15 अग॰ 2009

अदम गोंडवी

आज हम आजादी की ६२वी वर्ष गाँठ मना कर हर्ष में डूबे हैं. पर कुछ यक्ष प्रश्न आज भी हमारे सामने हैं. अदम गोंडवी की यह पुरानी रचना मायावती की इस सरकार में भी सवाल की तरह चुभ रही है.
आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप कोमैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपकोजिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब करमर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब करहै सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरीआ रही है सामने से हरखुआ की छोकरीचल रही है छंद के आयाम को देती दिशामैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसाकैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुईलग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुईकल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन हैजानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन हैथे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट कोसो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट कोडूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत सेघास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत सेआ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात मेंक्या पता उसको कि कोई भेिड़या है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थीमोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थीचीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गईछटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गईदिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गयावासना की आग में कौमार्य उसका जल गयाऔर उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज मेंहोश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद मेंजुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब थाजो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब थाबढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन हैपूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन हैकोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहींकच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहींकैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करेंऔर ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करेंबोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध सेबच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध सेपड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान मेंवे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान मेंदृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक परदेखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गयाकल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गयाकहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहोसुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहोदेखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहांपड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहांजैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर हैहाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर हैभेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआफिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआआज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गईजाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गईवो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गईवरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रहीजानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार हैहरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार हैकल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप कीगांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्रगी आपकी´बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया थाक्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर थाहां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर थारात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर थाभोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और थासिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ मेंएक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ मेंघेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकरएक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ करगिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गयासुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहाएक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहाहोश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार परठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -`मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो´और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगीबेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगीदुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में थावह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में थाघर को जलते देखकर वे होश को खोने लगेकुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे´´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहींहुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं ´´यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल सेआ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल सेफिर दहाड़े ``इनको डंडों से सुधारा जाएगाठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगाइक सिपाही ने कहा ``साइकिल किधर को मोड़ देंहोश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें´´बोला थानेदार ``मुर्गे की तरह मत बांग दोहोश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लोये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल हैऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है´´पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल`कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल ´उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार कोसड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार कोधर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार कोप्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार कोमैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव मेंतट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव मेंगांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रहीया अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रहीहैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिएबेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

1 टिप्पणी:

वेद रत्न शुक्ल ने कहा…

राय साहब अपनी सीधी फोटो लगा दें तो अच््छा लगेगा। यह उल््टी फोटो अच््छी नहीं लगती है। बस एक सुझाव दिया है।

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