आनंद राय , गोरखपुर
सीबीआई पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान बुधवार से ही बहस के केंद्र में है. सी.बी.आई. को लेकर उनका कथन- आम धारणा यही है कि छोटे छोटे अपराधी के खिलाफ कारगर कार्रवाई होती है लेकिन भ्रष्टाचार के तालाब की बड़ी मछलियाँ सजा पाने से साफ़ बच निकलती हैं. इसे बदलना होगा.इस बयान से मीडिया उत्साहित दिखी और लगा कि मनमोहन सिंह के ये विचार सी.बी.आई. की कार्यशैली को बदलने में अहम् भूमिका निभाएंगे. पर ऐसा कुछ संभव नहीं है. मैं मनमोहन सिंह की नीयत पर कोई टीका टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ लेकिन लम्बे समय से सी.बी. आई. को सत्ता की कठपुतली बनते देख सुन रहा हूँ. जब जिसकी सरकार बनी उसने सी.बी.आई. का अपने हित में खूब इस्तेमाल किया. वैसे हिन्दुस्तान की भोली जनता और उसके रहबरों की याददाश्त इतनी कमजोर है कि कुछ याद ही नहीं रहता. वरना आपात काल के पहले से ही सी.बी.आई. की जो थुक्का फजीहत हुई वह अपने देश के हुक्मरानों ने ही तो करवाई. जनता पार्टी की जब सरकार बनी तब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया था. उसी समय सी.बी.आई. के निदेशक रहे देवेन्द्र सेन भी गिरफतार किये गए. उन्हें शाह कमीशन ने सजा दी और संसद ने उन्हें कृष्ण स्वामी मामले में जेल भेजा था. सेन के बारे में यह आम धारणा थी कि वे कड़क और ईमानदार अफसर थे. पर उन्हें ६० की उमर पार करने के बाद सेवा विस्तार मिल गया था. सेवा विस्तार पाने वाले वे पहले सी.बी.आई. अफसर थे और उसके बाद ही उनकी ख्याति दागदार हो गयी थी. वे अगर सेवा विस्तार नहीं पाते तो शायद एक बड़े महत्वपूर्ण अफसर पीवी हिंगोरानी को निदेशक बनने का मौका मिल जाता. हिंगोरानी अपने काम से मशहूर हुए और यह तो किवदंती है कि जब भारत सरकार के मंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या हुई तो बाद के दिनों में मामले की जांच कर रहे हिंगोरानी ने बिहार के समस्तीपुर में छः माह तक सुरागरसी की और उनके प्रयास से ही मामले का खुलासा हुआ. खैर सी.बी.आई तो सत्ता का सबसे बड़ा हथियार है और कोई राजनीतिक दल किसी पर तोहमत लगाने की हैसियत में नहीं है. जनता पार्टी की सरकार बनी तो उसने भी सी.बी.आई. का इस्रेमाल शुरू किया. आपातकाल के दौरान सी.बी.आई के शिकंजे में फंसे कई अफसर बाद में छूट गए. दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर बालेश्वर प्रसाद पर कार्यकाल के दौरान कई संगीन आरोप लगे. उनका मामला सी.बी.आई॥ के पास था लेकिन अफसरों की गवाही और नेताओं के दबाव से वे बच गए. सबसे रोचक मामला तो सी.बीआई. अफसर निर्मल कुमार सिंह का है. उन्होंने ही इंदिरा गांधी को गिरफतार किया था. पर बाद में उन्हें भी जेल जाना पडा. जिन लोगों ने उनके दिलेरी की खूब सराहना की थी वही लोग फिर उनसे कन्नी काट लिए. उनसे जुडी एक कहानी है जिसके मूल में फिल्म निर्माता अमृत लाल नाहटा थे. दरअसल नाहटा ने किस्सा कुर्सी का नाम की एक फिल्म बनायी थी. यह फिल्म एक राजनीतिक व्यंग थी. यह फिल्म जब्त कर ली गयी थी. बाद में नाहटा राजस्थान से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लडे और चुनाव के बाद संसद में यह मामला उठा. फिल्म के प्रिंट को हासिल करने के लिए लम्बी कवायद हुई. यह मामला भी सी.बी.आई. के पास आया था. निर्मल कुमार सिंह ने इस मामले की जांच की और उन्होंने संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ भी इस मामले में मुकदमा दर्ज करवाया. बाद में इस मामले में नाहटा ही बदल गए और उन्होंने रात दिन एक करने वाले अफसरों के ही खिलाफ झूठा बयान दे दिया. चीनी सौदे में सुखराम के खिलाफ भी एक बड़ा मामला आया. खाद्य और आपूर्ति मंत्री के रूप में सुखराम ने १९८९ में राजकोष को लगभग ३० लाख डालर का नुकसान पहुचाया था. सी.बी.आई की शाख पर बट्टा लगाने के लिए फोन टेपिंग काण्ड और सेंत किट्स काण्ड भी नोटिस लेने योग्य है. पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने अपने कार्यकाल से पूर्व वी.पी.सिंह के कार्यकाल में अपना फोन टेप करवाए जाने का आरोप लगाया था. चन्द्रा स्वामी और बबलू के अन्तर्सम्बन्धों के खुलासे के बाद तत्कालीन मंत्री राजेश पायलट का मामला हो या फिर मुम्बई के जे जे हास्पीटल में दाऊद के इशारे पर हुई गोलीबारी में केन्द्रीय मंत्री कल्पनाथ राय और सांसद ब्रजभूषण शरण पर अपराधियों को संरक्षण देने का मामला हो हर जगह तो सी.बी.आई पर सत्ता की नकेल कसी रही. भले कुछ हेर फेर के साथ नतीजे बदल गए हों. मीडिया के लिए सबसे बड़ा संकट यही है कि वह आजजीवी है. उसकी दौड़ आज के हिसाब से हो गयी है. मनमोहन सिंह ने सी.बी.आई को आईना दिखाकर बेहतर सन्देश जरूर दिया है लेकिन उन्हें सी.बी.आई. ही नहीं बल्कि उस हर संस्था को मजबूत ताकत देनी चाहिए जो किसी के इशारों का गुलाम होकर काम न करें. जब भी राज्यों में सरकारें बदलती हैं तब यह विपक्षी दल यह आरोप लगाते हैं कि पुलिस सरकार का हारर दस्ता बन गयी है. पर सरकार बदलते ही पुलिस के बल पर सियासत का खेल शुरू हो जाता है. तंत्र का इस्तेमाल सत्ता में बने रहने के लिए हो रहा है और इसके लिए सभी राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं. कोई दूध का धुला नहीं है. सी.बी.आई. तो आकंठ भ्रष्टाचार में डूब गयी है. उसके छोटे छोटे अफसर भी सिर्फ पैसे के खेल में शामिल हो गए हैं. सियासत के हाथों की कठपुतली बन गए हैं. इस पर अंकुश लगाए बिना बेहतर परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है. और जिसकी धमनियों में भ्रष्टाचार का लहू दौड़ रहा हो वह छोटी मछलिया ही पकड़ सकता है. बड़ी मछलियों को पकड़ने की हिम्मत उसमे नहीं आ सकती.
सी.बी.आई का समय समय पर खूब इस्तेमाल हुआ है। अब तो सियासत में अपने दुश्मनों की अकड़ ढीली करने के लिए भी इसका प्रयोग हो रहा है। कभी अमर सिंह और कभी मायावती के बयान इस बात को पुष्ट करते हैं।
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