26 फ़र॰ 2008

मुझको कत्ल करो


अभी गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल में मैंने गर्म हवा देखी । पूरी फ़िल्म देख नही पाया। पर फ़िल्म से पहले मंगलेश डबराल ने उसकी भूमिका बताई। बंटवारे और विस्थापन का दर्द समेटे एक ऐसे आदमी की दास्ताँ जो मन को भर दे। ऐसे मौकों पर मुझे बराबर राही मासूम राजा याद आते हैं। उनकी कुछ रचनाएं याद आती हैं।

राही की एक कविता जो उन्होंने १९६४ में अलीगढ़ में रहते हुए लिखी। यह कविता हर छड़ एक नया सवाल लिए खड़ी रहती है-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको कत्ल करो

और मेरे घर में आग लगा दो

मेरे उस कमरे की अस्मत लूटो

जिसमें मेरी ब्याजें जाग रही हैं

और मैं जिसमें तुलसी के रामायण से

सर्गोशी करके कालिदास के

मेघदूत से यह कहता हूँ:

मेरा भी एक संदेशा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंकों

और उस जोगी से यह कह दो:

महादेव!

अब इस गंगा को वापस ले लो

यह मलेछ तुर्कों के बदन में गार्हा गर्म लहू बन-बन कर दौड़ रही है।

मैं इस कविता को भाई अशोक चौधरी और मनोज सिंह के लिए विशेष रूप से अर्ज किया हूँ जिनके जेहन में हर पल अमन का राग सुनाई पड़ता है और इसके लिए इनकी सक्रियता बनी रहती है। उनके सफल आयोजन के लिए बधाई ।

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