आनंद राय , गोरखपुर :
जोगियाकोल गांव की आबादी लगभग ढाई हजार है। इस गांव में हिन्दू और मुसलमान दोनों हैं लेकिन यहां मंदिर और मस्जिद नहीं है। मुसलमान तीन किलोमीटर दूर जाकर भीटी में नमाज पढ़ते हैं और हिन्दू महदेइया जाकर शंकर जी के मंदिर में पूजा करते हैं। कुछ साल पहले तक हिन्दू और मुसलमान दोनों आमी नदी के तट पर जाते थे। इस नदी की धार से उनकी आस्था जुड़ी थी। पर जबसे औद्योगिक इकाइयों ने आमी नदी को प्रदूषित किया आस्था कम होने लगी। अब तो नयी पीढ़ी का इस नदी से कोई खास लगाव नहीं रहा और पुराने लोग तरस रहे हैं कि आमी पहले जैसी हो जाय। गोरखपुर से जोगियाकोल लगभग 25 किलोमीटर दूर है। इस गांव की प्रधान वसुंधरा देवी के प्रतिनिधि उनके 28 साल के पुत्र संतोष सिंह हैं। गांव में संतोष को लोग चुन्नू कहते हैं। चन्नू बचपन में आमी नदी में नहाते थे। उन्हें याद है तब राजेश्र्वर सिंह, चन्द्रभूषण, प्रदीप, अशोक, जवाहर, रामललित, पूर्णमासी जैसे कई लोग नदी में घण्टों रह जाते थे। अब ये लोग भी नदी की ओर नहीं जाते। आमी नदी इस कदर प्रदूषित हो गयी है कि पूछिये मत। शाम को बदबू का झोंका आता है। दुर्गध इतनी कि सांस लेना भी दूभर हो जाता है। मच्छर भी खूब लगते हैं। बदबू और मच्छर के चलते लोग रात को सो नहीं पाते हैं। नदी के पानी से खेतों की सिंचाई नहीं हो पाती। पशु भी नदी में नहीं जाते। जिनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी भी अच्छी है पंम्पिंग सेट लगवा लिये हैं। अधिकांश लोग सब्जी की खेती करके अपनी आजीविका चलाते हैं। आमी नदी गांव के लोगों के लिए दुखों का पहाड़ हो गयी है। आमी के गौरवशाली अतीत को बीडीओ साहब कहे जाने वाले बुजुर्ग जोखू सिंह याद रखते हैं। वे भी क्या दिन थे जब सबके लिए नदी का तट किसी तीर्थ से कम नहीं था। अब तो गांव के सभी लोग इसकी दिक्कतों का ही पहाड़ा पढ़ते हैं। गांव में अनुसूचित जाति, सैंथवार, गुप्ता, मुसलमान, यादव और मौर्य जाति के लोग हैं और कमोवेश सभी एक दूसरे से सामंजस्य बनाये हैं। सिलाई करने वाले गुल हसन की दुकान पर सब लोग जुटते हैं। आमी के आंदोलन की चर्चा से कुछ लोगों को उम्मीद जगती है। इस बार कुछ न कुछ होकर रहेगा। जोगियाकोल कुआवल, शीतलपार, कोइरीकला, टड़वामाफी, धुसियापार, खीरीडाड़ जैसे कई गांवों का चौराहा है। लोग यहां आकर आंदोलन की गति तेज करने की बात करते हैं। गांव के किसी भी आदमी से आमी की समस्या पर बात करिये तो चेहरा गुस्से से तन जाता है। ईट भट्टे पर मजूरी करने वाला ललई हो या रिक्शा चलाने वाला बिन्दू, सब दिन भर हाड़ तोड़ मेहनत करके रोटी तो जुटा लेते हैं लेकिन इनके मन में कसक रह जाती है। आमी पहले जैसी होती तो इनके लिए रोटी की दुश्वारी नहीं होती। नदी के आंचल से जाकर सभी सुख मिल जाते। अब तो हाड़तोड़ मेहनत करके आने के बाद बदबू का झोंका चैन से सोने भी नहीं देता है। इस गांव से चलते समय द्विजेन्द्र द्विज की पंक्तियां याद आती हैं- अभागे लोग हैं कितने इसी सम्पन्न बस्ती में, अभावों के जिन्हें हर पल भयानक सांप डंसते हैं। तुम्हारे ख्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद है, हमारे ख्वाब में द्विज सिर्फ रोटी-दाल बसते हैं। ये फसले पक भी जायेंगी तो देंगी क्या भला जग को, बिना मौसम ही जिनपे रात दिन ओले बरसते हैं।
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