8 मई 2009

बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं

यह कोई नयी बात नहीं है। हर साल ऐसा ही होता है। बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में योजनाओं के नाम पर मिले धन की बंदरबांट हो जाती है। पात्रों को उसका लाभ नहीं मिल पाता। इस सत्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। गोरखपुर-बस्ती मण्डल में 1076250 बालिकाओं के ड्रेस के लिए 10.76 करोड़ रुपये की धनराशि आवंटित की गयी। पर बेटियां नि:शुल्क ड्रेस के नाम पर छली गयीं। बहुतों को ड्रेस मिला ही नहीं और जिन्हें मिला उन्हें भी इतना खराब कि सत्र बीतते बीतते उसकी सिलाई, बटन और हुक उखड़ गये। असल में प्रति ड्रेस 35 रुपये के हिसाब से आवंटित धनराशि में लगभग साढ़े 37 लाख रुपये साहबों की जेब में चले गये। नगर क्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय निजामपुर की बात हो या ग्रामीण क्षेत्र के गगहा विकास खण्ड के प्राथमिक विद्यालय बड़ैला की बात हो, यहां बेटियां नि:शुल्क ड्रेस पाने की उम्मीद में पूरा सत्र पार कर गयीं और उनकी हसरत उनके दिलों में ही रह गयी। सिर्फ इन्हीं दो विद्यालयों में नहीं बल्कि दोनों मण्डलों में ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं जहां उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं। इसका अंदाज तो कक्षा पांच की दीपमाला, बबीता, कक्षा तीन की सुषमा और कक्षा दो की खुश्बू से बातचीत के बाद ही पता चलता है। मां-बाप की आर्थिक दुश्र्वारियों के बावजूद स्कूल की राह याद रखने वाली इन बेटियों के ख्वाबों को तिल तिल कर तोड़ा गया है। जिन स्कूलों में ड्रेस बंटे हैं उनकी हालत तो और बुरी है। पहली चीज तो यह कि अधिकांश विद्यालयों में दो तीन माह के अंदर ही ड्रेस वितरित किये गये हैं। कुछ जगह यह सिलसिला हाल तक चला है। पर जो कपड़े उन्हें दिये गये उनकी हालत खस्ता है। दो तीन धुलाई में कपड़े बदरंग हो गये हैं। सिलाई उघड़ने लगी है। बटन और हुक टूट रहे हैं। कपड़े की क्वालिटी तो पूछिये मत, स्कर्ट की सिलाई भी बेतरतीब हुई है। इसमें घेरे तक नहीं डाले गये हैं। प्राथमिक विद्यालयों के हेड मास्टर आहत हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि ड्रेस देने के नाम पर बालिकाओं को छला गया है। नगर क्षेत्र के एक प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका कहती हैं कि बीएसए दफ्तर का एक चपरासी ड्रेस देने वालों के साथ आ धमका और कहा कि बीएसए साहब का कहना है कि इन्हीं से ड्रेस लीजिये। ड्रेस खराब होने के बावजूद बीएसए दफ्तर के दबाव में ड्रेस लेना पड़ा। हर जगह यही हाल है। जहां ड्रेस लिये गये हैं वहां दबाव का असर है और जहां दबाव नहीं चला वहां अभी तक ड्रेस बंटे नहीं हैं। दरअसल ड्रेस वितरण के लिए निर्धारित शुल्क में ही सारा गोरखधंधा छिपा है। महंगाई के इस दौर में सौ रुपये में ड्रेस तैयार करना कठिन है। बालिकाओं के लिए डार्क ग्रे रंग की स्कर्ट और आसमानी रंग की टाप देने का निर्देश जारी हुआ। सौ रुपये में इनके कपड़े नहीं मिल सकते। पर जिन वितरकों से ड्रेस देने के लिए साहबों ने करार किया उनसे भारी कमीशन तय हुआ। सूत्र बताते हैं कि 65 रुपये प्रति ड्रेस के आधार पर यह सौदा तय हुआ और हर ड्रेस में साहबों ने 35 रुपये का कमीशन खा लिया। कमोवेश सभी जिलों का यही हाल रहा। बालिकाओं को ड्रेस देने के नाम पर इस तरह लगभग 37.66 हजार रुपये से अधिक साहबों के कमीशन के मद में चला गया। मतलब यहां एक तो करेला कड़वा दूजे नीम चढ़ा वाला मुहावरा चरितार्थ हो गया। ड्रेस के लिए पैसा कम मिला और ऊपर से उसमें भी कमीशनखोरी हो गयी।

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