26 मार्च 2009

हर कदम नयी दुश्वारियों का साथ

आनंद राय, गोरखपुर सुबह सुबह नेता ने फोन किया. पूरे हक के साथ. उसका समाचार नही छपा था. बोले तो उसकी पूरी नेतागिरी खराब हो गयी थी. अपनी पार्टी के उम्मीदवार को ठीक ठीक भरोसा दिया था. बड़े ही ताव से कहा था कल से जब अखबार में छपेगा कि में आपके साथ हूँ फिर तो आपको फोन उठाने से ही फुर्सत नहीं मिलेगी. तब आपको पता चलेगा कि लोग मुझे कितना चाहते हैं. अखबार में छुट्भैये नेता के लिए जगह नहीं मिल पायी और उसके बाद प्रत्याशी ने उसकी नींद खराब कर दी. अलसुबह 5 बजे कोई वक्त होता है. प्रत्याशी को तो रात दिन संसद में जाने का ख्वाब दिख रहा है और चूँकि सोने के बाद यह सपना आंखों से ओझल हो जाता है इसलिए उसे तो नींद ही नहीं आ रही है. पर उसके लग्गू बझ्झू तो नींद भी चाहते हैं, शोहरत भी चाहते हैं और चुनाव की मौज मस्ती भी. बेचारा नेता रात को पूरे मज़े से एक अध्धा पचा लिया था. नींद भी ठीक ठाक लग रही थी लेकिन सुबह सुबह ही मुये ने फोन लगा दिया. कुछ इधर उधर की चू चपड करके बात काटी और फिर मेरे पास फोन लगा दिया. सुबह की सलामी भी अच्छी नहीं लगी. सम्वाद में रात की खुमारी थी और शिकायत में बहुत कुछ खो जाने का दर्द. भाई साहब क्यों मेरी नौकरी खराब कर रहे है. इस उम्मीदवार से मेरा बहुत कुछ लेना लादना नहीं है. हम तो सीधे नेता जी से ही बात करते है. ये ससुरा जीते चाहे हारे पर मेरा भौकाल ठीक रहना चाहिये. नेता जी को लगे कि में बहुत मेहनट कर रहा हू. इस बार शहर से सटे जो विधानसभा बनी है वहां की जनता मेरा वेट कर रही है. कभी आप मेरे साथ तो चलिए देखिये लोग मुझे कितना चाहते है. चाहे दिन हो रात लोगों की सेवा में लगा रहता हूँ. कभी आप मेरे बारे में वहां के लोगों से तो पूछिये. सब मेरे घर परिवार की तरह हैं. अब आपसे सच कहूँ तो मेरा कोई बाहरी दुश्मन नहीं है. मेरी जड़ तो अपनी पार्टी वाले ही खोद रहे हैं. इतनी जल्दी पार्टी में मेरा मान सम्मान बढ़ गया है. नेता जी और महासचिव जी मुझे सीधे फोन करते हैं. सच बोलू तो यह बात तो प्रत्याशी साले को भी अच्छी नहीं लगती. भैया मेरा खयाल करिये. और हा अगर हो सके तो जब समीक्षा लिखे तो मेरे पर फोकस कर दीजिये. आपका जीवन भर अहसानमंद रहूंगा. क्या आप नहीं चाहते कि आपका भाई विधायक हो जाये. में क्या बोलू कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था. सुबह नींद खराब करने के लिए उसे फटकार लगाऊ या फिर उसकी मूर्खता पर हंसू.
लगा कि यह राजनीति भी बड़ी कुर्बानी मांगती है. ख़ुद बड़े बड़े सपने सोचने पडते हैं और उनके लिए एक जमीन तैयार करनी पड़ती है. मेरी सुबह खराब हो गयी पर मुझे सोचने के लिए एक विषय दे गयी. आज के इस दौड़ में इन छोटे नेताओं के पास कितना धैर्य है. कितनी कल्पना है और सब कुछ कह देने का कितना निराला अंदाज़ है. फिर लंबी उमर तक जिस पार्टी का झंडा उठाये घूमते हैं और यह आस बनी रहती है कि कभी टिकट मिलेगा और हम भी माननीय बन जायेंगे लेकिन अचानक एक झटके में उसका सपना टूट जाता है. कोई सेठ अपनी पूँजी के बल पर टिकट खरीद लेता. कोई अभिनेता अपने शोहरत का लाभ उठा लेता और कोई संत आस्था का कारोबार कर उसे वोट में बदल लेता और पार्टी उसके तलवे चाटती. ऐसे हाल में किसी के लिए क्या कहने. बस राजेश सिंह बसर की कुछ लेने याद आती हैं -जिंदगी तेरे लिए क्या क्या जतन करना पड़ाजिंदा रहने के लिए विष आचमन करना पड़ा. हर कदम पर नयी दुश्वारियो का साथ है, जिंदगी मेरे लिए तो राम का वनवास है, क्या करें तक़दीर ही सन्यासिनी होने लगी, साधुओ का वेश फिर इस देह को धरना पडा. एक घायल मन लिए इस दुखो की देह में में भटकता फिर रहा परछाइयो के देश में.राह की तपती हुई उस धूल को ठंडक मिलें, इसलिए पाँव के छालो को हवन करना पडा.

1 टिप्पणी:

KK Yadav ने कहा…

Samaj ki nabj par chot karti dhardar rachna..badhai !!
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गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

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