12 फ़र॰ 2008

जिन्दगी का काफिला

उसका पडाव जिन्दगी के काफिलों के रस्ते पर नही है। कभी हवा उस ओर से गुजरी तो जिन्दगी की कुछ महक उधर भी आ पहुचती है। मेरी बहुत पुरानी दोस्ती है। अब भी जब बातचीत होती लगता वही पुराने दिन ताजा हो गए है। मुम्बई में उसने ख्वाबों की एक खूबसूरत दुनिया बसाई थी। कैफी साहब अपने बच्चे की तरह उसे प्यार करते थे।देवप्रसाद नाम है। सुरों के साधक। अब अयोध्या में सुरों की तालीम देते है।कहने को बडे मजे से उनके दिन कट रहे है। पर मुझे न जाने क्यों लगता है कि देव जिन्दगी के काफिले से कंही दूर हो गए है। मैंने सुना तो बहुतों को है लेकिन स्वर को संवेदना में बदलनेकजोहुनर देव को है कैसे कहू कि शायद ही किसी और को हो। पर यह सच्चाई है। कैफी साहब देव को रचना से जोड़े हुए थे। तब उनका मकसद देव को संगीत की बुलंदियों तक ले जाना था। देव इसके लिए खूब रियाज करते और महफ़िल लूट लेते। मुम्बई में पूर्व यू पी के एक नेता के स्वागत में देव ने अपने सुरों से शमा बांधी। नेता जी बाग़-बाग़ हो गए। एक बड़ी दुनिया सजाई। देव के ख्वाबों को हवा दी। कहने लगे- मैं अपनी ताकत से तुम्हे जगजीत और जलोटा बना दूंगा। देव के ख्वाबों में यही लोग तो बसे थे। जहाज से नेता जी के साथ ही देव दिल्ली चले गए। पहली बार वह भी आज से २० साल पहले जहाज men बैठना देव को अच्छा अशोका। kabhee ashoka तो कभी किसी ५ स्टार होटल में खाने जाते। देव की दुनिया में झूठ की मिलावट आ गयी। नेता जी ने देव के सुरों के जादू को पहचान लिया था। उन्हें लगा कि चुनाव में देव पब्लिक जुतानें में सहायक होंगे। देव की खूब खातिर हुई। देव के खवाब हवा में उड़ रहे थे। कैफी साहब उनसे दूर हो गए थे। देव ने चुनाव की बागडोर संभाली। उनके गीतों को सुनकर लोग ठहर जाते। एक नही ३-३। ४-४ मंचों पर देव के गीत होते और फिर नेताजी का भासन। १९८९ और १९९१ के चुनाव में देव के गीतों की शमा बांध गयी। देव लोंगों के दिलों में उतरने लगे। इसके बाद नेताजी सरकार में मंत्री बन गए। देव से दूरी बढ़ने लगी। देव के ख्वाब बिखरने लगे। लगा जैसे उनके ख्वाबों का गुब्बारा आकाश में बहुत दूर निकल गया है और gubbare की डोर टूट गयी है। एक सदमा जैसा लगा और एक कलाकार का हुनर सर्द हो गया। यह बिल्कुल मेरे खवाब के टूटने जैसा था। देव को लेकर मेरे मन में बहुत सी उम्मीदें थी। पर यह भरोसा था वह टूटेगा नही। देव ने खुद को संभाला और राम की नगरी में सपने सजाने चला आया। देव के हुनर से दूसरों के सपनों को गति मिल रही है लेकिन वह तो ठहर सा गया है। जगजीत और जलोटा बनने की चाह पता नही मन है भी या नही। मुझे यही लगता है कि वह अपने इतिहास से बेखबर है। उसे लोंगों की जिन्दगी में स्वर ढलने से फुरसत कहाँ है। कौन जाने उसकी जिन्दगी की तपस्या कब ख़त्म हो। पर जिस दिन वह खुद के लिए पहले जैसा सोचेगा मुझे लगता है एक नया सपना जन्म लेगा। शायद राह में छूटे हुए ख्वाब फिर से ताजा हो जाय। मैं तो सियासत को कोसता हू- वैसे ही जैसे- हर नमाजी शैख़ पैगम्बर नही होता। जुगनुओं का काफिला दिनकर नही होता। यह सियासत एक तवायफ़ का दुपट्टा है। यह किसी के आन्सुनो से तर नही होता.

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