12 मई 2009

लोकगीत बन गये थे जंग-ए-आजादी के परचम

हरीन्द्र द्विवेदी, गोरखपुर
गुलामी से आजादी की छटपटाहट लोक कवियों में भी कम नहीं रही। उन्होंने जनजागरण के गीत लिखे और सुदूर ग्रामीण क्षेत्र के नाट्य मंचों पर उनकी प्रस्तुति कर आम जनता को आजादी की लड़ाई में ताकत दी। ये लोकगीत जंग-ए-आजादी के परचम बन गये थे। ये कवि आमजन के बीच के ही थे। ऐसे बहुत से कवियों के असली नाम भी कोई नहीं जानता। बस इनकी रचनाएं लोकजीवन में रची बसी हैं। लोकनाट्य रूपों की कहरवा (हुड़का), इनरसनी (मिरदंगी), फरुआही, लोरकायन, धोबियउआ विधा की माहिर टीमें भी जनजागरण में पीछे नहीं थी। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के शहीदों की कुर्बानी और उनकी वीरगाथाएं लोकनाट्यों की मुख्य कथावस्तु बन गयी। बाद में नाटक कंपनियों ने ऐसे नाटकों का मंचन शुरू किया जिनमें अंग्रेजों के जुल्म और आजादी के परवानों के साथ की जा रही उनकी ज्यादतियों का प्रकारांतर से जिक्र रहता था। बिहार के लोक कवि महेन्दर मिसिर ने तो मण्डली बनाकर मंचन करवाया और सरकार के खिलाफ लड़ रहे लोगों की मदद के लिए छापाखाना लगाकर रुपये तक छापे। लोक कवियों का यह जनजागरण अभियान आजादी मिलने के दिन तक चलता रहा। गोरखपुर क्षेत्र के लोक कवि चंचरीक ने महात्मा गांधी के आन्दोलन से प्रेरित होकर सुराजी गारियां (गालियां) लिखीं और उसे गांवों में जाकर गाया भी । उनकी सुराजी गारी आज भी हर गांव में महिलाएं गाती हैं। उन्होंने सुराजी गीतों के क्रम में ही चरखा गीत मोरे चरखे का टूटे ना तार, चरखवा चालू रहे लिखकर कुटीर उद्योगों को बढ़ाने की दिशा में लोगों को प्रेरित किया। इसी तरह एक अनाम कवि ने लिखा.. रेलिया बैरन, पिया को लिये जाय रे। जउने सहबवा क, पिया मोर नोकर। लागै गोलिया, साहब मरि जाये रे। इस गीत के माध्यम से उसने हुकूमत करने वाले साहबों को नेस्तनाबूद करने का आह्वान किया। बताते चलें कि गुलामी से आम आदमी का सामजिक विरोध भी लोगों के सामने आया। उस दौर में नौकरी को सबसे तुच्छ माना जाता रहा है। लोक कवि घाघ ने लिखा था.. उत्तम खेती मद्धम बान, निषिध चाकरी भीख निदान इतना ही नहीं विदेश जा कर नौकरी करने वालों को अछूत माना जाता था। उसके परिजन भी उसका छ़आ भोजन नहीं करते थे। इन्हीं लोक कलाकारों के भांड़ वर्ग ने भी इसे अपनी भड़ैती का हिस्सा बनाया। उस दौर में भांड़ों का प्रचलित गीत रहा.. भांड़ आये हैं, मजा लाये हैं, तक तक तक तक्क कहो वाह वाह वाह, गोरन के घर लइकी लइका खेलैं घोड़ा घोड़ी, आपन लइके लकड़ी बीनैं बना-बना के टोली, क्या व्यवस्था है क्या अवस्था है, तक तक तक तक्क कहो वाह-वाह-वाह कहने का अर्थ यह कि ग्रामीण परिवेश में लोक कवियों व कलाकारों ने अपने-अपने तौर तरीके से ब्रितानी हुकूमत के विरुद्ध जन जागरण कर जंगे आजादी में अपना योगदान दिया। उनके इस योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता।

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