12 फ़र॰ 2008

दूसरा वनवास

राम वनवास से लौट कर जब घर में आये।
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये।
रक्स दीवानगी आँगन में जो देखा होगा।
६ दिसम्बर को श्रीराम ने ये सोचा होगा।
इतने दीवाने कंहा से मेरे घर में आये।
जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशा।
प्यार की कहकशां लेटी थी अंगडाई जहाँ।
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आये।
धर्म क्या उनका है क्या जाट है यह जनता कौन।
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन।
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आये।
शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर।
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर।
है मेरे सर की खाता जख्म जो मेरे सर में आये।
पांव सरयू में अभी राम ne धोये भी न थे।
कि नज़र आये वहाँ खून के गहरे धब्बे।
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे।
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे।
राजधानी की फिज्जा आयी नही रास मुझे।
६ दिसम्बर को मिला दूसरा वनवास मुझे।
देव को लिखते हुए कैफी आजमी की यह रचना मुझे याद आयी। सोचा कंही देव को मिल गयी तो कैफी को श्रधान्जली होगी। बस यही सोचकर इसे पोस्ट कर रहा हू। वैसे भरोसा यह भी है कि यह अमनपसंदों को रास आयेगी.
फोटो एक ऐसे संत की है जो वास्तव में राम के आदर्श पर जंगल में फल फूल खाकर जीवन गुजार रहे है.

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