आनन्द राय, गोरखपुर:
फिराक गोरखपुरी साहित्य में अपना अलग स्थान रखते हैं. गोरखपुर के बन्वारपार में पैदा हुए और बचपन में यही रहे. पर बाद में गोरखपुर से उनका मोह भंग हो गया. इलाहाबद में बसे तो वही जम गए. एक बार वे यहाँ चुनाव लड़ने आये और जनता ने उन्हें हरा दिया. खूब गुस्से में लाल पीले हुए और वापस लौट गए. फिर जब भी कभी आये तो मुश्किल से आये और बहुत मनुहार के बाद ही आये. फिराक साहब ने आजादी की लड़ाई में अपनी खूब सक्रियता दिखाई. उन्होंने डिप्टी कलक्टरी छोड़ दी. यह बात तो उनके चाहने वाले और न चाहने वाले सभी जानते हैं. पर उनके जीवन की बहुत सी बातें शोध के लिए मौजू हैं. वे अपने जीवन की निजी बातों को कविता की शक्ल, ग़ज़ल की शक्ल में ढाल लेते थे. कुछ घटनाओं को उन्होंने लम्बी नज़्म का रूप दिया है. मसलन जब उनके छोटे भाई की युवावस्था में मौत हुई तो एक बहुत ही मार्मिक नज्म लिखे. जवामर्ग छोटे भाई का नौहा. इस शीर्षक से उनकी लम्बी रचना है. १९२२ में उन दिनों फिराक साहब असहयोग आन्दोलन के जुर्म की सजा में अंग्रेजों की कैद काट रहे थे. तभी भाई के मरने की खबर मिली और उन्होंने अपनी रचना की लेकिन १९३५ में उसे नया रूप दिया.
मुसाफिर सो गया क्या जाग उठी तकदीर मंजिल की ..... उनकी एक यादगार रुबाई है. यह मुझे याद नहीं है. परमानंद जी से मैंने माँगा है और वे इस रचना को दें तो मैं पोस्ट भी कर दूंगा. बताते हैं कि १९१८ में फिराक साहब के पिता हजरत इबरत गोरखपुरी की मौत देहरादून में हुई जहां उन्हें इलाज के लिए ले जाया गया था. फिराक साहब ने लिखा है कि पौ फट रही थी. घर के सब लोग रो रो कर बेहाल थे. जब लोग रो रो कर कुछ चुप हुए तो उनकी अम्मा ने उन्हें बुलवाया. उनसे बोली कि बेटा पिताजी कितने निश्छल व्यक्ति थे. देखो उनके मरने से हम लोगों पर दुःख एवं कष्टों का पहाड़ टूट पडा लेकिन घर उदास मालूम नहीं होता. आकाश से मिली हुई पहाडियों पर बसे हुए मसूरी के मनोरम दृश्य पर सूर्य की पहली किरणे पड़ रही थी. आम आस्था है कि जब कोई पुन्य मन स्वच्छ निहित व्यक्ति मरता है तो वहां का वातावरण दूषित और करुनामय प्रतीत होने के विपरीत एवं विशुद्ध दिखाई देता है. जाग उठी तकदीर मंजिल की रचना इसी घटना के बाद अस्तित्व में आयी.
फिराक को यह शहर भूल रहा है. यहाँ के लोग भूल रहे हैं. यह बात दिल में चुभती है. फिराक देश की विरासत हैं. साहित्य की विरासत हैं. हिन्दुस्तान में ही नहीं पकिस्तान में भी उनके चाहने वाले हैं. पर क्या कहा जाय सब वक्त का तकाजा है. उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें चित्रगुप्त सभा सिर्फ इसलिए याद करती है कि वे कायस्थ थे. उनके लिए उन्ही के शब्दों में कहें तो बेहतर है-
तुझे भुलाएँ तो नीद आते आते रह जाए.
कोई अधूरी कहानी सी जैसे कह जाए .
निगाह ए मस्त तेरी थाह कोई पा न सका.
फिराक ही की नजर है जो तह-ब-तह जाए.
3 टिप्पणियां:
कुछ नयी बातें पता चली, वो कविता मिलते ही जरूर पोस्ट करियेगा...ये बात दुखद है कि जिनके प्रशंशक पूरे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में भी हों,,,उन्हें शहर में कोई भी याद करने वाला नहीं....बस एक सभा उन्हें याद करती है,,वो भी इसलिए क्योंकि वो कायस्थ थे...शुक्रिया....
फिराक देश की विरासत हैं. साहित्य की विरासत हैं. हिन्दुस्तान में ही नहीं पकिस्तान में भी उनके चाहने वाले हैं.nice
कभी-कभी ये भी सोचा किया करो राजेशा
कि अपनी तिथि पुण्यतिथि होगी कि नहीं।
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