आनन्द राय, गोरखपुर
उनवल स्टेट से सटे गोड़सैरा गांव है। यह गांव आमी नदी के प्रदूषण से सिसक रहा है। कभी गुलजार था यह गांव पर अब बदबू और मच्छरों ने यहां की जिंदगी पर पहरा बिठा दिया है। यह गांव तीन पीढि़यों के टूटते और ढहते जाने की त्रासदी का गवाह बन गया है। इस गांव की हालत देखने पर बस रोना आता है। औद्योगिक इकाइयों के अपजल से ऐतिहासिक आमी नदी प्रदूषित हुई तो तट पर बसे सैकड़ों गांवों की सूरत बिगड़ गयी। उन्हीं गांवों में गोड़सैरा भी एक है। गोरखपुर से लगभग 20 किलोमीटर दूर यह गांव अपने स्वर्णिम अतीत और भयावह वर्तमान के बीच सैण्डबिच बना हुआ है। इस गांव के उत्साही युवा राजेश सिंह, व्यास सिंह और वरिष्ठ उदय प्रताप सिंह प्रतिदिन गांव को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए ताना-बाना बुनते हैं। आमी मुक्ति की लड़ाई में पूरी तरह समर्पित रहते हैं और जब कभी गांव के लोगों की व्यथा बढ़ जाती तो उस जख्म पर मरहम लगाने की भी कोशिश करते हैं। 1800 लोगों की आबादी वाले गोड़सैरा गंाव में कुल चार टोले हैं। गोड़सैरा के अलावा डीह टोला, जगन्नाथपुर और रक्शाबाबू। नदी से महज दस कदम ऊपर यह गांव है। गांव नदी के प्रदूषण से तबाह हो गया है। गांव में मुख्य रूप से आलू और गेहूं की खेती होती है। शेष फसलों को कभी बाढ़ तो कभी नीलगाय लील जाती हैं। प्रदूषित जल से गेहूं की फसलों पर भी मार पड़ती है। लेबर खेत में पानी भी नहीं चलाना चाहते। हवा जब जब चलती है तो इस गांव में बदबू का झोंका तेज हो जाता है। हैण्डपम्पों का पानी भी बदबू देता है। इसीलिए लोग गांव में रहना नहीं चाहते। पन्द्रह फीसदी लोगों ने बाहर अपना डेरा बना लिया है। गांव के अत्यंत बुजुर्ग 90 साल के कल्पनाथ सिंह उनवल जूनियर हाई स्कूल में हेडमास्टर थे। उन्हें पुराने दिन याद हैं। जब नदी की अमृत धारा से सुख के भाप उड़ते थे और बादल बनकर बरसते थे तो पूरे गांव का चेहरा खुशियों से खिल उठता था। अब तो दुखों के बादल छाते हैं, मंड़राते हैं और बरस जाते हैं। भटवली इण्टर कालेज के अवकाश प्राप्त शिक्षक 70 साल के रुदल सिंह उनकी बात की तस्दीक करते हैं। लोको कारखाना में काम कर चुके 70 साल के हरिवंश मौर्या, उन्हीं के वय के रामगुलाम सिंह और किसान शिवशंकर सिंह भी पुराने दिनों को याद करते हैं तो पुरानी यादें टीस बनकर उभर जाती हैं। टीस तो इस गांव के हिस्से में पता नहीं कबसे है। पर जब 1998 की बाढ़ आयी तो दुख और बढ़ा गयी। बहुतों का घर ध्वस्त हो गया। फिर गरीबी बढ़ी और उन घरों की दीवार उठ नहीं पायी। गिनती के लोगों ने अपना नया आशियाना बना लिया है लेकिन वह भी सिर्फ सिर ढंकने लायक। बाकी भगवान सिंह, कैलाश सिंह, बृजबली सिंह, जगदीश सिंह सरीखे लोग हैं जिनके ध्वस्त हुये मकान आज भी बदहाली की गवाही दे रहे हैं। बीमारी तो इस गांव के लिए साझीदार हो गयी है। 8 से 10 साल की उम्र के आनन्द सिंह, रितिक सिंह, शुभम और विक्की को धूल मिट्टी में खेलते हुये भी बचपन का अहसास नहीं है। उन्हें अपने मां-बाप की दिक्कतों का भी भान है। आमी की बदबू से पीड़ा भी है और दूषित पेयजल को लेकर गुस्सा भी है। वाकई गांव की पीड़ा अथाह है। यह न तो व्यवस्था को समझ में आ सकती है और न ही सियासत को।
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