15 नव॰ 2009

भूख ने चाहतों से जुदा कर दिया

आनन्द राय, गोरखपुर




छोटी उम्र में बड़ा बोझ उठाने वाले बचपन को गौर से देखिये तो वे आपके अपने बच्चों से अलग नजर नहीं आयेंगे। वे सब भी पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बनना चाहते हैं मगर भूख ने इन्हें चाहतों से जुदा कर दिया है। इनके दिल के अरमानों पर पहरा लगा दिया है।

         कठउर गांव के 9 साल के शिव की कहानी सुनिये। बात सोमवार की है। कक्षा चार में पढ़ने वाले शिव ने स्कूल जाने की तैयारी शुरू की मगर पिता सिद्धू ने कह दिया आज स्कूल नहीं जाना है। सिद्धू ने अपने बेटे के हाथ में ठेला पकड़ा दिया और कठउर से छह किलोमीटर पैदल चलकर पिता के साथ अमरूद बेचते वह सिविल लाइंस पहंुचा। शिव के साथ अक्सर ऐसा होता है। इस बारे में उससे पूछा गया तो होठों पर चुप्पी थी। हर बार कुरेदने पर बाप की ओर सहमी हुई नजरें उठ गयीं। कई बार जोर देने पर बस इतना ही कह पाया कि स्कूले जाइल चाहत रहलीं, बाकी इ मना कर दिहलें..। अब सिद्धू की दलील सुने तो यही कि पढ़ लिखकर पेट थोड़े भरेगा।
          
            यही हाल पप्पू का है। पादरीबाजार में रहने वाला पप्पू पहले एक होटल में काम करता था। अब उसने अपने 12 साल के बेटे फिरोज को भी उसी होटल में लगवा दिया है और खुद भाड़े का रिक्शा चला रहा है। फिरोज ने तो दो चार बार स्कूल का मंुह देखा लेकिन तीन भाई बहनों का पेट भरने के लिए उसने यही रास्ता अपना लिया। कचरे के ढेर में अपने पूरे परिवार की रोटी तलाश रही 8 साल की लक्षमिनिया और मारे डर के अपना नाम न बताने वाली उसकी एक सहयोगी, इन दोनों को देखकर नियति के विधान पर दुख हुआ। उनकी आंखों में सांझ भी थी और जब भी कचरे में कुछ मिल जाता तो भोर की चमक भी। उन सबके लिए दया, पुचकार और प्यार के बोल बेगानी बातें हैं। शहर में रहते हुये भी पूरा दिन कचरे के ढेर में कुछ ढूंढ़ते हुये गुजर जाता है। बस इतना ही कह पाती हैं कि यह तो हमारा रोज का काम है।

                    मन्नू, जितेन्द्र, पिण्टू,सुंदर, राजा, गोमा, गुडडू, छोटे, अर्जुन, अकलू, हरमेश, नाटे और सेवक जैसे न जाने कितने बच्चे हैं जो किसी होटल, किसी गैराज, किसी चाय की दुकान और किसी के घर की नौकरी करके अपना बचपन बिता रहे हैं। बदले में इन सबको किसी तरह दो जून की रोटी मिल जाती है। पेट भर कर ये अपना सबसे अनमोल समय कौडि़यों के भाव बेच रहे हैं। अनदेखे सपनों के बीच इनके कुम्हलाये चेहरों को देखें तो साफ साफ शाम की उदासी दिखती है। और कुछ भले न हो लेकिन यह तो सही है कि असमय इन बच्चों के बड़े हो जाने से बुनियाद कांप रही है। इसका अहसास निजाम को भले न हो। इनमें कुछ ऐसे भी बच्चे हैं जिन्हें अपने सपनों, ख्वाबों के व्यर्थ हो जाने और अस्तित्व की निरर्थकता का अहसास है।

                       गोरखपुर मण्डल में शैक्षणिक सत्र के शुरूआती दिनों में जब 6 से 14 साल के बच्चों का सर्वेक्षण हो रहा था तब 29 लाख बच्चे चिन्हित किये गये। बेसिक शिक्षा विभाग ने अपने आंकड़ों में 22 हजार बच्चों को आउट आफ स्कूल दिखाया। इनमें से अधिकांश किसी न किसी स्कूल में एडमिशन भी पा चुके हैं। पर यह सिर्फ आंकड़ों का खेल है। उनकी पढ़ाई भी शिव की तरह हो रही है। शहर से लेकर गांव तक शायद ही कोई जगह हो जहां जिंदगी से जूझते हुये शिव जैसे बच्चे न मिलें। इन बच्चों की तरक्की के लिए हर साल रस्मी उपाय ढ़ूंढे जाते हैं और सब कुछ कागजों में निपटा कर इतिश्री कर ली जाती है। राजेश सिंह बसर ने ऐसे ही हालात पर लिखा है-
 दिल में अरमान यूं तो कई थे मगर,
भूख ने चाहतों से जुदा कर दिया।

2 टिप्‍पणियां:

Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…

मर्मस्पर्शी.....
बाकि राजेश सिंह'बसर' के शेर तो बेहतरीन होते ही हैं...

मनोज कुमार ने कहा…

जीवन्त मानवीय द़ष्टिकोण की नई परिकल्पना के संवेदनशील पहलुओं को दिखाता है।

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