इसी आने वाले तीन मार्च को फिराक गोरखपुरी को गुजरे २६ साल हो जायेंगें। उनकी गजलों और नज्मों ने हिन्दी उर्दू में अपना अलग मुकाम बनाया है। वे साहित्य की दुनिया में मील के पत्थर हैं। गोरखपुर को इस बात का गर्व है की वे इस माटी के सपूत हैं। फिराक पर भारत को ही नही पूरी दुनिया को गर्व है। फिराक के जीवन से जुड़े कुछ ऐसे संदर्भ हैं जो उनकी रचनाओं में उतरें हैं। बात तबकी है जब १९२२ में असहयोग आन्दोलन के जुर्म की सजा में वे कैद काट रहे थे। बमुश्किल २१-२२ वर्ष की आयु में उनके छोटे भाई की मौत हो गई। जेल में फिराक को उस भाई की मौत का समाचार मिला जिसे वे बीमार छोड़ कर गए थे। भाई को टीबी थी। उन्होंने अपने भाई के लिए जो अशआर लिखे वे मशहूर तो हुए लेकिन यह कम लोग जानते हैं की फिराक इसे लिखते हुए खून के आंसू रोये। ख़ास बात यह भी की भाई के मरने के तुरंत बाद की गई rachnaa१९३५ में सार्वजनिक हुई।
घाट पर जलने- जलाने के हैं सामां हाय-हाय
किस कद्र खामोश है शहर-ऐ- ख्मोशा हाय-हाय
मिटती जाती है उफक से सुर्खिये-ऐ- रंग शफक
बढ़ता जाता है स्वाद-ऐ-शाम-ऐ- जिंदा हाय-हाय
वो सुकुते-ऐ-गम वो एक हंगामा बे-शोरोशर
याद आके कुछ वो उठना दर्द-ऐ-हिजरां हाय-हाय
एक सन्नाटे का आलम है दरों-दीवार पर
शाम-ऐ- जिन्दान अब हुई तो शाम-ऐ-जिंदान हाय-हाय
यह चमकते दर्द, यह जुल्मत, यह दिल उमड हुए
यह छलकते जाम यह बज्मे चिरागा हाय-हाय
अब कहाँ है खून रोने वाले मेरे दर्द पर
खाक में मिल जाने वाले लाला कारा हाय-हाय
निजा में देखा था वो चेहरा उतरते अहले दिल
उस शकिस्ट-ऐ-रंग के आइना दारा हाय-हाय
उफ़ बगूलों का यह आलम बाढ़ ऐ सर सर का यह जोश
खाक उडाता है तेरे गम में बयाँबा हाय-हाय
मरने वाले याद आती है जन्वामरगी तेरी
उठ गया दिल में लिए तूं दिल के अरमान हाय-हाय
याद आयेगी किसी शोरीदा सर वह्शातें
देख कर गुल्कारिये दीवारे जिंदा हाय-हाय
सोने वाले ख़ाक वीरानों में उड़ती है तेरी
बादऐ सर सर है तेरी गह्वारा-ऐ- जुम्बा हाय-हाय
यह घड़ी भी आयी और जीता हूँ मैं हिर्मानसीब
छूटता है हाथ से दामान-ऐ-जाना हाय-हाय
नश्तर-ऐ-गम उज्लते जज्ब-ऐ-निहां की दाद दे
कर लिया तुझको भी पैवस्त-ऐ-रग-ऐ-जान हाय-हाय
मेरी किस्मत में तुझे कान्धा भी देना जब न था
दिल ने यों बांधा था तुझसे अह्दो पैमा हाय-हाय
अलविदा ऐ जोर-ऐ-बाजू प्यारे भाई अल फिराक
अब तो मैं हूँ और तेरे दाग-ऐ-हिजरां हाय-हाय
कैद में जी खोल के रोना भी मुश्किल हो गया
अब मैं समझा माँअनी-ऐ-तंगी-ऐ-जिंदा हाय-हाय
आह! यह आदाब-ऐ-जिंदा यह शआर-ऐ-जब्त-ऐ-गम
यह वफूर-ऐ-दर्द यह हाल ये परीशान हाय-हाय
अपने मरने पर मेरा रोना था तुझको गवार
इतना कब था मुझको पास-ऐ-अहल-ऐ-जिंदा हाय-हाय
शर्म आती है मुझे जीने से तुझको खो के आह!
इस तरह करना न था तुझको पशेमा हाय-हाय
कैद में भी परदादाआरी गम की मुश्किल हो गई
खुल गया राज-ऐ-दरों- दीवार-ऐ-जिंदा हाय-हाय
घर को मैं क्या मुंह दिखाउंगा रिहा होकर फिराक
मैं असीर और उनके यह हाल-ऐ-परेशा हाय-हाय
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