5 मई 2009

एटा में कल्याण-मुलायम दोस्ती का इम्तहान

दैनिक जागरण इस्टेट ब्यूरो के सदगुरू शरण ने यह रिपोर्ट एटा से फाईल की है। चूंकि यह सामयिक है इसलिए इसे मैं अपने ब्लॉग पर प्रदर्शित कर रहा हूँ।
अब वे राम जन्मभूमि आंदोलन के नायक कल्याण सिंह नहीं हैं और न ही भाजपा के सर्वोच्च नेता। अब वह राम मन्दिर निर्माण कराने की कसमें नहीं खाते, बल्कि अयोध्या कांड पर प्रायश्चित करते हैं। हिन्दूवादी कल्याण सिंह अब सेकुलर बन गए हैं, यद्यपि इस नये अवतार ने उनकी परम्परागत छवि के अलावा वोट बैंक और भरोसे पर भी चोट की है। एटा के चुनाव समर में कल्याण सिंह नये अस्त्र-शस्त्र लेकर मैदान में हैं, जिनके संचालन का उन्हें कतई अभ्यास नहीं। उनके साथ कोई भी पुरानी निशानी बाकी है, तो वो है उनका ऊंचा राजनीतिक कद, जो इस चुनाव में भी उन्हें बाकी उम्मीदवारों से अलग दर्शा रहा है। यह कद ही उनकी ताकत है और शायद सफलता की उम्मीदों का आधार भी। वास्तव में कल्याण सिंह एटा के चुनावी चक्रव्यूह में घिर गए हैं। मुसलमान अयोध्या कांड के लिए उन्हें माफ नहीं कर रहे, जबकि इसे लेकर बार-बार माफी मांगने से उनके परंपरागत समर्थक भी आहत हो रहे हैं। जैसे-जैसे मतदान की तिथि करीब आ रही, उनके समर्थन व विरोध में धु्रवीकरण तेज होता जा रहा है। मोहरों की विचित्र चाल के कारण एटा की चुनावी बिसात वोट बैंक गणित का जटिल प्रमेय बनती जा रही है। यह चुनाव एक तरफ कल्याण सिंह के नये अवतार की अग्निपरीक्षा ले रहा है, दूसरी तरफ उनकी और मुलायम सिंह की दोस्ती की। खेत बेचकर असलहे खरीदने के लिए चर्चित एटा जिले के चुनावी समीकरण इसलिए भी जटिल हैं, क्योंकि कल्याण सिंह सहित चारों प्रमुख उम्मीदवार ऐन चुनाव के वक्त अपनी पार्टियों से बगावत करके दूसरी पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। कल्याण सिंह ने भाजपा छोड़कर मुलायम सिंह से हाथ मिलाया, तो सपा के सिटिंग सांसद देवेन्द्र सिंह यादव बसपा का टिकट झटक लाये। कल्याण सिंह के जाते ही भाजपा ने बसपा के लोकसभा क्षेत्र कोआर्डीनेटर डा.श्याम सिंह शाक्य को तोड़ लिया, तो लगातार चार बार भाजपा सांसद रहे महादीपक सिंह शाक्य ने निष्ठा बदल कांग्रेस का टिकट हथिया लिया। एटा में जातिवादी राजनीति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर में भी कांग्रेस हार गई थी। वहीं एटा इस बार इन चार बागी उम्मीदवारों की प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बना हुआ है, यद्यपि इसके बावजूद चुनावी गणित का आधार जातियों का जोड़-बाकी ही है। यह अलग बात है कि मुकाबले का सारा रोमांच व रोचकता कल्याण सिंह पर ही केन्दि्रत है। कल्याण सिंह के चुनाव संयोजक हरनाथ सिंह यादव दावा करते हैं कि सपा व कल्याण सिंह समर्थकों का गठजोड़ (यादव-लोध वोट बैंक की तरफ) अजेय है, यद्यपि बसपा उम्मीदवार देवेन्द्र सिंह यादव के बारे में ऐसा ही दावा पटियाली के राजेश सिंह भी करते हैं। वास्तविकता यह है कि दोनों पक्ष सिर्फ अ‌र्द्धसत्य बोल रहे हैं। हरनाथ यादव का कहना है कि कल्याण सिंह को लोध, यादव व मुस्लिम वर्गो का पूरा समर्थन प्राप्त है, जिनकी कुल संख्या करीब छह लाख है। उधर, राजेश सिंह का कहना है कि बसपा उम्मीदवार को 50 फीसदी यादवों के अलावा शत-प्रतिशत ठाकुर, ब्राह्मण व मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिल रहा है। बेशक कल्याण सिंह इस चुनाव के केन्द्रबिन्दु हैं तथा छह दिसम्बर में उनकी भूमिका मुख्य चुनावी मुद्दा। मुलायम सिंह इस बारे में लगभग रोज सफाई दे रहे हैं, लेकिन कम से कम एटा के मुसलमानों पर इसका असर नहीं दिखता। किसी जमाने में मुलायम सिंह के करीबी रहे व्यापारी हाजी सल्लू मियां कहते हैं आम मुसलमान इस पैक्ट (कल्याण-मुलायम) से खुश नहीं है। वे जानते हैं अब उन्हें क्या करना है। बकौल सल्लू मियां, सपा ने मुसलमानों की पीठ में छुरा घोंपा है। अधिवक्ता मु.शमशुद्दीन भी कहते हैं कि कल्याण सिंह को मुसलमान पसन्द नहीं करते। मुद्दे पर आम मुसलमानों की राय सपा के पक्ष में नहीं है।

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