30 अप्रैल 2009

जो लफ्ज गूंजे दास्ताँ नही बन पाये


आनन्द राय, गोरखपुर

परिषदीय विद्यालयों में सुधार के लिए इतने प्रयोग हुये कि पूछिये मत। सरकार की नीति अच्छी थी मगर उसके नियंताओं की नीयत साफ नहीं थी। उद्देश्य जितना पाक था उसके अनुपालन में उतनी ही बदनीयती भरी रही। लम्बी-चौड़ी गाइड लाइन तैयार कर प्राइमरी स्कूलों के बच्चों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए जो लफ्ज गूंजे वे दास्तां नहीं बन पाये। परिषदीय विद्यालयों के बच्चों का मूल्यांकन करने के लिए शासन द्वारा सत्र परीक्षा, विद्यालयों का श्रेणीकरण और निरीक्षण का फरमान जारी हुआ। सचिव बेसिक शिक्षा राज प्रताप सिंह ने सभी डायट प्राचार्यो और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारियों को दो टूक हिदायत दी कि विद्यालयों के भौतिक एवं अकादमिक पर्यवेक्षण हेतु छात्र-छात्राओं की सम्प्राप्ति पर आधारित समेकित प्रणाली विकसित करते हुये विद्यालयों का श्रेणीकरण किया जाय। 2006 में बनायी गयी इस व्यवस्था को अमली जामा पहनाने के लिए गाइड लाइन दी गयी कि छमाही और सालाना परीक्षा के अतिरिक्त सितम्बर और फरवरी माह में सत्र परीक्षा आयोजित हो। हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, विज्ञान, गणित और सामाजिक विज्ञान विषय में ही परीक्षा आयोजित करने का निर्देश हुआ। इन दोनों सत्र परीक्षाओं में प्राप्त अंकों को मुख्य परीक्षा के अंकों में जोड़ने का भी निर्देश जारी हुआ। यकीन जानिये कि गोरखपुर-बस्ती मण्डल के कुल 14631 प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में बीस फीसदी विद्यालयों ने भले ही रजिस्टर बनाकर इस योजना की खानापूर्ति कर ली हो लेकिन बड़ी संख्या में स्कूलों ने इस फरमान को ठेंगे पर रखा। उद्देश्य तो यह था कि इस परीक्षा के जरिये विद्यार्थियों के अधिगम स्तर को जाना जाय और कमजोर छात्रों को चिन्हित करके उनके लिए बेहतर दिशा तय की जाय लेकिन सब कुछ कागजों तक ही रहा। इसके लिए जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान, प्रधानाध्यापक, एन। पी. आर. सी., बी.आर.सी. ए.बी.एस.ए. और जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के साथ ही मण्डलीय सहायक निदेशक बेसिक शिक्षा की जवाबदेही तय की गयी लेकिन सभी अपने कर्तव्य के प्रति उदास रहे। न ही किसी ने सुधि ली और न ही इसकी मानीटरिंग हो सकी। प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब घरों के बच्चे तो वैसे भी अक्षरों से जुड़ने की बजाय रोटी के चक्कर में ही स्कूल जाते हैं। इन्हीं बच्चों में कुछ बहुत मेधावी भी होते हैं। इन्हें तराशने की जरूरत होती लेकिन साहबों की उसमें रूचि नहीं रहती। इन्हीं की उम्र के जो बच्चे अंग्रेजीदा स्कूलों में पढ़ते वे लम्बी क्लास करने के बाद टयूशन भी लेते हैं। इस पर दो दर्जन से अधिक शिक्षकों से बातचीत की। सबने कहा कि पिछले साल तो कुछ रजिस्टर बने थे और टेस्ट लिया गया था लेकिन इस बार तो चुनावी ड्यूटी ने सारा उत्साह मार दिया। वजह कोई हो लेकिन स्कूलों में इन आदेशों पर अमल नहीं हुआ। एडी बेसिक से बातचीत की कोशिश की लेकिन सम्पर्क नहीं हो सका। एक सहायक बेसिक शिक्षा अधिकारी से सम्पर्क हुआ। छूटते ही उन्होंने सवाल कर दिया कैसी सत्र परीक्षा? फिर 26फरवरी से अपने हड़ताल का हवाला दिया और कहा-परीक्षा जरूर हुई होगी। बहुत ही अटपटा लगा। सरकारी फरमानों पर वसीम बरेलवी ने सही लिखा है- लहू न हो तो कलम तर्जुमा नहीं होता, हमारे दौर में आंसू जुबां नहीं होता। वसीम सदियों की आंखों से देखिए मुझको, वो लफ्ज हूं जो कभी दास्तां नहीं होता।


कोई टिप्पणी नहीं:

..............................
Bookmark and Share