21 दिस॰ 2009

पूर्वांचल राज्य के लिए कभी नहीं धधकी सीने में आग

आनन्द राय , गोरखपुर


पूर्वांचल राज्य के लिए कभी सीने में आग नहीं धधकी। कभी कोई ऐसी क्रांति नहीं हुई जो उत्तराखण्ड और झारखण्ड आंदोलन की याद दिला सके। कभी सड़क पर जनसैलाब देखने को नहीं मिला। चेहरा चमकाने के लिए शब्दों की जुगाली सुनी गयी। बेदम नारों की गूंज जनता के कानों से टकराकर वापस लौट गयी। दर हकीकत यह मुद्दा सियासी दांव पेंच में उलझा रहा। हाशिये पर जाने के बाद जनाधार वाले नेताओं ने इस मुद्दे से रिश्ता जोड़ा लेकिन मुख्य धारा में लौटने के बाद उनके होठों पर ताले लग गये।

             छोटे बड़े स्वयंभू संगठन अरसे से पूर्वांचल राज्य की आवाज उठा रहे हैं। कभी यह मसला नामों के भंवरजाल में उलझ कर रह गया तो कभी इसे उठाने वाले ही चुप्पी साध गये। गौर से देखें तो बंद कमरों से लेकर अखबार के दफ्तरों और कुछ छोटे बड़े सभागारों से आगे यह आंदोलन बढ़ नहीं पाया। वरना इस मुद्दे की जड़ तो पूर्वी उत्त्तर प्रदेश की अस्मिता और आजादी की लड़ाई से जुड़ी है। प्रसंगवश इस बात की चर्चा महत्वपूर्ण है कि 1857 की सशस्त्र क्रांति और मंगल पाण्डेय के विद्रोह ने अंग्रेजों को भोजपुरी इलाके के प्रति नीति निर्धारण की दिशा में नये सिरे से सोचने पर मजबूर कर दिया। नतीजतन 1901 में ब्रिटिश सरकार ने गोपनीय आदेश पारित कर भोजपुरी इलाके को लेबर एरिया घोषित कर दिया। अंग्रेजों ने इस अंचल की मानव, आर्थिक और प्राकृतिक संपदा का दोहन किया। आजादी के बाद भी यह इलाका उपेक्षित ही रहा। 1953 में जब राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया गया तो पश्चिमी उत्त्तर प्रदेश के 17 जिलों के जनप्रतिनिधियों ने अलग राज्य की मांग की। जानकार बताते हैं कि सियासी समीकरणों के चलते जनप्रतिनिधियों पर दबाव पड़ा जिससे उन लोगों ने अपना ज्ञापन वापस ले लिया। तबसे लेकर अब तक राज्यों के बंटवारे को लेकर अलग अलग आवाज गूंज रही है। चाहे गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ सिंह गहमरी के संसद में उद्बोधन के बाद पटेल आयोग का गठन हो या बाद के दिनों में सेन कमेटी की संस्तुति, हमेशा पूर्वाचल के लोगों को लालीपाप देने की कोशिश की गयी।
                सबसे नोटिस लेने की बात यह कि समाजवादी पार्टी से जुड़े लोगों ने आंदोलन को खूब हवा दी। पूर्व राज्यपाल मधुकर दिघे, पूर्व मंत्री शतरूद्र प्रकाश, पूर्व मंत्री शारदा नन्द अंचल , अंजना प्रकाश, पूर्व विधायक सुरेश यादव, पूर्व सांसद रामधारी शास्त्री, पूर्व सांसद हरिकेवल प्रसाद जैसे कई नाम हैं जो कभी इस आंदोलन के फाइटर फ्रंट कहे जाते थे। मधुकर दिघे की मानें तो मुलायम सिंह से उनका मतभेद भी इसी मुद्दे पर हुआ। बाकी समाजवादियों ने मुलायम सिंह से घटती-बढ़ती नजदीकियों के हिसाब से इस आंदोलन से अपना रिश्ता बनाया। अंचल और सुरेश यादव जैसे बेहद मुखर लोग तो बाद में इस मसले पर खामोशी अख्तियार कर लिये। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कल्पनाथ राय ने तो सियासत में कांग्रेस से किनारे होने पर पूर्वाचल राज्य का अलख भी जगाया और जनाधार भी दिखाया लेकिन कांग्रेस में वापसी के साथ ही उन्होंने भी इस मुद्दे से खुद को किनारे कर लिया।
           प्रारंभ से ही इस मुद्दे पर आवाज उठाने वाली भोजपुरी क्रांति परिषद की बात हो या फिर पूर्वांचल राज्य बनाओ दल की। बीच में पूर्वाचल क्रांति परिषद जैसे संगठन भी अस्तित्व में आये। पूर्वाचल को लेकर कई और संगठन बने लेकिन जिस तरह दूसरे अंचलों में राज्यों के बंटवारे को लेकर आंदोलन हुआ और उसका जुड़ाव जनता से रहा, उस तरह यहां कोई पहल नहीं हो पायी। कई ऐसे भी संगठन बने जिनके नेताओं की इच्छा सिर्फ चेहरा चमकाने की

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