आनन्द राय, गोरखपुर
संतकबीरनगर की पहचान खरी-खरी सुनाने वाले कबीर की वजह से है। बस्ती को आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डुमरियागंज (सिद्धार्थनगर) को गौतम बुद्ध के चलते भारतीय मानचित्र पर विशेष स्थान मिला है। बस्ती मण्डल की इन तीनों संसदीय सीटों पर गुरुवार को मतदान सम्पन्न हो गया। लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में लोक सक्रिय नहीं हो पाया। आधे से अधिक लोग अपने अपने घरों में बैठे रह गये। तटस्थ भाव में। बिल्कुल यह सोचकर कोउ नृप होई हमें का हानि..। यकीनन इस बार मतदान के लिए बुद्धिजीवियों ने खुलकर अपील की। मतदाताओं को खूब उत्साहित किया गया। अभियान दर अभियान चले लेकिन कोई कारगर नतीजा नहीं निकला। अभी पिछले गुरुवार को गोरखपुर मण्डल की पांच सीटों पर हुये मतदान में भी पचास फीसदी से कम मत पड़े। इन दोनों मण्डलों में आधे से अधिक मतदाता मतदान के प्रति उदासीन रहे। इसकी पड़ताल की कोशिश हुई तो कई तरह की बातें सामने आयी। सतही तौर पर लोगों ने मौसम और खेती-किसानी को वजह बताया। पर जब उनसे यह तर्क हुआ कि गोरखपुर जैसे महानगर में महज 33 फीसदी ही वोट पड़े तो फिर कुछ दूसरी तरह के भी तथ्य उभरे। यहां एक सहायक अभियंता हैं जिनका गांव संतकबीरनगर जिले में है। वे अपने गांव की राजनीति में रुचि रखते हैं। बुधवार की शाम को उन्होंने परिवार समेत गांव जाकर मतदान करने का मन बनाया लेकिन गुरुवार को पूरे दिन गोरखपुर में अपने घर पड़े रहे। हमने पूछा कि वोट देने क्यों नहीं गये? तो शुरू में उन्होंने तेज धूप को ही कारण बताया लेकिन थोड़ा कुरेदने पर बोले- असल में दो प्रत्याशी मेरे बहुत करीबी हैं और मेरे वोट न देने से किसी के नाराज होने का खतरा नहीं रहेगा। यह तकनीक अकेले एक आदमी की नहीं है, ऐसे बहुत से लोग हैं जो तटस्थ भाव में हैं। उनकी नजर में मतदान से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने व्यक्तिगत समीकरण हैं। शायद ऐसी ही स्थितियों के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा- समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो, शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो, पथरीली ऊंची जमीन है? तो उसको तोड़ेंगे, समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे, समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। भारत भारती से सम्मानित सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. परमानन्द श्रीवास्तव कहते हैं कि बच्चे और विचारक लगातार अपील कर रहे हैं लेकिन मध्य वर्ग और सामान्य वर्ग को वोट की चिंता नहीं है। इसकी वजह पूछने पर वे दो टूक कहते- बुद्धिजीवी आत्म केन्दि्रत हो गया है और उन्हें समाज नहीं दिख रहा है। मतदान को निजी तौर पर वे लोग अपने हित से नहीं जोड़ पा रहे हैं। मतदान कितना नेक पर्व है। इसका उदाहरण पिछले गुरुवार को गोरखपुर में 79 साल के सुप्रसिद्ध राजनीति शास्त्री और सक्रिय आंदोलनकारी प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने दिया। प्रो. त्रिपाठी वाकर से चलकर वोट देने गये और गर्मी की वजह से तीन दिन बीमार रहे। उनकी चिंता है कि यही हाल रहा तो लोकतंत्र हाईजैक हो जायेगा लेकिन उन्हें यह उम्मीद है कि इग्लैंड में लोकतंत्र को पटरी पर आने में सैकड़ों साल लग गये तो देर-सवेर यहां भी हालत सुधर जायेगी। प्रो. रामकृष्ण मणि नागरिकों में उपेक्षा के भाव को मतदान के प्रति उदासी की खास वजह बताते हैं। दूसरे सत्ता के लिए राजनीतिक दलों की गणित और उनकी निरर्थक भूमिका भी एक कारण है। उनकी नजर में एक तीसरी वजह यह भी है कि अब राजनीतिक दलों की सारी गणित जाति और संप्रदाय के बीच सिमट गयी है। पर गोरखपुर विश्र्वविद्यालय के समाजशास्त्री डा. मानवेन्द्र प्रताप सिंह कहते हैं कि- अभी तक मतदाताओं में जाति और धर्म के आधार पर कट्टरपंथी रवैया था लेकिन इस बार यह धारणा खत्म हुई है। इस वजह से भी मतदान के प्रति लोगों में उदासी आयी है।
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