1 सित॰ 2009

राही मासूम रजा. चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे

८२ वी जयंती पर भावांजलि
आनन्द राय, गोरखपुर
सख्त हालात के तेज तूफान में, घिर गया था हमारा जुनूने-वफा।
वो चिरागे तमन्ना बुझाता रहा, हम चिरागे तमन्ना जलाते रहे।
जख्म जब भी कोई मेरे दिल पर लगा, जिंदगी की तरफ एक दरीचा खुला।
हम भी गोया किसी साज के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे।

डा. राही मासूम रजा ने पता नहीं किन हालातों में अपनी एक गजल को इन शेरों से समाप्त किया लेकिन यह तो बिल्कुल सही है कि उनका जीवन भी कमोवेश इसी तरह का रहा। ताजिंदगी जूझते रहे। कभी अपने लिए तो कभी दुनिया की खातिर। जो दिल में वही उनकी जुबान पर। पसंद नहीं तो प्रतिकार सबके सामने, चाहे सामने वाली ताकत कितनी बड़ी क्यों न हो। आत्मविश्र्वास से पूरी तरह लबरेज। राही ने बचपन से ही सच का साथ निभाया और जो जी में आया वही किये। राही की प्रतिबद्धता और वैचारिक दृढ़ता के उदाहरण तो बहुत हैं लेकिन एक वाकया उसकी मुकम्मल तस्वीर दिखाता है। बात 1953 की है। गाजीपुर नगरपालिका अध्यक्ष पद का चुनाव था और उस चुनाव में राही के पिता और गाजीपुर कचहरी के कद्दावर वकील बशीर हुसैन साहब कांग्रेस के प्रत्याशी बनाये गये। राही आम आदमी के हिमायती थे और उनके पिता के सामने कम्युनिस्ट पार्टी के पब्बर राम प्रतिद्वंदी थे। आम आदमी की हिमायत के लिए राही ने अपने पिता की खिलाफत करते हुये पब्बर राम का साथ दिया। पब्बर राम चुनाव जीत गये। वैचारिक प्रतिबद्धता और दृढ़ता के धरातल पर इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। राही ने अपनी कलम के जरिये छद्मवेशी ताकतों को बेनकाब किया। उन्होंने अपने मशहूर उपन्यास आधा गांव के बहाने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे पर एक नयी बहस खड़ी कर दी। टोपी शुक्ला लिखे तो उनकी निगाहों में सांप्रदायिकता से उपजे सवाल थे। बाला साहब ठाकरे के विचार और क्रियाकलाप पसंद नहीं आये तो खरी खोटी सुना दी। पर अब्दुल्ला बुखारी को भी नहीं बख्शे। तीर की तरह चुभने वाली अपनी चिट्ठियों से उन्होंने उन सबको कटघरे में खड़ा किया जो विचारों के धरातल पर मनुष्य को मनुष्य से जुदा करने का काम कर रहे थे। लालकृष्ण आडवाणी, शाही इमाम के साथ सैयद शहाबुद्दीन, बनातवाला, जियाउल रहमान अंसारी को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया। अपनी खुली चिट्ठियों में मुस्लिम राजनीति की रोटी सेंकने वालों को भी खूब
फटकारा। वे जीवन पर्यत सांप्रदायिकता के जहर से आम आदमी को बचाने की लड़ाई लड़ते रहे। राही का जन्म 1 सितम्बर 1927 को गाजीपुर जिले के गंगौली गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ। पढ़ाई लिखाई के बाद राही ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 6 वर्ष तक उर्दू विभाग में अध्यापन किया। पर कुछ विवादों ने उन्हें बेचैन कर दिया। राही ने 1967 में अलीगढ़ छोड़ दिया और मुम्बई चले गये। मुम्बई में ही 15 मार्च 1992 को उन्होंने अंतिम सांस ली। वे बाद के दिनों में गांव तो बहुत कम आये लेकिन उनकी आत्मा गांव से जुड़ी रही। हिन्दुस्तानी की परम्परा के ध्वजवाहक राही ने आखिरी इच्छा गंगा की गोद में सोने की व्यक्त की थी। लगभग तीन सौ फिल्मों की पटकथा, संवाद और दूरदर्शन के लिए अनेक धारावाहिक लिखने वाले राही ने महाभारत के संवाद लेखन से व्यास का दर्जा हासिल किया। 1945 में उन्होंने विधिवत लिखना शुरू किया और 1966 तक उर्दू में सात काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखकर उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि यहां का मुसलमान पाकिस्तान को किस तरह नेस्तनाबूद करने की हिम्मत रखता है। आधा गांव, टोपी शुक्ला के अलावा हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद और दिल एक सादा कागज उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। 1978 में प्रकाशित कटरा बी आर्जू हर बड़े शहर के मुहल्ले की कहानी है। असंतोष के दिन 1986 में प्रकाशित राही का अंतिम उपन्यास है। बम्बई इसके केन्द्र में है। उन्होंने बहुत ही नये ढंग से समाज के जलते सवालों का उठाया है। राही ने अपने पूरे रचना संसार में जोर देकर कहा है- संकीर्णता और सांप्रदायिकता केवल हिन्दू- मुसलमान के बीच नहीं है, यह खेल बहुत लम्बा है। राही ने वसीयत नाम की कविता में गंगा की गोद में दफनाये जाने की इच्छा जाहिर की तो यह भी कहा कि मेरी मौत के उपरांत उन पर कोई विशेषांक न निकाले जायें। राही लड़ते रहे पर बेहद दुखी रहे। उनके दुख को उनके ही शब्दों में समझें तो बेहतर है- मैं इस दुनिया से क्या मांगू मेरे जख्मों मेरे ख्वाबों मेरे नगमों की कीमत जिंदगी में उसने कब दी थी जो अब देगी।

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