30 अग॰ 2009

भूल गए फिराक को


आनंद राय, गोरखपुर,

इसी शुक्रवार को मशहूर शायर रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी की १२३वी जयन्ती थी। चित्रगुप्त मंदिर में उन्हें याद किया गया. चित्रगुप्त सभा गोरखपुर के अग्रणी कायस्थों की संस्था है. इस सभा के अलावा अगर किसी ने उन्हें याद किया हो तो उसकी कोई खबर नहीं मिली. इतने महान शायर को लोग भूल गए. फिराक गोरखपुरी को वे सभी लोग भूल गए जो साहित्य के नाम पर अपना सीना चौड़ा करते हैं. उसकी रोटी खाते हैं. देश भर में पुरस्कार बटोरते हैं और कहीं बोलने का मौका मिला तो कहते हैं कि हमने फिराक को देखा था. मैंने कुछ लोगों से बातचीत की और सवाल उठाया कि क्या अब महापुरुषों को उनकी जातियाँ ही याद करेंगी. अब लोगों का इतना सामाजिक पतन हो गया है कि अपने उन पूर्वजों को भी भूल रहे हैं जिनके दम पर देश दुनिया में पूरे इलाके का नाम रोशन है. भारत भारती से सम्मानित विख्यात आलोचक प्रोफेसर परमानन्द को मैंने फोन किया. अपनी पीडा बतायी. छूटते ही बोले कि मैं तो लखनऊ में हूँ. मैंने कहा आज फिराक की जयंती है और शहर उन्हें भूल गया. परमानन्द जी उदास हो गए. उन्होंने कहा कि जब गुले नगमा पर फिराक साहब को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था तब गोरखपुर में उनका सम्मान हुआ था. उन्होंने कहा था कि मैं गुमनाम रहना चाहता हूँ. शायद फिराक को अपने आने वाली नस्लों का अंदाज था तभी तो उन्होंने ऐसी बात कही थी. दिसम्बर १९७४ में जुगानी भाई ने आकाशवाणी में गोरखपुर शहर को लेकर एक इंटरव्यू किया था. उस इंटरव्यू में फिराक साहब ने कहा था कि गोरखपुर शहर भुतहा होता जा रहा है. आज तो इतने साल बाद बिलकुल उनकी बात सच लगती है., फिराक को यहाँ लोग याद करे न करे, यहाँ के लोगों की खुशी, पर दुनिया उन्हें याद कर रही है. परमानंद जी ने ही बताया कि उन पर पाकिस्तान में कार्यक्रम आयोजित है. फिराक ने खुद १९२६ में लिखा-, वो एक लम्हा हूँ जिसका कभी कटना नहीं मुमकिन, वो दिन हूँ आके जो शहर- ए- खमोशां को जगा जाये., मैं ऐसा वक्त हूँ जिसका कभी कटना नहीं मुमकिन, वो शब् हूँ मैं सितारों को जिसमें नीद आ जाए., फिराक को लेकर कभी गोरखपुर में कोई सरकारी प्रयास नहीं हुआ. बन्वार्पार में जहां उनका जन्म हुआ अब खंडहर है. गोरखपुर में न तो उनके नाम पर कोई पीठ है और न ही विश्वविद्यालय में कोई चेयर. शहर में एक प्रतिमा है जिस पर रस्म अदायगी में कभी कभी फूल चढ़ जाते हैं. लिखने पढने वाले लोग भी उनके नाम पर बस कुछ करके खुद गौरवान्वित होते हैं. फिराक साहब को लेकर पिछले साल प्रेस क्लब के अध्यक्ष अरविन्द और मंत्री नवनीत ने एक पहल की और कार्यक्रम आयोजित किया लेकिन इस बार पत्रकार भी उन्हें भूल गए. धुरियापार के एक ग्रामीण संवाददाता नंदकिशोर जायसवाल ने अपनी लेखनी से उन्हें याद किया. ऊर्दू के माथे के सिन्दूर थे फिराक. इसी हेडिंग से उनकी खबर छपी थी. हालांकि हमें तो लगता है कि फिराक साहब ने हिन्दी और ऊर्दू को एक दूसरे में पिरो दिया. उन्होंने हिन्दी और ऊर्दू को बाँध कर एक ऐसा पुल बना दिया जिससे जब जब आने वाली नस्लें गुजरेंगी फिराक पर नाज करेंगी. गोरखपुर शहर अब दंगा फसाद और बलवे का शहर हो गया है. यहाँ तो जुम्मन और अलगू की दोस्ती को भी नजर लग गयी है. ऐसे में फिराक साहब ही वो सबसे बड़ी दवा हैं जो यहाँ के जख्म पर मरहम बन सकते हैं. उन्हें याद करने की जरूरत है. उन्होंने तो अपने वसूल जिंदा रखे. गोरखपुर से मजनू गोरखपुरी पाकिस्तान चले गए तब भी अपनी दोस्ती जिंदा रखी. उन्हें याद करके भी कोई क्या देगा. उनके लिए तो बस उन्ही के शब्दों में कहें-, जमीं हैं आसमां हैं दहर हम हैं लामकां हम हैं, जहां जाओ, जिधर देखो निहां हम हैं अयाँ हम हैं.,

सफ़र दुनिया के मशहूर शायर का

फिराक गोरखपुरी एक जीवंत ,अद्वितीय व कालजयी नाम है। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक गुले नगमा की गजलें, नज्म और रूबाइयां भुलायी नहीं जा सकतीं। स्व. रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, ग्राम बनवारपार, तहसील गोला बाजार जनपद गोरखपुर में 28 अगस्त 1896 में प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में पैदा हुए थे। उनके पिता मुंशी गोरख प्रसाद इबरत अपने समय के प्रसिद्ध शायर तथा पेशे से वकील थे। 1918 में फिराक ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया। 1930 में उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से एम.ए. अंग्रेजी की परीक्षा पास की। एम.ए. करने के बाद इसी वर्ष उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में लेक्चररशिप मिल गयी। 1958 में रिटायर हुए। जुलाई 1918 में डिप्टी कलेक्टर के पद पर उनका चयन हुआ। फिराक ने यह पद कबूल तो किया मगर ओहदा संभालने से पूर्व ही महात्मा गांधी व पं.जवाहर लाल नेहरु के सम्पर्क में आ कर जंगे आजादी की लड़ाई में शरीक हो गये। तब उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पन्द्रह वर्ष की उम्र तक पहुंचते पहुंचते वह उर्दू साहित्य से पूरी तरह परिचित हो चुके थे। सन 1921 में गोरखपुर की उर्दू पत्रिकाओं में फिराक साहब की कुछ गजलें प्रकाशित हुई। फिराक का विवाह 29 जून 1917 को सहजनवां के करीब ग्राम बेलाबाड़ी के एक जमींदार विंदेश्र्वरी प्रसाद की पुत्री किशोरी देवी से हुई। मगर पत्‍‌नी की शिक्षा ज्यादा नहीं थी। फिराक जीवन भर अपनी शादी को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा हादसा कहते रहे। फिराक इलाहाबाद विश्र्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में कार्य करते रहे। मगर उनकी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति उर्दू के कारण ही हुई। उन्होंने अपने सभी रचनात्मक कार्य उर्दू में ही किये। मिशाअल्ल, शोल-ए-साज, गुल-ए-नमगा, धरती की करवट, चेरांगा, पिछली रात, गुल-ए-बाग, रूप, हजार दास्तां, शेरिस्तान, गजलिस्तां उनके जिन गजल व नजमों का संग्रह है। फिराक ने हिन्दी में उर्दू साहित्य का इतिहास भी लिखा जिसे बहुत पसंद किया गया। फिराक की जिंदगी में बहुत इनामात और एजाजात मिले। सन 1961 में उन्हें साहित्य एकेडमी का इनाम मिला। 1967 में वह पद्मभूषण से नवाजे गये। 1968 में सोवियत देश नेहरु पुरस्कार, 1970 में ज्ञान पीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यूं तो फिराक को जिंदगी में बहुत से बड़े-बड़े इनाम मिले मगर उन्होंने फिराक पसंदी और फिराक फहमी को अपने लिये सबसे बड़ा इनाम समझा। तीन मार्च 1982 को दिल्ली में फिराक का देहांत हो गया, जहां वह अपनी आंखों का आपरेशन कराने गये थे। उनके शव को स्पेशल ट्रेन से इलाहाबाद लाया गया और संगम पर उनकी अंत्येष्टी हुई।

5 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

sateek post.

समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : ये चिठ्ठी शानदार तो नहीं है पर सबको साथ लेकर चलने वाली है .

समयचक्र ने कहा…

फिराक जी को स्मरण करने के लिए सटीक पोस्ट. आभार.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

रघुपति सहाय फिराक ‘गोरखपुरी’ की विरासत को सम्हालने वाला उनके शहर में कोई नहीं बचा है। यह बेहद अफ़सोसजनक है। अच्छी पोस्ट।

वेद रत्न शुक्ल ने कहा…

किसको रोता है उम्र भर कोई
आदमी जल्द भूल जाता है
होली से पहले दूरदर्शन मुशायरे का आयोजन करता था। अब पता नहीं। वहीं मैंने पहली बार कैफी साहब और बशीर बद्र आदि को सुना था। एक बार लोग मुशायरे में बदतमीजी करने लगे तो एक बड़े शायर ने फटकारा कि यह फिराक की धरती है और आप लोग... । लेकिन लोगों को तो याद भी नहीं कि यह फिराक की धरती है। कइयों को तो मालूम भी नहीं होगा। गुंडे ही यहां पूजे जाते हैं, शहर का मिजाज न जाने कब का बदल गया।

वेद रत्न शुक्ल ने कहा…

किसको रोता है उम्र भर कोई
आदमी जल्द भूल जाता है
होली से पहले दूरदर्शन मुशायरे का आयोजन करता था। अब पता नहीं। वहीं मैंने पहली बार कैफी साहब और बशीर बद्र आदि को सुना था। एक बार लोग मुशायरे में बदतमीजी करने लगे तो एक बड़े शायर ने फटकारा कि यह फिराक की धरती है और आप लोग... । लेकिन लोगों को तो याद भी नहीं कि यह फिराक की धरती है। कइयों को तो मालूम भी नहीं होगा। गुंडे ही यहां पूजे जाते हैं, शहर का मिजाज न जाने कब का बदल गया।

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