और उसका परिणाम हमने भोगा है. एक हजार वर्ष की गुलामी उसका दुष्परिणाम है. अभी गोरखपुर शहर में भी धर्म और राजनीति को लेकर बहस हो रही है. कुछ लोग चुनाव में इसे बहस बनाते हैं और कुछ लोग ता जीवन इसी में लगे रहते हैं. देश की सबसे बड़ी पंचायत के लिए कुल 14 बार चुनाव हुए हैं. इसमे 7 बार गोरक्षपीठ के महंथ और उनके उत्तराधिकारी का कब्जा रहा है. गोरक्षपीठ देश में आस्था का एक बड़ा केंद्र है और जाहिर है राजनीति में इसका लाभ पीठ से जुड़े लोगों को मिलता है. इस पीठ के ब्रहमलीन महंथ दिग्विजय नाथ 1967 में पहली बार लोकसभा के लिए चुने गये. इसके पहले तीन चुनावों में उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा. अभी इस बार बहुजन समाज पार्टी ने विनय शंकर तिवारी को उम्मीदवार बनाया है. विनय इस बार विकास और सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं. विनय तर्क देते है कि सत्ता में बने रहने के लिए इन लोगों ने साम्प्रदायिकता का खेल खेला. अपने तर्क को बल देने के लिए वे अतीत की कुछ घटनाये गिनाते हैं. विनय का कहना है कि 1952, 1957 और 1962 का चुनाव महंथ जी हार गए. 1965 में गोरखपुर में पहला साम्प्रदायिक दंगा हुआ और इस दंगे को सुनियोजित रुप से कराया गया. महंथ जी चुनाव जीत गये. 1971 में उनके शिष्य और बाद के महंथ अवेद्यनाथ जी महाराज चुनाव मैदान में उतरे और कांग्रेस के नरसिंह नारायन पांडेय से चुनाव हार गये. फिर 1989 तक लोकसभा का चुनाव नहीं लडे. यह बात इसलिए ख़ास है क्योंकि विनय शंकर तिवारी का यह भी तर्क है कि शहर में सात बार दंगा फसाद और कर्फू लगा और सात बार उन लोगों को संसद में जाने का अवसर मिला. 1989, 1991 और 1996 में महंथ अवेद्यनाथ और 1998, 1999 और 2004 में योगी आदित्यनाथ को संसद में जाने का मौका मिला. योगी हिंदुत्व की रक्षा की दुहाई देते हैं. वे विनय शंकर तिवारी के खिलाफ आग उगलते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि हिंदुत्व के विकास के साथ ही माफियाओ का दमन उनका लक्ष्य है. पर वे आजमगढ में माफिया समझे जाने वाले पूर्व सांसद रमाकांत यादव की सभा में जाते हैं. उन्हें शाबाशी देते है और उनके लिए वोट माँगते हैं. उनकी राजनीति के इस सियासी धर्म को रजनीश के नजरिये से देखे तो घालमेल साफ़ दिखता है. रमाकांत पर अपराध के इतनें आरोप हैं कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती. मेरी मंशा विनय शंकर तिवारी के पक्ष में कुछ कहने की नहीं है बल्कि उनके दिए गए तर्को के आधार पर यह जरूर कहना है कि नफरत की दीवार उठकर अगर संसद में जगह मिलती हो तो ऐसी जगह को लात मार देना चाहिये. कम से कम धार्मिक आस्था से जुड़े व्यक्ति के लिए सियासी सत्ता का कोई मतलब नहीं होता.

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